(आलेख : जवरीमल्ल पारख)

संघ-भाजपा द्वारा प्रायोजित फ़िल्मों में ‘आर्टिकल 370’ भी एक महत्त्वपूर्ण प्रोपेगेंडा फ़िल्म है, जो इसी वर्ष 23 फ़रवरी 2024 को प्रदर्शित की गयी यानी लोकसभा चुनाव से केवल दो माह पहले। स्पष्ट है कि इस फ़िल्म के द्वारा भारतीय मतदाताओं को साढ़े चार साल पहले भारतीय संविधान के आर्टिकल 370 को निरस्त किये जाने के अपने कारनामे की याद दिलाना था, तो इसी फ़िल्म के ज़रिये एक बार फिर पुलवामा में आतंकी हमले में मारे गये 40 भारतीय जवानों की शहादत को भुनाना भी था। पुलवामा का आतंकी हमला 2019 के लोकसभा चुनावों के दो महीना पहले 14 फ़रवरी को अंजाम दिया गया था और इस भयावह घटना को अधिकतम ढंग से भुनाने का काम नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने किया था। 2019 के चुनावों में मिली जीत में पुलवामा की घटना का भी बड़ा हाथ है। हालांकि 2019 के जनवरी महीने में ही ‘उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक’ भी रिलीज हुई थी जिसके लेखक और निर्देशक आदित्य धर थे, जो ‘आर्टिकल 370’ फ़िल्म के निर्माता और लेखक हैं।

‘उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक’ फ़िल्म 18 सितंबर 2016 को हुए कश्मीर के उरी शहर के नज़दीक एक सेना ब्रिगेड मुख्यालय पर आतंकवादी हमले से संबंधित है, जिसमें भारतीय सेना के 19 जवान मारे गये थे और इससे अधिक जवान घायल हुए थे। यह पिछले दो दशकों में सुरक्षा बलों पर किया गया सबसे ख़तरनाक हमला था। इस आतंकवादी हमले का जबाव देने के लिए भारतीय सेना के कमांडो ने 11 दिन बाद पाकिस्तान की सीमा में घुसकर लगभग 150 आतंकवादियों को मार गिराया था। हालांकि पाकिस्तान ने ऐसे किसी हमले के होने से इंकार किया था और सिर्फ़ इतना स्वीकार किया था कि सीमा पर दोनों ओर से गोलीबारी हुई थी। ‘उरी : दि सर्जिकल स्ट्राइक’, जो इस हमले के लगभग ढाई साल बाद रिलीज़ हुई, इसी आतंकवादी हमले और इस हमले के भारत द्वारा दिये गये जवाब पर आधारित थी। इस फ़िल्म का 2019 के चुनावों से पहले प्रदर्शित किये जाने के पीछे का मक़सद भाजपा के पक्ष में अंधराष्ट्रवादी भावनाएं भड़काकर माहौल बनाने में मदद करना था। लेकिन इस फ़िल्म के द्वारा मोदी सरकार की ईंट का जवाब पत्थर से देने वाली छवि बनाना भी उद्देश्य था। नरेंद्र मोदी की भाषा में ही कहा जाये, तो दुश्मन के घर में घुसकर मारने में इस सरकार को किसी का डर नहीं है। यह और बात है कि इस फ़िल्म के प्रदर्शन के एक महीने बाद ही पुलवामा की घटना घटित हुई और इसी भाषा में उसे कहा जाये, तो पुलवामा की आतंकवादी घटना भी घर में घुसकर मारने की ही घटना है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि इस बार यह सर्जिकल स्ट्राइक पाकिस्तान और उनके समर्थक आतंकवादियों द्वारा हुई।

‘आर्टिकल 370’ फ़िल्म का प्रदर्शन भी पांच साल बाद उसी महीने में किया गया, जिस महीने में पुलवामा घटित हुआ था और इस बार भी लोकसभा चुनाव के ठीक दो माह पहले। फ़िल्म के प्रदर्शन के तीन दिन पहले यानी 20 फ़रवरी 2024 को जम्मू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भाषण के दौरान कहा कि ‘मैं नहीं जानता कि फ़िल्म किस बारे में है, लेकिन मैंने कल टीवी पर सुना कि आर्टिकल 370 के बारे में एक फ़िल्म आ रही है। अच्छी बात है। जनता सही सूचना प्राप्त कर सके, इसके लिए यह बहुत उपयोगी होगी’। इस तरह फ़िल्म के रिलीज़ होने से पहले ही प्रधानमंत्री ने फ़िल्म का समर्थन कर दिया। उनका इस तरह फ़िल्म को सार्वजनिक रूप से समर्थन देना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि इस फ़िल्म को किस नज़रिये से बनाया गया होगा। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकारों ने इस फ़िल्म को कर-मुक्त भी इसी वजह से किया था। फ़िल्म के बारे में प्रधानमंत्री का दावा चाहे जो हो, लेकिन स्वयं फ़िल्म के निर्माता आदित्य धर के अनुसार, ‘फ़िल्म आर्टिकल 370 से जुड़े तथ्यों का लेखा-जोखा नहीं है, बल्कि सच्ची घटनाओं से प्रेरित एक काल्पनिक कथा है’।

फ़िल्म निर्माता के इस दावे के बावजूद कि ‘यह सच्ची घटनाओं से प्रेरित काल्पनिक कथा’ है, इसकी प्रस्तुति इस ढंग से की गयी है कि इसे आर्टिकल 370 से जुड़े इतिहास की पुनर्प्रस्तुति की तरह दर्शक देखें और जो कुछ भी दिखाया जाये, उसे सच मानें। उदाहरण के लिए जिन वास्तविक लोगों को बदले हुए नामों के साथ फ़िल्म में दिखाया गया है, उन्हें फ़िल्म में देखकर ही दर्शक आसानी से पहचान सकते हैं कि ये किन वास्तविक लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। फ़िल्म में नेशनल कांफ्रेंस के फ़ारुख़ अब्दुल्ला, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रमुख महबूबा मुफ़्ती, गृहमंत्री अमित शाह और दूसरे कई वास्तविक पात्रों के नाम बदले गये हैं, लेकिन उनको वही छवि दी गयी है, जैसे वास्तविक जीवन में वे हैं, ताकि जिनसे दर्शक आसानी से पहचान सकें कि वे वास्तव में कौन लोग हैं। फ़ारुख़ अब्दुल्ला का नाम फ़िल्म में जलाल बताया गया है और महबूबा मुफ़्ती को अंद्राबी, लेकिन अंद्राबी को भी वैसा ही हिजाब पहनाया गया है, जैसा महबूबा मुफ़्ती पहनती हैं और जलाल को भी आसानी से फ़ारुख़ अब्दुल्ला के रूप में पहचाना जा सकता है। उनकी पार्टियों के नाम भी फ़िल्म में बदले गये हैं, लेकिन जब अंद्राबी को महबूबा के रूप में दर्शक पहचान जाते हैं, तो उसकी पार्टी का नाम कुछ भी क्यों न हो, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। इस तरह जिन वास्तविकताओं को छुपाकर उन्हें काल्पनिक कथा के चरित्रों के रूप में पेश किया गया है, उन्हें इतना अधिक वास्तविक चरित्रों से मिलाया गया है कि दर्शक उनके फ़िल्मी नामों की तरफ़ ध्यान ही नहीं देते। यदि इन चरित्रों को देशद्रोही, सत्तालोभी और भ्रष्ट के रूप में पेश किया गया है, तो दर्शक, दरअसल, उन वास्तविक चरित्रों को वैसा ही मानने लगता है, जैसा उन्हें फ़िल्म में दिखाया गया है। जलाल यदि भ्रष्ट है, अलगाववाद को बढ़ावा देने वाला है और अपने दुश्मनों को ख़त्म करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, तो फ़िल्म दरअसल ये सभी बातें फ़ारुख़ अब्दुल्ला के बारे में कह रही होती है। यही बात अंद्राबी के बारे में भी लागू होती है, जिसको भी अलगाववाद को बढ़ावा देने वाला, भ्रष्ट और पाकिस्तान समर्थक बताया गया है। इसका सीधा सा मतलब है कि दरअसल अंद्राबी नहीं, बल्कि महबूबा मुफ़्ती भ्रष्ट, पाकिस्तान समर्थक और अलगाववादी हैं। इस तरह जम्मू और कश्मीर की दो प्रमुख राजनीतिक पार्टियों (नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी) को, जो आरंभ से ही भारत समर्थक मानी जाती रही हैं और चुनावों में भाग लेकर अपनी देश के प्रति निष्ठा साबित करती रही हैं, उन्हें फ़िल्म के ज़रिये इस तरह बदनाम करना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि फ़िल्म का राजनीतिक मक़सद क्या है। फ़ारुख़ अब्दुल्ला और उनकी पार्टी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में शामिल थी, तो महबूबा मुफ़्ती के साथ मिलकर भारतीय जनता पार्टी ने जम्मू और कश्मीर में 2016 से 2018 के बीच सरकार चलायी थी। लेकिन फ़िल्म इन तथ्यों को सामने नहीं लाती। इस तरह यह फ़िल्म तथ्यों को तोड़-मरोड़कर ही पेश नहीं करती है बल्कि जो तथ्य संघ-भाजपा के अनुकूल नहीं हैं, उन्हें छुपाने का भी काम करती है।

‘आर्टिकल 370’ का कथानक दो स्तरों पर चलता है। एक, कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियां और उनके विरुद्ध भारतीय सेना और अर्द्धसैनिक बलों का संघर्ष और दूसरे स्तर पर आर्टिकल 370 को निरस्त करने के लिए की जाने वाली सरकारी तैयारियां, जिन्हें बहुत ही नाटकीय ढंग से पेश किया गया है। फ़िल्म को कुछ इस तरह पेश किया गया है कि कश्मीर में एक ओर पाकिस्तान समर्थक आतंकवादी हैं, एक-दो अपवादों को छोड़कर कश्मीर के मुस्लिम अवाम हैं जो पाकिस्तान और आतंकवाद समर्थक हैं और उनका प्रतिनिधित्व करने वाले वहां के राजनीतिक संगठन हैं, जो दरअसल पाकिस्तान और आतंकवादियों के समर्थक ही नहीं है, उनकी लुकछिप कर मदद भी करते हैं। फ़िल्म में केवल नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी को ही बदनाम नहीं किया गया है, कांग्रेस को भी हमले का निशाना बनाया गया है। दूसरी तरफ़ उनसे लड़ने वाले सैन्य संगठन, नौकरशाही और केंद्र में सत्तासीन राजनीतिक पार्टी यानी भारतीय जनता पार्टी हैं, जिनमें दो ही चेहरे प्रमुखता से दिखाये गये हैं — प्रधानमंत्री और गृहमंत्री। इस तरह फ़िल्म यह संदेश देती है कि जो आर्टिकल 370 को बनाये रखने के समर्थक हैं, वे देशद्रोही हैं और जो इसे ख़त्म करने के पक्षधर हैं, वे सच्चे देशभक्त हैं। इस तरह ‘आर्टिकल 370’ फ़िल्म को देशभक्त बनाम देश के दुश्मन के सरलीकृत ढांचे में पेश कर संघ-भाजपा की राजनीति के पक्ष में प्रचार करने का काम किया गया है। इस फ़िल्म की पूरी संरचना एक थ्रिलर फ़िल्म की तरह है, जिसमें देश के विरुद्ध होने वाली एक बड़ी साज़िश को कुछ जुझारू देशभक्तों द्वारा नाकामयाब बनाया गया है। इस पूरी कहानी में कश्मीर की जनता का पक्ष पूरी तरह से ग़ायब है, जो एक ओर आतंकवादियों के हमले का शिकार होती रही है, तो दूसरी ओर भारतीय सेना के हमले का भी। फ़िल्म में जहां भी जनता को पत्थरबाज़ी करते दिखाया गया है, फ़िल्म यह बताना नहीं भूलती कि ये प्रदर्शनकारी पैसों से ख़रीदे गये हैं। यही वजह है कि भारतीय सेना द्वारा उन पर किये जाने वाले हमलों को जायज़ ठहराया जाता है।

फ़िल्म पहले ही दृश्य से अपने राजनीतिक पूर्वग्रहों को स्पष्ट कर देती है। कश्मीर को लेकर संघ-भाजपा द्वारा फैलाया गया झूठ इस फ़िल्म की बुनियाद में है। आरंभ में अजय देवगन की आवाज़ में जो कहा गया है, वह न केवल तथ्यों से मेल नहीं खाता, बल्कि उसका मक़सद जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस को बदनाम करना है। अजय देवगन के वायस ओवर में कहलाया गया है कि ‘कश्मीर के तब के महाराजा हरीसिंह हमेशा से ही हिंदुस्तान के साथ जुड़ना चाहते थे। मगर प्रधानमंत्री नेहरू कश्मीर के राज्याभिषेक को तब तक मानने के लिए तैयार नहीं थे, जब तक महाराजा नेहरू के क़रीबी दोस्त शेख़ अब्दुल्ला को कश्मीर की बाग़डोर देने के लिए तैयार नहीं होते। इसी राजनीतिक खींचातानी का फ़ायदा उठाकर रात के अंधेरे में पाकिस्तान की फ़ौज ने क़बाइलियों के साथ कश्मीर पर हमला बोल दिया। जवाब में महाराजा ने मजबूर होकर पंडित नेहरू की शर्त मान ली। मगर इससे पहले कि भारतीय सेना दुश्मन को पूरी तरह से कश्मीर से खदेड़ पाती, तब की भारत सरकार ने यूएन के सीज़ फ़ायर प्रस्ताव को मान कर पाकिस्तान के साथ जंग रोक दी। और इस तरह कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के अवैध कब्ज़े में चला गया। भारत के इकलौते मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य होने का फ़ायदा उठाकर, शेख़ अब्दुल्ला ने तब की केंद्रीय सरकार से कश्मीर के लिए एक ख़ास पहचान एक स्पेशल स्टेटस की मांग की। ऐसे जन्म हुआ आर्टिकल 370 का, जिसके अंतर्गत एक अलग विधान, अलग प्रधान और अलग निशान को स्वीकार कर हमने अनजाने में अपने ही देश में मानो एक अलग मुल्क खड़ा कर लिया था। इस ताक़त का फ़ायदा उठाकर कुछ कश्मीरी सेपरेटिस्ट्स, पाकिस्तानियों और आतंकवादियों ने 90 के दशक से भारत को तोड़ने के लिए कई पैंतरे आज़माये। जंग, जिहाद, यहां तक कि कश्मीरी पंडितों का क़त्लेआम और वादी से निष्कासन’।

यह संघ-भाजपा द्वारा गढ़ी गयी कहानी है, जिसका वास्तविकता से बहुत कम संबंध है। जबकि सच्चाई यह है कि हरीसिंह अपने राज्य को न भारत में मिलाना चाहते थे और न ही पाकिस्तान में। वे उसे एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपने अधीन ही रखना चाहते थे। लेकिन जब क़बाइलियों की आड़ में कश्मीर पर पाकिस्तान ने हमला कर दिया और कश्मीर के कुछ हिस्से पर कब्ज़ा भी कर लिया, तब मजबूर होकर हरीसिंह जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय के लिए राज़ी हुए और तब ही भारत कश्मीर को पाकिस्तान के कब्ज़े में जाने से रोकने के लिए अपनी सेना भेजने में कामयाब हो पाया। कश्मीर समस्या की यह संघी व्याख्या इस बात का भी कोई उत्तर नहीं देती कि शेख़ अब्दुल्ला, जो एक मुसलमान थे, उस कश्मीर का विलय भारत में क्यों चाहते थे, जिसकी बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम थी। कश्मीर का पाकिस्तान में विलय करवाकर भी वे कश्मीर के शासक बन सकते थे, क्योंकि उस समय वे कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता थे। संघ-भाजपा जानबूझकर जिस तथ्य को छुपा रहे हैं, वह यह कि शेख़ अब्दुल्ला और उनकी पार्टी मुस्लिम कान्फ्रेंस, जो बाद में नेशनल कान्फ्रेंस के नाम से जानी गयी, एक धर्मनिरपेक्ष विचारों वाले राजनीतिज्ञ थे। वे जानते थे कि पाकिस्तान के समर्थक वे सामंती मुसलमान हैं, जिनका लोकतंत्र में विश्वास नहीं है। इसके विपरीत शेख़ अब्दुल्ला उन कुछ नेताओं में से थे, जो किसानों के पक्ष में भूमि सुधारों के भी समर्थक थे। अपने इन्हीं प्रगतिशील विचारों की वजह से शेख अब्दुल्ला कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बनने देना चाहते थे।

इस वॉयस ओवर में 1947 से नब्बे के लगभग चार दशकों में कश्मीर के हालात पर कोई बात नहीं कही गयी है। इस दौरान कश्मीर में न केवल कई चुनाव हुए, पाकिस्तान के साथ दो बड़े युद्ध भी हुए, लेकिन कश्मीर में जिस अलगाववाद की बात की जा रही है, वह हाशिये पर ही बना रहा। नब्बे के दशक में ही यह अलगाववाद आतंकवाद का रूप ले पाया था। इससे पहले के चुनावों में कश्मीर घाटी की मुस्लिम जनता ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। यही नहीं, इस पूरे दौर में कश्मीरी पंडित अपने मुस्लिम पड़ोसियों के साथ शांतिपूर्वक रहते आ रहे थे। यहां यह भी ग़ौरतलब है कि इसी शांत कश्मीर के दौर में आर्टिकल 370 में कई तब्दीलियां की गयीं। कश्मीर की अलग संविधान सभा 1957 में ही समाप्त कर दी गयी थी। इस अनुच्छेद के अनुसार, जो अधिकार आर्टिकल 370 के अंतर्गत कश्मीर की संविधान सभा के पास थे, वे जम्मू और कश्मीर की विधानसभा के पास आ गये। सदरे रियासत का पद अन्य राज्यों की तरह गवर्नर का पद कहलाया जाने लगा और प्रधानामंत्री का पद मुख्यमंत्री का पद बना दिया गया।

फ़िल्म के आरंभिक वॉयस ओवर में यह कहा गया कि आर्टिकल 370 के कारण हमने अपने ही देश में अनजाने में एक अलग मुल्क खड़ा कर दिया। क्या वास्तव में ऐसा था? 15 अगस्त 1947 को जब देश आज़ाद हुआ, तब जम्मू और कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं था। यह उन 585 रियासतों में से एक था, जिन्हें यह आज़ादी दी गयी थी कि वे या तो भारत या पाकिस्तान में अपना विलय कर ले या चाहें तो स्वतंत्र देश के रूप में भी बने रह सकते हैं। जम्मू और कश्मीर एक ऐसी रियासत थी, जिसकी सीमाएं भारत से भी मिलती थी और पाकिस्तान से भी। जैसा कि फ़िल्म के वॉयस ओवर में कहा गया है, यह एक ऐसी रियासत थी, जिसका शासक हिंदू था, लेकिन बहुसंख्यक जनता मुस्लिम थी। कुछ इसी तरह की दो रियासतें और थीं, हैदराबाद और जामनगर, जहां के शासक मुसलमान थे, लेकिन बहुसंख्यक जनता हिंदू थी। जैसा कि कांग्रेस की नीति थी, उन रियासतों में जहां जनता और शासकों के बीच विवाद नज़र आता था, वहां फ़ैसला जनता को ध्यान में रखकर लिया गया। हैदराबाद और जामनगर को भारत में इसीलिए मिलाया गया, क्योंकि वहां की जनता भारत में विलय चाहती थी। कश्मीर में शासक हिंदू था और बहुसंख्यक जनता मुसलमान थी, लेकिन वहां की जनता भी भारत में विलय की पक्षधर थी। नेहरू कांग्रेस की नीति पर चलने के पक्षधर थे और इसीलिए कांग्रेस ने मुस्लिम बहुल होने के बावजूद जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय का समर्थन किया।

अनुच्छेद 370 द्वारा जम्मू और कश्मीर को जो ‘स्पेशल स्टेटस’ प्रदान किया गया, उसको समझने के लिए इस राज्य की उत्पत्ति और औपनिवेशिक काल में मिले उसको विशेष अधिकारों को भी जानना ज़रूरी है। इस राज्य का उदय पहले एंग्लो-सिख युद्ध के बाद हुआ, जब कश्मीर घाटी, लद्दाख, गिल्गित आदि क्षेत्रों को ईस्ट इंडिया कंपनी ने 75 लाख रुपये में जम्मू के तत्कालीन राजा गुलाब सिंह को बेच दिया था। और इस तरह एक नये राज्य जम्मू और कश्मीर का उदय हुआ। यह राज्य ब्रिटिश राज के अंतर्गत रक्षा, विदेश मामलों और संचार को छोड़कर शेष सभी मामलों में स्वायत्त बना रहा। इस नये राज्य में कोई बाहरी व्यक्ति संपत्ति नहीं ख़रीद सकता था। 1947 में जब देश आज़ाद हुआ, उससे दो दशक पहले से वहां के राजा हरीसिंह को जनांदोलनों का सामना करना पड़ रहा था। आंदोलनकारियों की मांग थी कि राजशाही ख़त्म हो और लोकतंत्र की स्थापना हो। 1946 में राजा के विरुद्ध ‘कश्मीर छोड़ो आंदोलन’ छेड़ा गया, तब इस राज्य के शासक हरीसिंह ने यह तय किया कि वे न तो भारत के साथ जायेंगे और न ही पाकिस्तान के साथ। इसके विपरीत वे भारत और पाकिस्तान दोनों से स्वतंत्र रहना चाहते थे। यह बात कम लोगों को मालूम है कि उस समय ‘प्रजा परिषद’, जो आर एस एस का ही पूर्व रूप थी, महाराजा हरीसिंह की सेविका होने के नाते कश्मीर को स्वतंत्र ही बने रहने के पक्ष में थी। वे इन दोनों देशों के साथ यथास्थिति संबंधी समझौता (स्टेंडस्टिल एग्रीमेंट) करना चाहते थे। पाकिस्तान ने तो इस तरह के समझौते पर हस्ताक्षर कर भी दिये। लेकिन इसकी आड़ में क़बाइलियों के साथ पाकिस्तान की फ़ौज ने कश्मीर घाटी पर हमला बोल दिया। महाराजा हरीसिंह ने भारत में विलय का निर्णय तब लिया, जब पाकिस्तानी सेना कश्मीर पर चढ़ आयी थी। उन्होंने नयी दिल्ली को गुहार लगायी कि वे इस हमले के विरुद्ध लड़ाई में हमारी मदद करें। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मदद करना स्वीकार तो किया, लेकिन यह शर्त रखी कि पहले उन्हें भारत के साथ विलय को स्वीकार करना होगा। जब और कोई रास्ता नज़र नहीं आया, तो राजा हरीसिंह ने भारत के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। लेकिन उन्होंने यह ज़रूर सुनिश्चित कर लिया कि राज्य की पहले से चली आ रही स्वायत्तता बनी रहे। 26 अक्टूबर, 1947 को महाराजा हरीसिंह ने विलय के प्रस्ताव (इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन) पर हस्ताक्षर कर दिये। इस विलय प्रस्ताव के क्लॉज़ 7 में जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय सशर्त था, जिसके अनुसार इस राज्य को अपना संविधान और कुछ हद तक स्वायत्तता बनाये रखने को स्वीकार किया गया था। यह क्लॉज़ ही आर्टिकल 370 के बनाये जाने की बुनियाद में मौजूद था। इन अधिकारों को संरक्षित करने के लिए आर्टिकल 370 को इस तरह परिकल्पित किया गया कि जिससे कि भारतीय संघ के अंतर्गत राज्य के ‘स्पेशल स्टेटस’ को सुनिश्चित किया जा सके। भारतीय संविधान सभा की प्रारूप समिति के सदस्य एन. गोपालस्वामी अयंगर को इस प्रस्तावित अनुच्छेद का प्रारूप बनाने का काम सौंपा गया। इसके लिए उन्होंने जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और जम्मू और कश्मीर राज्य के प्रधानमंत्री और संविधान सभा के सदस्य शेख़ अब्दुल्ला के साथ विचार विमर्श किया। 17 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा द्वारा यह स्वीकार कर लिया गया। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान के लागू होने के साथ ही आर्टिकल 370 भी लागू हो गया। लेकिन इस संदर्भ में जिस बात को आमतौर पर छुपाया जाता है, वह यह है कि जम्मू और कश्मीर ही अकेला राज्य नहीं है जिसे ‘स्पेशल स्टेटस’ की संविधान में व्यवस्था की गयी है। आर्टिकल 370 की तरह आर्टिकल 371 (371ए से 371आइ) में मिज़ोरम, नगालैंड, महाराष्ट्र, गुजरात इत्यादि कुछ राज्यों को भी ‘स्पेशल स्टेटस’ के अंतर्गत रखा गया है।

अनुच्छेद 370 के अनुसार जम्मू और कश्मीर को जो स्वायत्तता प्रदान की गयी, वह किसी अन्य राज्य को मिली स्वायत्तता की तुलना में ज़्यादा व्यापक थी, लेकिन यह भारतीय संविधान के आधारभूत सिद्धांत संघात्मकता (फे़डेरलिज्म) के अनुकूल ही थी। इस अनुच्छेद में यह भी कहा गया था कि यह एक अस्थायी और संक्रमणशील व्यवस्था है और इसे जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा की संस्तुति द्वारा राष्ट्रपति निरस्त कर सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के लिए राज्य की संविधान सभा की संस्तुति आवश्यक है। लेकिन ऐसी किसी भी संस्तुति के बिना ही 1957 में राज्य की संविधान सभा समाप्त हो गयी थी। इस प्रकार अनुच्छेद 370 संविधान का हिस्सा बना रहा और साथ ही यह बहस का मुद्दा बना रहा कि इस अनुच्छेद को समाप्त किया जा सकता है या नहीं। 2018 तक के कई फ़ैसलों में सुप्रीम कोर्ट यह दोहराता रहा कि अनुच्छेद 370 को निरस्त नहीं किया जा सकता।

05 अगस्त 2019 को इस अनुच्छेद के समाप्त किये जाने से पूर्व तक क्या यह अपने मूल रूप में बना रहा? सच्चाई यह है कि भारतीय संविधान के प्रावधानों को जम्मू और कश्मीर राज्य तक विस्तारित करने के लिए 45 बार इस अनुच्छेद का इस्तेमाल किया गया। लागू होने के थोड़े अर्से बाद से ही अनुच्छेद 370 में बदलाव होते रहे और जम्मू और कश्मीर को जो स्वायत्तता और ‘स्पेशल स्टेटस’ प्रदान किया गया था, विधि विशेषज्ञ ए. जी. नूरानी के अनुसार, बाद में हुए बदलावों के कारण उस मूल अनुच्छेद का छिलका भर रह गया था। मूल अनुच्छेद में रक्षा, विदेश नीति और संचार इन तीन विषयों को छोड़कर शेष सभी मामलों में राज्य की सहमति के बिना केंद्र जम्मू और कश्मीर के बारे में कोई क़ानून नहीं बना सकता था। लेकिन सच्चाई यह है कि आर्टिकल 370 बनने के लगभग 70 सालों में लगातार जम्मू और कश्मीर को मिली स्वायत्तता धीरे-धीरे उससे छीनी जाती रही। उदाहरण के लिए केंद्र की सूची में जिस पर क़ानून बनाने का अधिकार केवल केंद्र को है, राज्य को नहीं, अनुच्छेद 370 के अनुसार जम्मू और कश्मीर पर इस सूची के क़ानून राज्य पर तब तक लागू नहीं हो सकते, जब तक कि राज्य विधानसभा की सहमति न प्राप्त हो। लेकिन केंद्र की सूची के 97 में से 94 जम्मू और कश्मीर पर लागू हो चुके हैं और इसी तरह समवर्ती सूची (जिन पर क़ानून बनाने का अधिकार केंद्र और राज्य दोनों को है) 47 में से 26 जम्मू और कश्मीर पर भी लागू हो चुके हैं। भारतीय संविधान के 395 अनुच्छेदों में से 260 जम्मू और कश्मीर पर लागू हो चुके हैं। लेकिन यहां यह भी ग़ौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के 11 दिसंबर, 2023 के फ़ैसले में भी स्वीकार किया गया है कि जम्मू और कश्मीर के संविधान का सेक्शन 3 स्पष्ट रूप से कहता है कि ‘जम्मू और कश्मीर राज्य भारतीय संघ का अविभाज्य अंग है और रहेगा’। इसके साथ ही भारतीय संविधान के सेक्शन 147 उपर्युक्त सेक्शन 3 में किसी भी तरह के संशोधन का निषेध करता है। इसलिए फ़िल्म में यह कहा जाना तथ्यों से मेल नहीं खाता कि आर्टिकल 370 जम्मू और कश्मीर को अपने ही देश में एक अलग मुल्क के रूप में मान्यता देता है। दरअसल, जो कुछ विशेष स्वायत्तता आर्टिकल 370 के कारण इस राज्य को मिली थी, वह आर्टिकल 370 के निरस्त किये जाने से बहुत पहले लगभग पूरी तरह छीनी जा चुकी थी।

‘आर्टिकल 370’ के आरंभिक वॉयस ओवर के बाद फ़िल्म कश्मीर घाटी में आतंकवादी गतिविधियों के विरुद्ध अर्द्धसैनिक बलों की लड़ाई को दर्शाती है। वॉयस ओवर का अंतिम हिस्सा बुरहान बानी नाम के उग्रवादी के बारे में है, जिसके बारे में फ़िल्म में कहा गया है कि ‘आगे चलकर 2015 में सोशल मीडिया ने इस पुरानी जंग को एक नया किरदार दिया। और जिहाद के इस बदलते मंज़र से उभरा मुजाहिदीनों का एक नया सितारा, बुरहान बानी। जिसने अपनी भड़काऊ वीडियो से वायरल होकर कश्मीरी युवाओं के दिलो-दिमाग़ पर कब्ज़ा कर लिया था। परिस्थिति बद से बदतर होती जा रही थी और दिल्ली की केंद्रीय सरकार को अब ये यक़ीन होने लगा था कि 70 साल पहले हुई एक ऐतिहासिक ग़लती को सुधारने का वक्त़ अब आ चुका है’। फ़िल्म की शुरुआत बुरहान बानी की खोज और एनकाउंटर में उसके मारे जाने से होती है। इस एनकाउंटर का नेतृत्व जूनी हक्सर करती है, जो किसी कबीर हक्सर नाम के सरकारी अधिकारी की बेटी होती है, जिसने आत्महत्या कर ली थी। उसके मारे जाने के पीछे जलाल नाम के राजनीतिज्ञ का हाथ होता है, जो बहुत ही भ्रष्ट है और उसके भ्रष्टाचार को उजागर करने की कोशिश में ही कबीर हक्सर की मौत होती है, जिसे आत्महत्या का नाम दिया जाता है। इस तरह जूनी हक्सर एक बहादुर देशभक्त भी है और साथ ही वह कश्मीर की व्यवस्था की उत्पीड़ित भी है। इसी तरह अंद्राबी के साथ जुड़ा एक अन्य अधिकारी ख़ावर को पाकिस्तानी एजेंट बताया गया है, जो आतंकवादियों की मदद करता है। बुरहान बानी के मारे जाने के बाद लोगों के उग्र प्रदर्शन के बारे में फ़िल्म कहती है कि प्रदर्शन करने वाले लोगों को पैसा देकर बुलाया गया है। यानी प्रदर्शन करने वाले लोग ऐसे लालची थे कि कुछ पैसों के लिए उन पैलेट्स से निकले छर्रों को खाने के लिए भी तैयार हो गये थे, जिनसे उनमें से बहुतों की आंखों की रोशनी चली गयी थी और कुछ को तो अपनी जान भी गंवानी पड़ी। फ़िल्म की नायिका जूनी हक्सर के माध्यम से एकाधिक बार यह दोहराया गया है कि बुरहान बानी के शव को उनके परिवार वालों को लौटाया जाना ग़लती थी। इसी ने लोगों को प्रदर्शन करने का अवसर दिया और वे सैन्य बलों पर हमला करने में कामयाब हुए और उनको रोकने की कोशिश में सैन्य बलों द्वारा भी हिंसा हुई। जूनी का दृष्टिकोण स्पष्ट ही लोकतांत्रिक नहीं है। वह इसे लॉ एंड ऑर्डर की समस्या समझती है।

बुरहान बानी के बाद याक़ूब शेख़ नाम के एक और आतंकवादी की कहानी चलती है और उसके बाद अब्दाली नाम के फल व्यापारी की, जिसके ट्रक पाकिस्तान से सामान लाते और ले जाते हैं। ये दोनों वास्तविक चरित्र नहीं हैं। काल्पनिक चरित्र हैं। फ़िल्म यह प्रभाव छोड़ने की कोशिश करती है कि कश्मीर में आतंकवाद की वजह आर्टिकल 370 है, लेकिन फ़िल्म यह बताने में बिल्कुल नाकामयाब है कि आर्टिकल 370 किस तरह आतंकवाद को पनाह देने और उसे बढ़ावा देने का कारण है। यह आर्टिकल तो 1950 से अस्तित्व में है फिर कश्मीर में आतंकवाद का उभार नब्बे के दशक से ही क्यों हुआ। आतंकवाद केवल कश्मीर की समस्या नहीं रहा है। पंजाब जिसे कोई विशेष अधिकार हासिल नहीं है, वहां आतंकवाद क्यों पनपा। इसी तरह उत्तर-पूर्व के राज्यों में अलगाववाद और उग्रवाद के पनपने की क्या वजह रही है। जम्मू और कश्मीर में आर्टिकल 370 आरंभ से ही सुरक्षा, विदेश नीति और संचार के मामले में जम्मू और कश्मीर राज्य को किसी तरह का अधिकार नहीं देता। सदरे रियासत और प्रधानमंत्री जैसे पद कई दशकों पहले समाप्त किये जा चुके हैं। संविधान सभा 1957 में ही समाप्त हो चुकी है। अगर कोई चीज़ कश्मीर को अन्य राज्यों से अलग करती है तो यह कि अन्य राज्य का कोई भी व्यक्ति वहां ज़मीन नहीं ख़रीद सकता। लेकिन इस बात को इस तरह पेश किया जाता है, जैसे यह क़ानून कश्मीर घाटी पर ही लागू होता है, जबकि सच्चाई यह है कि यह क़ानून पूरे राज्य पर लागू होता है। यानी जम्मू जहां हिंदू बहुसंख्यक हैं और लद्दाख जहां बौद्ध बहुसंख्यक हैं। लेकिन यह प्रावधान तो हिमाचल प्रदेश और उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में आज भी है। इसका मक़सद यह है कि इन राज्यों का जो परंपरागत सामाजिक-सांस्कृतिक स्वरूप है, वह बना रहे। इसका अर्थ यह है कि न केवल कश्मीर घाटी, बल्कि जम्मू और लद्दाख की भी जो अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता है, वह बनी रहे। दरअसल, दिक्क़तें दो हैं। संघ-भाजपा सदैव से संघात्मकता और स्वायत्तता के विरुद्ध रही है। कश्मीर की स्वायत्तता से उन्हें आरंभ से ही परेशानी इसलिए है कि वह एक मुस्लिम बहुल राज्य है। अपने सांप्रदायिक दृष्टिकोण के कारण वे यह नहीं चाहते कि किसी राज्य के भाग्य का फ़ैसला वहां के मुसलमान करें, चाहे वे बहुसंख्या में ही क्यों न हो। आर्टिकल 370 के विरुद्ध जो कहानी फ़िल्म में गढ़ी गयी है, उसकी सबसे बड़ी सीमा यह है कि वह वहां की बहुसंख्यक मुस्लिम जनता, उनका प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को देशद्रोही बताने की हद तक बदनाम करती है, जबकि सच्चाई यह है कि जम्मू और कश्मीर की मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां आरंभ से ही राजनीतिक प्रक्रियाओं का हिस्सा रही हैं। वे उतनी ही अच्छी या बुरी, भ्रष्ट या ईमानदार हैं, जितनी देश की अन्य राजनीतिक पार्टियां। फ़िल्म वहां की तीन प्रमुख राजनीतिक पार्टियों, नेशनल कान्फ्रेंस, पीपुल्स डिमोक्रेटिक पार्टी और कांग्रेस को अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्ट बताकर और देश विरोधी ताक़तों के साथ गठजोड़ का संकेत करके उनकी छवि को जानबूझकर बिगाड़ने का काम करती है।

फ़िल्म लगातार इस बात पर बल देती है कि कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों को वहां की मुस्लिम आबादी का समर्थन हासिल है और यह समर्थन इसलिए हासिल है, क्योंकि कश्मीर को आर्टिकल 370 के अंतर्गत जो अधिकार दिये गये हैं, उसकी वजह से ऐसा है। लेकिन वे अधिकार कौन से हैं, जो केवल जम्मू और कश्मीर को और वहां की मुस्लिम आबादी को ही हासिल हैं, यह फ़िल्म नहीं बताती। लेकिन यह प्रश्न ज़रूर है कि पिछले तीन दशकों से आतंकवाद के नाम पर पूरी कश्मीर घाटी को फ़ौज के हवाले किया गया है, वह अधिकार केंद्र को कहां से मिला है। अफ़स्पा जैसा क्रूर क़ानून जो जम्मू और कश्मीर तथा उत्तर-पूर्व राज्यों में लागू रहा है, उसने सेना और अर्धसैनिक बलों को हत्याएं करने की जो छूट दी है, फ़िल्म उसके बारे में चुप्पी साधे रहती है। सेना के मेजर लीतुल गोगोइ द्वारा श्रीनगर में उपचुनाव के दौरान एक स्थानीय नागरिक फ़ारुख़ दर को सेना की एक जीप के आगे बोनट पर बांधकर ‘ह्युमन शील्ड’ के रूप में घुमाया गया। स्पष्ट ही सेना की यह कार्रवाई हर तरह के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन था। लेकिन तत्कालीन सेनाध्यक्ष बिपिन रावत ने गोगोइ के इस कारनामे की अभ्यर्थना की, जबकि यही मेजर गोगोइ कुछ अर्से बाद एक स्थानीय लड़की के साथ एक होटल में पकड़े गये। तब सेना को उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी पड़ी और वरिष्ठता छह महीने के लिए घटा दी गयी। फ़ारुख़ दर कोई आतंकवादी नहीं था, लेकिन फ़िल्म में इस घटना में अब्दाली नामक एक फल व्यापारी को जूनी हक्सर की टीम के सैन्य अधिकारी यश चौहान द्वारा जीप पर बांधा जाता है जिसे आइएसआइ का एजेंट बताया गया है। यहां पर भी तथ्यों को जानबूझकर तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। ह्यूमन शील्ड की तरह इस्तेमाल किये जाने वाले व्यक्ति को देश का दुश्मन बताना और उसके बाद उस पर किये जाने वाला हर तरह के उत्पीड़न को जायज़ ठहराना फ़ासिस्ट तरीक़ा है।

फ़िल्म में पुलवामा को दोहराया गया है, जिसमें आतंकवादी हमले में चालीस सीआरपीएफ़ के जवान मारे गये थे। इसमें यश चौहान नामक वह अधिकारी भी है, जिसने अब्दाली को मानवशील्ड बनाकर घुमाया था और जिस अधिकारी की मौत पर जूनी फ़िल्म में कई बार भावुक हो जाती है। फ़िल्म इसे आतंकवादी हमला बताती है और जूनी उसकी जड़ तक जाने में कामयाब हो जाती है, जैसाकि सरकार भी दावा करती है। लेकिन सच्चाई यह है कि इस हमले से जुड़े कई सवालों के जवाब आज तक नहीं मिले हैं। इस आतंकवादी हमले से पहले विभिन्न गुप्तचर स्रोतों से एक बड़े हमले की आशंका व्यक्त की गयी थी जिसकी सूचना सरकार को दी गयी थी, लेकिन केंद्र सरकार ने इन सूचनाओं की पूरी तरह उपेक्षा की। सीआरपीएफ़ ने सुरक्षा कारणों से ही मांग की थी कि उनके जवानों को एक जगह से दूसरी जगह हवाई मार्ग से भेजा जाये, लेकिन यह अनुमति भी नहीं दी गयी। जिस हाइवे पर यह हमला हुआ उससे आकर मिलने वाली सभी सड़कों को क़ाफ़िले के गुज़रते वक्त़ बंद कर दिया जाता है, लेकिन वैसा नहीं किया गया। आतंकवादी हमले की संभावनाओं का जानते हुए भी सुरक्षा में इतनी भारी चूक कैसे हुई कि 300 किलोग्राम विस्फोटकों से भरी एक कार जवानों के क़ाफ़िले के बिल्कुल नज़दीक पहुंच गयी और जैसाकि फ़िल्म में भी दिखाया गया है, वह काफ़ी देर तक साथ-साथ चलती रही है। जब हमला हो गया, तब जम्मू और कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने प्रधानमंत्री से संपर्क किया, जो उस समय जिम कार्बेट पार्क में फ़ोटो शूट में व्यस्त थे। उन्होंने राज्यपाल से कहा कि सुरक्षा की ख़ामियों को लेकर वे कोई बयान न दें। केंद्र सरकार ने जवानों की सुरक्षा व्यवस्था पर ध्यान देने की बजाय इस हमले का कितना लाभ उठाया जा सकता है, उस पर अधिक ध्यान दिया। सभी शवों को दिल्ली लाया गया। उनका टीवी द्वारा प्रसार किया गया और बाद में चुनाव अभियान में पुलवामा के शहीदों के नाम वोट देने का आह्वान किया गया, जो चुनाव संहिता का उल्लंघन था।

आर्टिकल 370 को हटाने की पूरी प्रक्रिया भी कुछ इस तरह पेश की गयी है, मानो यह पूर्व की कांग्रेस सरकारों की साज़िशों पर पड़े पर्दे को हटाना है। इसी तरह संसद में बहस को भी एकतरफ़ा ढंग से दिखाया गया और आर्टिकल 370 को हटाने की कामयाबी को इस तरह से पेश किया गया जैसे देश के दुश्मनों पर विजय प्राप्त कर ली गयी हो। हालांकि फ़िल्म फ़रवरी 2024 में चुनावों को ध्यान में रखकर रिलीज़ की गयी लेकिन इस अनुच्छेद के हटाये जाने के बाद के हालात को फ़िल्म का विषय नहीं बनाया गया है।

आर्टिकल 370 के निरस्त किये जाने को इस वर्ष 05 अगस्त को पांच साल पूरे हो चुके हैं। इसके साथ ही जम्मू और कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित राज्यों में विभाजित किये जाने के भी पांच साल हो गये हैं। जम्मू और कश्मीर ऐसा केंद्रशासित प्रदेश बना दिया गया है जिसमें एक विधानसभा तो होगी लेकिन जिसे वे ही सीमित अधिकार हासिल होंगे जो दिल्ली राज्य को प्राप्त हैं। वे अधिकार प्राप्त नहीं होंगे जो पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त राज्यों को प्राप्त होते हैं और जो 05 अगस्त 2019 से पहले तक जम्मू और कश्मीर राज्य को भी प्राप्त थे। यानी कि अब जम्मू और कश्मीर नामक केंद्रशासित प्रदेश अपनी वह स्वायत्तता भी खो चुका है जो पूर्ण राज्य होने के कारण उसे पहले प्राप्त थी। उपराज्यपाल की सलाह और स्वीकृति के बिना अब जम्मू और कश्मीर राज्य का मंत्रिमंडल कोई काम नहीं कर सकेगा। लद्दाख भी केंद्र शासित प्रदेश होगा लेकिन उसकी कोई विधान सभा नहीं होगी और वह सीधे केंद्र द्वारा ही शासित होगा। 11 दिसंबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा आर्टिकल 370 को हटाने पर वैधता की मोहर लगाने के साथ जम्मू और कश्मीर राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बदलने पर भी स्वीकृति की मोहर लगा दी गयी है। केंद्र को आज की तरह इन दोनों राज्यों में सेना, अर्धसैनिक बल तैनात करने का ही अधिकार नहीं होगा, बल्कि वहां की पुलिस भी पूरी तरह केंद्र के नियंत्रण में होगी। निश्चय ही यह विलय के समय हुए समझौते और संविधान सभा द्वारा किये गये प्रावधानों का उल्लंघन ही नहीं है बल्कि संघात्मकता पर भी गहरी चोट है क्योंकि केंद्र ने पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त राज्य को उससे वंचित कर दिया है और उसे दो टुकड़ों में बांटकर अपने अधीन कर लिया है। सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला किसी भी अन्य राज्य के दर्जे को घटाने का उदाहरण बन सकता है। जिस दिन आर्टिकल 370 को निरस्त किया गया उससे बहुत पहले ही जम्मू और कश्मीर को मिले विशेष अधिकार ख़त्म हो चुके थे। लेकिन इस आर्टिकल के निरस्त किये जाने के बाद जम्मू और कश्मीर के पास भारत के अन्य पूर्ण राज्यों वाले अधिकार भी नहीं रहे और लद्दाख को तो उस मामूली सी स्वायत्तता से भी वंचित कर दिया गया, जो जम्मू और कश्मीर राज्य को दी गयी है।

कश्मीर के बाहर की राजनीतिक पार्टियों और जनता के एक बड़े हिस्से की नज़र में कश्मीर की तीन समस्याएं हैं। सबसे बड़ी समस्या है आतंकवाद, जिसे पाकिस्तान की मदद से चलाया जा रहा है। दूसरा है कश्मीर की मुस्लिम आबादी के अंदर बढ़ती अलगाववादी प्रवृत्ति, जो आतंकवाद को बढ़ावा दे रही है और तीसरा है विकास, जो आतंकवाद और अलगाववाद के कारण भारत सरकार करने में अक्षम है। यह कहा जा रहा है कि अब आतंकवाद पर अंकुश लगेगा, अलगाववाद ख़त्म होगा और विकास के लिए अनुकूल माहौल और बेहतर परिस्थितियां बनेगी, क्योंकि जम्मू और कश्मीर के बाहर के निवेशक राज्य के विकास के लिए उद्योग लगायेंगे, जिससे रोज़गार बढ़ेगा और राज्य की तरक्क़ी होगी। लेकिन पांच साल का अनुभव बताता है कि इनमें से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है।

आर्टिकल 370 और 35-ए को हटाने से पहले पूरी कश्मीर घाटी से कश्मीर के बाहर के पर्यटकों को तत्काल कश्मीर छोड़ने का आदेश दिया गया। अमरनाथ यात्रा बीच में ही रोक दी गयी और तीर्थयात्रियों को बीच से ही वापस अपने घर लौटने के लिए कहा गया। पूरी घाटी में पैंतीस हज़ार अतिरिक्त अर्धसैनिकों की तैनाती की गयी। इंटरनेट और टेलीफ़ोन सेवा पर रोक लगायी गयी और वहां के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों को गिरफ़्तार कर लिया गया और इनके अलावा भी कुछ हज़ार लोगों को गिरफ़्तार कर जेलों में डाला गया। पूरे राज्य में धारा 144 लगा दी गयी। ज़ाहिर है कि घाटी की जनता की पूरी घेराबंदी कर दी गयी कि वे अपने घरों से बाहर न निकल सकें। प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों किया गया। अगर भाजपा सरकार द्वारा उठाये गये क़दम वहां की जनता के हित में थे, तो फिर जनता को अपनी खुशी को व्यक्त करने का अवसर तो दिया जाना चाहिए था। लेकिन यह सरकार अच्छी तरह से जानती है कि ये क़दम कश्मीर की जनता के पक्ष में नहीं बल्कि उनके विरोध में, उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलने के लिए उठाये गये हैं। यहां तक कि उन राजनीतिक संगठनों के विरोध में हैं, जो जम्मू और कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते हैं और विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में भाग लेकर अपने प्रतिनिधि भेजते रहे हैं। ज़ाहिर है कि उन्हें भी और कश्मीर की संपूर्ण जनता को भी उन आतंकवादियों के साथ एक ही कोष्ठक में डाल दिया गया है, जो कश्मीर को आज़ाद देखना चाहते हैं या भारत की बजाय पाकिस्तान में विलय करवाना चाहते हैं। ऐसी परिस्थिति में अलगाववाद कैसे ख़त्म होगा और आतंकवाद पर कैसे अंकुश लगेगा। इसके विपरीत भाजपा के इन क़दमों ने अलगाववाद को न केवल बढ़ावा दिया है, बल्कि आतंकवाद की ज़मीन को और पुख़्ता कर दिया है।

अब भी लगातार आतंकवादी घटनाएं हो रही है। पहले जो केवल कश्मीर घाटी तक सीमित थी, अब उनका विस्तार जम्मू तक हो गया है। कश्मीरी पंडितों को उम्मीद थी कि आर्टिकल 370 हटने के बाद स्थितियां उनके पक्ष में बदलेंगी और वे वापस अपने घरों को लौट सकेंगे, लेकिन उनकी उम्मीद पूरी नहीं हुई। संसद में वादा किया गया था कि जम्मू और कश्मीर में विधानसभा के चुनाव जल्दी कराये जायेंगे, लेकिन पांच साल बीत चुके हैं, इसकी अभी सुगबुगााहट हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में 30 सितंबर 2024 से पूर्व विधानसभा चुनाव कराने का निर्देश दिया है, देखते हैं क्या होता है। स्वयं भाजपा के लिए कश्मीर घाटी की स्थितियां किस हद तक प्रतिकूल हो गयी हैं कि वह लोकसभा के चुनाव में अपने उम्मीदवार तक नहीं खड़े कर सकी और जिस लद्दाख में पिछले चुनाव में उनका उम्मीदवार जीता था, लेकिन इस बार वहां से कांग्रेस का उम्मीदवार जीता है। लद्दाख जिसने आर्टिकल 370 हटाने का समर्थन किया था और जिसे केंद्र शासित प्रदेश बनाये जाने से उम्मीद थी कि उनको अधिक स्वायत्तता और अधिकार मिलेंगे। लेकिन उसने वह भी गंवा दिया, जो 5 अगस्त 2019 से पहले हासिल था। 35-ए के हटने से कश्मीर घाटी को ही नहीं, जम्मू और लद्दाख को भी अपनी पहचान के खो जाने का ख़तरा पैदा हो गया है। लद्दाख में लंबे समय से चल रहे जन आंदोलन यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि जनता किस हद तक असंतुष्ट है।

संघ-भाजपा सरकार की सबसे बड़ी सीमा यह है कि वह भारतीय संविधान के आधारभूत सिद्धांतों से जम्मू और कश्मीर राज्य की समस्याओं को देखने की बजाय हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक नज़रिये से देखती रही है। इसी का परिणाम है कि उसके लिए कश्मीर की समस्या बहुसंख्यक मुसलमानों और पाकिस्तान में निहित है और इस प्रक्रिया में जम्मू और कश्मीर की संपूर्ण जनता उसकी आंखों से ओझल रहती है। चूंकि पाकिस्तान और कश्मीरी मुसलमान दोनों उसकी नज़र में भारत नामक राष्ट्र के शत्रु हैं और उन्होंने भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है, इसलिए वे इस पूरे क्षेत्र को युद्धग्रस्त क्षेत्र की तरह देखते हैं और इसीलिए वे उसे सीधे अपने अधीन रखना चाहते हैं। ‘आर्टिकल 370’ फ़िल्म इसी जनविरोधी सांप्रदायिक फ़ासीवादी राजनीतिक दृष्टि से बनायी गयी है और यही इसकी सबसे बड़ी सीमा है।

फ़िल्म का विवरण :

फ़िल्म का नाम : आर्टिकल 370; अवधि : 158 मिनट; निर्माता : ज्योति देशपांडे, आदित्य धर, लोकेश धर; निर्देशक : आदित्य सुहास जंभाले; कहानी : आदित्य धर और मोनाल ठाकर; पटकथा : आदित्य धर, आदित्य सुहास जांभले, अर्जुन धवन और मोनाल ठाकर; छायांकन : सिद्धार्थ दीना वसानी; संपादन : शिवकुमार वी पन्नीकर; संगीत : शाश्वत सचदेव; प्रदर्शन : 23 फ़रवरी, 2024

अभिनय : यामी गौतम (ज़ूनी हक्सर), प्रियमणी (पीएमओ अधिकारी राजेश्वरी स्वामीनाथन), राज अर्जुन (ख़ावर अली), शिवर खजुरिया (बुरहान बानी), वैभव तत्ववादी (यश चौहान), राज जुत्शी (शहाबुद्दीन जलाल, पूर्व मुख्यमंत्री), दिव्या सेठ (परवीना अंद्राबी); सुमीत कौल (याकूब शेख़); मोहन अगाशे (पूर्व राज्यपाल जगमोहन)

(लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली से सेवानिवृत्त प्रोफेसर तथा जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष हैं। कई पुरस्कारों से सम्मानित। संपर्क : jparakh@gmail.com (मो) : 098106 06751)