कृषि कानून वापसी: पत्थर के मोम बनने की मजबूरी?
तौक़ीर सिद्दीक़ी
एकता में, अहिंसा में, आंदोलन में बड़ी शक्ति होती है, यह आज एकबार फिर साबित हो गया. एक साल से मोदी सरकार के तीन काले कानून के खिलाफ पूरे देश में अहिंसक आंदोलन चला रहे देश के अन्नदाताओं के आगे केंद्र की मोदी सरकार को झुकना पड़ा और एलान करना पड़ा कि वह अपने इन कृषि कानूनों को वापस लेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बाकायदा देश के सामने टीवी पर आकर इस बात का एलान करना पड़ा. प्रधानमंत्री मोदी का टीवी पर आना और उन कानूनों की वापसी का एलान करना जिनपर वह पिछले एक साल से टस से मस नहीं हुए, वह एक फोन कॉल की दूरी ख़त्म नहीं हुई, किसानों से सारे संवाद ख़त्म कर दिए गए और सरकार की ओर से बारम्बार दो टूक शब्दों में कहा गया कि कानून तो हरगिज़ वापस नहीं होंगे, बाक़ी जिस मुद्दे पर बात करना हो तो कीजिये, अपने आप में कई सवाल खड़ा करता है. सवाल यह उठता है कि अचानक पत्थर मोम कैसे बन गया, बकौल प्रधानमंत्री मात्र कुछ प्रतिशत किसानों के लिए उन्होंने उन कानूनों को वापस ले लिया जिन्हें रात के अँधेरे में किसानों के हित के लिए पास किया गया था.
प्रधानमंत्री मोदी अभी तक देश के नाम इस तरह के सम्बोधन रात के अँधेरे में करते आये हैं, लेकिन यह सम्बोधन आज सुबह सुबह आया है, शायद वह यह जताने की कोशिश कर रहे थे कि कानून वापसी के इस फैसले के पीछे काला कुछ भी नहीं है, सब कुछ साफ़ और पारदर्शी है. उत्तर प्रदेश के तीन दिनों के अपने सरकारी चुनावी दौरे पर आने से पहले देश के नाम अपने आज के सम्बोधन में उन्होंने अपनी सरकार की बहुत सी उपलब्धियों का बखान किया लेकिन उनका ज़्यादा ज़ोर किसानों पर ही रहा. हालाँकि उनके सम्बोधन में अपने फैसले से पीछे हटने की पीड़ा साफ़ झलक रही थी, क्योंकि फैसलों से पीछे हटना उनके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता, उनके मुंह से निकली हुई बात पत्थर की लकीर होती है, जो भी उसे मिटाने की कोशिश करता है भस्म हो जाता है. पीएम मोदी के फैसले कमान से निकले वह तीर होते हैं जो कभी वापस नहीं आते. इसलिए तीन कृषि कानून पर बैकफुट पर आना किसी आश्चर्य से कम नहीं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सम्बोधन में छोटे और बड़े किसानों के बीच एक बड़ी लकीर खींचने की कोशिश की है. यह जताने कि कोशिश की है कि यह तीनों कृषि कानून उन 80 फीसद किसानों के लिए लाये गए थे जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है. प्रधानमंत्री ने फैसले की वापसी पर अपने दुःख का इज़हार भी किया और कहा कि शायद उनकी तपस्या में कोई कमी रह गयी होगी। प्रधानमंत्री ने यह भी लोगों को बताने कि कोशिश कि यह फैसला उन्होंने किसानों के सिर्फ एक छोटे से वर्ग के लिए किया है जिन्हें उनकी पार्टी खालिस्तानी, आतंकी, देशद्रोही और न जाने क्या क्या मानती रही है. वैसे पीएम मोदी की यह बात भी तमाम ऐसे सवाल खड़ी करती जिनके जवाब दे पाना भाजपा और प्रधानमंत्री के लिए मुश्किल होगा। क्या प्रधानमंत्री जी यह कहना चाह रहे हैं कि सिर्फ कुछ किसानों के लिए उन्होंने सारे किसानों की भलाई को ताक पर रख दिया, बकौल उनके अगर उन्हें किसानों के एक छोटे से वर्ग के लिए यह फैसला करना था तो इतना लम्बा समय क्यों लिया, क्या वह सैकड़ों किसानों की शहादत का इंतज़ार कर रहे थे, क्या वह लखीमपुर खीरी जैसी घटना की बाट जोह रहे थे या फिर इस फैसले के पीछे विशुद्ध चुनावी राजनीति है?
सभी को मालूम है कि आने वाले कुछ महीनों में देश के पांच राज्यों में चुनाव है जिनमें उत्तर प्रदेश सबसे महत्वपूर्ण है और जो भाजपा की सियासत के लिए सबसे अहम् है. यूपी में हार का मतलब केंद्र की कुर्सी को खतरा। शायद इस फैसले के पीछे इसी खतरे का एहसास है. प्रदेश में जो सियासी हवा चल रही है उसे किसी भी तरह भाजपा के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। शायद यह फैसला उस हवा को अपनी तरफ मोड़ने का एक उपाय है. यूपी में भाजपा को सत्ता तक पहुँचाने में इन्हीं किसानों का बहुत बड़ा हाथ था, मोदी जी को इस बात का डर लग रहा है कि जो हाथ सत्ता तक पहुंचा सकते हैं वह उखाड़ भी सकते हैं. अगर हम ये कहें कि मोदी जी को 2022 से ज़्यादा 2024 का डर सता रहा है तो शायद ग़लत न होगा।
एक अहम् सवाल यह भी उठता है कि प्रधानमंत्री के इस फैसले पर किसान कितना भरोसा करते है, कहते हैं कि दूध का जला छाछ भी फूंक फूंककर पीता है, शायद इसलिए किसान नेता राकेश टिकैत ने दो टूक कहा कि प्रधानमंत्री के एलान भर से आंदोलन वापस नहीं होगा। राकेश टिकैत का यह ट्वीट देश के लिए बड़ी चिंता का विषय है जो जताता है देश का प्रधानमंत्री लोगों में अपना विश्वास को चूका है. भाजपा को भी इसपर चिंता करनी चाहिए। भरोसा बड़ी चीज़ है, बनता देर से है पर टूटता बड़ी जल्दी है और टूटने के बाद तो बनने में और भी अड़चनें आती हैं, कांग्रेस पार्टी इसकी ज़िंदा मिसाल है जो दोबारा भरोसा पाने के लिए जी जान से जुटी हुई है, बल्कि अपनी विचारधारा से भी हटने को तैयार है.
बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी भले इसे नेक नीयत से लिया गया फैसला बता रहे हों मगर इसमें विशुद्ध चुनावी सियासत शामिल है, इसमें कोई दो राय नहीं। अब देखना है कि काले कानूनों पर वापसी यूपी में भाजपा को हुए नुक्सान को कितना पूरा करती है. क्या पीएम मोदी और भाजपा किसानों को यह समझाने में कामयाब होते हैं कि उनकी सरकार के फैसले किसानों के हित में हैं हालाँकि काले कृषि कानून वापसी पर पीएम मोदी का सम्बोधन अपने आप में एक बड़ा विरोधाभास है.