लखनऊ: उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक ने ‘डाॅ0 राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान विधेयक, 2015‘ तथा ‘आई0आई0एम0टी0 विश्वविद्यालय, मेरठ, उत्तर प्रदेश विधेयक, 2016‘ को राज्य विधान मण्डल के दोनों सदनों को वापस प्रेषित कर दिया है। 

राज्यपाल ने ‘डाॅ0 राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान विधेयक, 2015‘ को वापस भेजते हुए कहा है कि विश्वविद्यालय जैसे उच्चतर अकादमिक संस्थान ‘स्वायततशासी अकादमिक संस्थान‘ माने जाते हैं ताकि वह राजनीतिक एवं प्रशासनिक हस्तक्षेप आदि से मुक्त रहकर अपनी अकादमिक गतिविधियाँ संचालित कर सकें तथा अकादमिक स्टाफ आदि के चयन एवं नियुक्तियों में भी स्वायत्त रह सकें। परन्तु संबंधित विधेयक में संस्थान की अधिकांश प्रशासनिक शक्तियाँ तथा निदेशक एवं अध्यापकों जैसे अकादमिक पदों पर तथा अधिकारियों एवं कर्मचारियों की नियुक्तियों संबंधी अधिकांश शक्तियाँ अध्यक्ष (उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव) में निहित कर दी गयी हैं, जिससे संस्थान की एक ‘विश्वविद्यालय‘ के रूप में स्वायत्तता पूर्णतः प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो जाती है। 

‘डाॅ0 राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान विधेयक, 2015‘ की धारा-42 इस आशय का प्रावधान करती है कि इस विधेयक के अधिनियम के रूप में प्रवर्तित होने पर यदि इस अधिनियम के अधीन संस्थान द्वारा अपनी शक्तियों के प्रयोग और कृत्यों के निर्वहन में या उनके संबंध में कोई विवाद उत्पन्न हो तो प्रकरण अध्यक्ष को संदर्भित किया जायेगा और उस विवाद पर अध्यक्ष का निर्णय अन्तिम होगा। इस प्रकार की नियुक्तियों के संबंध में अध्यक्ष का नियोक्ता होना और अपने ही द्वारा पारित किये गये नियुक्ति के आदेशों की वैधता को संदर्भ/अपीलीय प्राधिकारी के रूप में विनिश्चय किया जाना नैसर्गिक न्याय तथा विधि के सर्वमान्य सिद्धांतों के विपरित है।

श्री नाईक ने ‘आई0आई0एम0टी0 विश्वविद्यालय, मेरठ, उत्तर प्रदेश विधेयक, 2016‘ को वापस पुनर्विचार हेतु प्रेषित करते हुए कहा है कि विधेयक में प्राविधान है कि विश्वविद्यालय द्वारा लगातार तीन बार अधिनियम के उल्लंघन पर राज्य सरकार इसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अनुमोदन से समाप्त कर सकती है, जबकि संवैधानिक संस्थान/राज्य विधान मण्डल द्वारा लिए गये किसी विधायी निर्णय के क्रियान्वयन हेतु उस पर अनुमति/अनुमोदन प्रदान करने की विधिक शक्ति विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम, 1956 के अंतर्गत सामान्य विधिक संस्था/विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को प्राप्त नहीं है। विधेयक की धारा 53 की उपधारा (3) समस्त स्तर के न्यायालयों, जिनमें उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय जैसे संवैधानिक न्यायालय भी सम्मिलित हैं, की संविधान प्रदत्त ‘न्यायिक समीक्षा की शक्ति को छीन लेती है जबकि न्यायालयों की ‘न्यायिक समीक्षा का अधिकार‘ भारत का संविधान की कई विशिष्टताओं में से एक विशिष्टता है।

राज्यपाल ने विधान परिषद के सभापति एवं विधान सभा अध्यक्ष को पत्र भेजकर कहा है कि दोनों विधेयकों के कतिपय प्राविधानों के विधायी औचित्य पर तथा उनमें समुचित संशोधन किये जाने की दृष्टि से राज्य विधान मण्डल के दोनों सदनों द्वारा यथोचित समय पर पुनर्विचार किया जाय। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री श्री अखिलेष यादव को भी इस आशय का पत्र भेजा है।