अम्बेडकर के नाम पर
इधर डॉ. अम्बेडकर के स्मारकों की बाढ़ सी आ गयी है. आज कल संघ परिवार डॉ. अम्बेडकर जिन्होंने हिन्दू धर्म पर इतनी तीखी टिप्पणियाँ की थी जिस कारण उन्हें अपना कट्टर दुश्मन मानना चाहिए, को हथियाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा है. उसी समय दलितों और गैर दलितों में दूरी बढ़ती जा रही है और उन पर निर्बाध अत्याचार हो रहे हैं.
अब इंग्लैंड में बाबा साहेब के नाम पर लन्दन में एक स्मारक होगा. बाबा साहेब 1920 के शुरू में इस घर में रहे थे जब वे लन्दन स्कूल आफ इकोनामिक्स में पढ़ रहे थे. अगस्त के तीसरे हफ्ते में नौकरशाही का घपला तब उजागर हुआ जब उक्त मकान मालिक ने एक रोषभरी चेतावनी दे डाली. यह शेखी बघारने वाले मंत्री के लिए काफी था क्योंकि उन्होंने कई माह पहले उक्त मकान को खरीद लिए जाने की घोषणा कर दी थी. इस चेतावनी के बाद चीजें तेज़ी से चलने लगीं और उम्मीद है कि उस 2050 वर्ग फीट मकान का सौदा 3.1 लाख पौंड में जल्दी तै हो जायेगा. ( नोट: अब उक्त मकान खरीद लिया गया है.) भारत में मोदी जी ने जनपथ, नयी दिल्ली पर एक अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन सेंटर का नींव पत्थर रख दिया है. दूसरा मेमोरियल सेंटर 26 अलीपुर रोड, पुरानी दिल्ली जहाँ पर डॉ. आंबेडकर जब संविधान सम्मति के अध्यक्ष थे वहां पर रहे थे, पर बनाया जायेगा. मेमोरियल ऐसा बनेगा जो ऊपर से हवाई जहाज़ से देखने वालों को भी रोमांचित कर देगा. एक दूसरा मेमोरियल महू (मध्य प्रदेश) जहाँ डॉ. अम्बेडकर पैदा हुए थे जब उन के पिता जी अंग्रेजी फ़ौज में नौकरी कर रहे थे. मुम्बई में भी एक बहुत भव्य स्मारक इंदु मिल्स की ज़मीन पर बनेगा. यहाँ पर 6 दिसंबर, 2011 को रिपब्लिकन सेना ने ग्राउंड पर कब्ज़ा करके एक चलतु स्मारक बना दिया था जिससे आंबेडकर भक्ति दिखाने की एक होड़ सी लग गयी थी. भारत सरकार के समाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री श्री थावर चाँद गहलोत पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि डॉ. आंबेडकर से जुड़े सभी स्थलों का विकास करने का मोदी सरकार पहले ही निर्णय ले चुकी है. अतः यदि बॉन (जर्मनी) में नहीं तो न्यूयार्क या ऐसे सभी स्थल, अगर वे खोजे जा सकें, जहाँ जहाँ पर डॉ. आंबेडकर महाराजा बड़ोदा द्वारा दिए गए छोटे से वजीफे से रहे थे, स्मारक बनाया जा सकता है. स्मारकों से आगे बढ़ कर मोदी सरकार ने डॉ. आंबेडकर की 125वीं जयंती पूरे वर्ष भर मनाने की घोषणा की है जिस से उत्तेजित होकर भाजपा की विरोधी कांग्रेस ने महू में एक बड़ी रैल्ली तथा डॉ. आंबेडकर की ग्रैजुएशन की शताब्दी पूरा होने के उपलक्ष्य में कोलंबिया विश्विद्यालय में दलित बुद्धिजीविओं की कांफ्रेंस करने की घोषणा की है. “तीन राम” जिन्होंने चुनाव के दौरान भाजपा को दलितों के वोट दिलाये इस बात का श्रेय ले सकते हैं. सचमुच में अम्बेडकर के अनुयायी इस से ज्यादा और क्या मांग सकते थे? इन सब परिघटनाओं को देख कर अगर कोई दुखी होते तो वह स्वयम आंबेडकर ही होते. बड़े दुःख की बात है कि डॉ. आंबेडकर को मानने वाले जो पहचान के अहम् में चूर हैं कभी भी शासक वर्गों की उन्हें अपने यथार्थ के प्रति अँधा बना देने की चाल को नहीं समझेंगे. ( लेनिन के शब्दों में यह भाजपा का आंबेडकर के प्रति कोई हृदय परिवर्तन नहीं है बल्कि दलितों के ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष की धार को कुंद करने की सोची समझी चाल है काश! दलित इसे समझ सकें )
डॉ. आंबेडकर के स्मारकों के पीछे का रहस्य क्या है? इस में कोई शक नहीं है कि डॉ. आंबेडकर बहुत सारे स्मारक बनाये जाने के हक्कदार हैं जबकि डॉ. आंबेडकर स्वयं नायक पूजा के खिलाफ थे. स्मारक लोगों की कृतिज्ञता के प्रतीक होते हैं और आगे आने वाली नस्लों के लिए प्रकाश स्तम्भ और ऐसे लोगों का अनुसरण करने की प्रेरणा देते हैं जिन्होंने दूसरों के लिए काम किया. कम्युनिस्ट भी जो कि मनुष्य को ही इतिहास का रचियता मानते हैं, ने भी अपने नायकों के स्मारक बनाये हैं. डॉ. आंबेडकर के मामले में भी उनके परिनिर्वाण के बाद उन के अनुयायियों ने थोडा थोडा चंदा इकठ्ठा करके दादर चौपाटी, मुम्बई में जहाँ पर उनका दाह संस्कार किया गया था एक स्मारक बनाया था. उस स्थान पर बनायी गयी इमारत बौद्ध स्तूप का प्रतिरूप है जो उनके जाति विनाश के जीवन भर के संघर्ष का प्रतीक है और उसे चैत्य भूमि का नाम दिया गया है. यह छोटी सी इमारत भारत के कोने कोने से लोगों की भीड़ को आकर्षित करती है. 6 दिसंबर को उनके परिनिर्वाण दिवस पर 2 लाख से भी ज्यादा लोग वहां पर श्रद्धांजली देने के लिए आते है. काफी समय तक इस के इलावा डॉ. आंबेडकर का कोई स्मारक नहीं था. जब इस के लिए दलित संघर्ष कर रहे थे तो किसी भी राजनीतिक पार्टी या सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया. यह 1960 के दशक के मध्य के बाद ही हुआ है जब मध्य जातियों द्वारा क्षेत्रीय पार्टियाँ बनाने के कारण राजनीति अधिक स्पर्धात्मक हो गयी और राजनीतिक पार्टियों ने दलित वोटों को बटोरने में डॉ. आंबेडकर के प्रतीक की ताकत को पहचाना. हमारे चुनाव में सब से अधिक वोट पाने वाले की जीत की पद्धति ने छोटे छोटे वोट बैंक को भी बहुत महत्पूरण बना दिया है. लोकसभा की 84 अरक्षित सीटों तथा राज्य एसेमब्लियों तथा स्थानीय निकायों में आरक्षित सीटों और दूसरों की अपेक्षा अधिक संगठित होने के कारण सभी पार्टियों द्वारा पटाने के लिए दलित बहुत सस्ता निशाना बन गए हैं.
इस प्रकार का नजरिया अपनाने वाली कांग्रेस पहली पार्टी थी जिस ने 1965 में सहयोजन करने की रणनीति अपनाई. आंबेडकर का मूर्तिकरण इस रणनीति का हिस्सा बनी. अचानक शहरों में डॉ. आंबेडकर की मूर्तियाँ और सड़कों के नाम डॉ. आंबेडकर के नाम पर रखे जाने लगे. तब तक भी डॉ. आंबेडकर का कोई स्मारक नहीं था. चैत्य भूमि के बाद डॉ. आंबेडकर के स्मारक के रूप में सब से महत्वपूर्ण परेल के दबाक चाल में वे दो कमरे होने चाहिए थे जिन में वे 1931 तक रहे थे और राजगृह जो उनका घर था जिस में उन का पुस्तकालय भी था जिसे 1942 में दिल्ली से बम्बई लाया गया था. पहले वाले को तो भुला ही दिया गया है परन्तु राजगृह को स्मारक बनाया जाना चाहिए था. परन्तु यह महाराष्ट्र की राजनीति के मक्कडजाल में फंस कर रह गया और उपेक्षा का शिकार हो रहा है जब कि इसे देखने के लिए हर रोज़ दलित आते हैं. एक दिन यह महत्वपूर्ण स्मारक जनता के लिए ओझिल हो जायेगा. भाजपा के सत्तारूढ़ होने के बाद डॉ. आंबेडकर को हथियाने की प्रतियोगिता तेज हो गयी है और स्मारकों के लिए हंगामा इसी नाटक की अभिव्यक्ति है.
स्मारक बनाओ, मिशन दफनाओ. स्मारक तभी अर्थपूर्ण हैं जब कि व्यक्ति के मिशन का भी आदर किया जाये और उसे आगे बढ़ाया जाये. आंबेडकर का मिशन था जाति का विनाश ताकि “स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व” पर आधारित समाज का निर्माण किया जा सके. परन्तु डॉ. आंबेडकर के प्रति प्रेम के अनुपात में ही उन के सपनों का तिरस्कार भी है. जाति को छोडिये संविधान द्वारा निषिद्ध की गयी छुआछूत आज भी बुरी तरह व्याप्त है. 21वीं सदी के शुरू में किये गए तीन बड़े सर्वे- 11 राज्यों के 565 गाँव का एक्शन एड सर्वे (2001-02), नवसृजन का गुजरात के 1,589 गाँव का सर्वे (2007-10) और हाल में नैशनल काउन्सिल आफ एप्लाईड रिसर्च रिपोर्ट 2014 छुआछूत की हिला देने वाली घटनाएँ दर्शाती हैं. छुआछूत जातियों का एक पहलु है. जाति के जीवित रहते छुआछूत कभी भी समाप्त नहीं हो सकती. डॉ. आंबेडकर का स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का आदर्श हजरों प्रकाश वर्ष दूर है और हर दिन गुजरने के साथ साथ दूर होता जा रहा है. स्वतंत्रता तो अधिकतर लोगों के लिए, जो रोटी कमाने की चिंताओं में डूबे हैं और राज्य ने मजबूती से उन की आवाज़ को दबा दिया है, के लिए एक कल्पना बन कर रह गयी है . आम लोगों की बातचीत में भी समानता की चर्चा नहीं होती बल्कि इस की जगह विश्व बैंक की समावेशी और आर.एस.एस. की समरसता ने ले ली है. आज भारत की दुनिया के असमान समाज वाले देशों में गिनती होती है. जाति आधारित समाज में भाईचारा का होना तो स्वाभाविक ही नहीं है ख़ास करके 1991 के बाद के जातिवादी भारत में. दलितों की हालत जिन के लिए डॉ. आंबेडकर ने आजीवन काम किया से स्मारकों से प्रेम करने वालों के दलित प्रेम का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. विकास का कोई ऐसा पैमाना नहीं है जिस से दलितों और गैर दलितों (जिन में मुसलमान भी शामिल हैं और जिन की हालत कुछ मायनों में दलितों से भी बुरी है) का महत्त्व नहीं है. कोई भी पैमाना लीजिये- गरीबी, शहरीकरण, मृत्यु दर, पेशेवार वितरण, कुपोषण , शारीरक वजन, विभिन्न स्तरों पर शिक्षा में प्रवेश, स्कूल छोड़ने की दर, विभिन्न जन सुविधाओं तक पहुँच में दलित जातियां गैर दलित जातियों से बहुत पीछे हैं. सब से अधिक चिंता की बात है कि आज़ादी के बाद के चार दशकों में यह दूरी बहुत धीमी गति से कम हो रही है.
परन्तु नव उदारवादी सुधारों को लागू करने के बाद इन के बीच दूरी तेज़ी से बढ़ी है. इन नीतियों का दलितों पर बहुत बुरा असर हुआ है और वे हरेक क्षेत्र में हाशिये पर चले गए हैं. यदि अत्याचारों में बढ़ोतरी को जाति चेतना के उभार का परिणाम भी मान लिया जाये तो भी इस निष्कर्ष से नहीं बचा जा सकता कि इस में पिछले अढाई दशक के नव उदारवाद के दौरान अप्रत्याशित वृद्धि हुयी है. हरेक वर्ष दलितों के विरुद्ध अत्याचार के 40,000 हज़ार केस दर्ज होते हैं. अत्याचार करने वालों: किल्वेल्मानी (1968) जिस में 44 दलित औरतें और बच्चे मरे थे, आन्ध्र प्रदेश के कर्मचेडू (1985) और चुन्दुरु (1991) दलित जनसंहार और 1996 में बिहार के बिठानी टोला जहाँ 21 दलित और 1997 में लक्ष्मनपुर बाठे जिस में 61 लोग मारे गए थे, 2000 में मियांपुर जहाँ 32 लोग, नागरी बाज़ार जहाँ 1998 में 10 लोग और 1999 में शंकर बीघा जहाँ 22 दलित मारे गए थे, के अदालत से लगातार छूट जाने से यह स्थापित हो गया है कि जातिवादी अपराधियों को दलितों के विरुद्ध राज्य का सहारा मिल रहा है.
यह देखना दिलचस्प है कि एक तरफ संघ परिवार और भाजपा सरकार डॉ. आंबेडकर का गुणगान कर रहे हैं और दूसरी तरफ वे लोग डॉ. आंबेडकर की धर्म निरपेक्षता की धरोहर को बिगाड़ रहे हैं. हिन्दू धर्म और हिंदुत्व पर कडवी टिप्पणियों के कारण संघ परिवार के लिए डॉ. आंबेडकर सब से बड़े दुश्मन होने चाहिए. परन्तु दुःख इस बात का है कि अम्बेडकरी विचारधारा से दलितों के विचलित होने ने उन के लिए इसे खतरे की जगह एक स्वर्णिम अवसर बन गया है. उन्होंने उसे (आंबेडकर) को अपने लिए प्रातः स्मरणीय बना लिया है. अपने देवगणों में शामिल करके वे धीरे धीरे परन्तु नियोजित ढंग से डॉ. आंबेडकर को विकृत कर रहे हैं. आंबेडकर के जीवन की कुछ छोटी छोटी बातों के गिर्द झूठ का जाला बुन कर वे बहुत जोर शोर से एक भगवा डॉ. आंबेडकर का प्रचार कर रहे हैं. इस आंबेडकर को बहुत बेशर्मी से घर वापसी का पक्षधर दिखाया जा रहा है. वे हिन्दुओं के सब से बड़े हितैषी दिखाए जा रहे हैं. क्योंकि उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया है जो कि हिन्दू धर्म का ही एक पंथ है. कितना बड़ा झूठ है यह! वे मुसलामानों के विरोधी थे. वे हेडगेवार और विषैली विचारधारा के प्रवर्तक गुरु गोवलकर के मित्र थे. वे संघ के प्रशंसक थे आदि आदि. यह सही है कि हेडगेवार, गोलवलकर और सावरकर एवं राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ के लोग डॉ. आंबेडकर से मिले थे परन्तु डॉ. आंबेडकर उनसे नहीं. परन्तु इस का यह अर्थ नहीं कि वे उनके मित्र थे. उन्होंने कभी भी उनकी विचारधारा की प्रशंसा नहीं की थी. यह सही है कि बी एस मुंजे और उन के साथी उन से बम्बई एअरपोर्ट पर मिले थे जब वह राष्ट्रीय झंडा समिति के सदस्य थे और उन्होंने उन्हें एक भगवा झंडा इस अनुरोध के साथ दिया था कि इसे राष्ट्रीय झंडा बनाया जाये. क्या इस का यह मतलब है कि डॉ. आंबेडकर उनकी मांग का समर्थन करते थे? क्या इस का यह अभिप्राय है कि उन्होंने संस्कृत को राष्ट्र भाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था? वे अपने छोटे साम्प्रदायिक कद के अनुसार डॉ. आंबेडकर को भी बौना बनाने में लगे हैं. इस प्रकार का अपनाव डॉ. आंबेडकर का सीधा अपमान है. परन्तु खेद का विषय है कि स्मारकों के नशे में चूर अम्बेडकरवादी इसे नहीं देख पा रहे हैं.