सूफीमत की ‘रूहानियत’ ही अध्यात्म-विज्ञान
जब आतंकवाद को सूफीवाद से खत्म किये जाने की बात कही जा रही है, ऐसे में आध्यात्मिक क्रान्ति से कदाचार (अनाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार, व्यभिचारादि) का अंत करने की बात होना, यह सिद्ध करते है कि सूफीमत की रूहानियत ही अध्यात्म-विज्ञान है। यह भी संयोग ‘परवरदिगार’ ने तय किया ‘‘कदाचार पूर्ण दुर्घर्ष दौर में ‘आर्ट आॅफ लिविंग का विश्व सांस्कृतिक महोत्सव’ एवं ‘विश्व सूफी कांफ्रेंस’ का आयोजन हो’’, यही संयोग रूहानी यानी अध्यात्म ‘‘क्रान्ति’’ के आगाज की ओर इसारा करता है।
‘सूफी’ एक फारसी शब्द है जिसका अर्थ है- ‘विवेक’। विवेक ही सत् असत् रूपी नीर-क्षीर के विभेद में हंसवृत्ति का नाम है, जिस पर पूर्णतः बुद्धि टिकी है। सूफीवाद का तात्पर्य हुआ विवेकपूर्ण बुद्धिमत्ता। जो परमात्मतत्व यानी खुदा के जोड़ने के लिए प्रमुख अर्हता है।
मूलतः सूफी परम्परा का आधार ही ईश्वर की प्रति अगाध अलौकिक प्रेम है। साथ ही सूफीवाद का मर्म अपने ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण है। एक ऐसा प्रेमपूर्ण समर्पण, जहां स्वयं के सोच-विचार, अनुभव, यहां तक कि इन्द्रियां और चेतन भी अपने दिव्य प्रियतम से एकाकार हो जाते हैं और उस परम सत्ता की, उसके ऐश्वर्य की अभिव्यक्ति मात्र बन कर रह जाते हैं। इस परम आनन्द की स्थिति का सिर्फ अनुभव किया जा सकता है, वर्णन नहीं। यानी मन को आत्मा के साथ जोड़ना ही आध्यात्मिक ज्ञान है।
मध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास में महत्वपूर्ण पड़ाव था सामाजिक-धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज में लाई गई मौन क्रांति, एक ऐसी क्रांति जिसे भक्ति अभियान के नाम से जाना गया। यह अभियान हिन्दुओं, मुस्लिमों और सिक्खों द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप में भगवान की पूजा के साथ जुड़े रीति रिवाजों के लिए उत्तरदायी था। उदाहरण के लिए, मंदिरों में कीर्तन, दरगाह में कव्वाली और गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन। उस ‘अध्यात्म क्रांति’ को ‘‘प्रेम स्वरूपा भक्ति – आंदोलन’’ का नेतृत्व क्रमशः आदि शंकराचार्य, चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम, जयदेव ने किया। इस अभियान की प्रमुख उपलब्धि मूर्ति पूजा (आडम्बर) की बजाय हृदयस्थ आत्मस्वरूप में परमात्मा की अनुभूति करना रहा।
भक्ति आंदोलन में रामानंद ने राम को भगवान के रूप में लेकर इसे केन्द्रित किया। भगवान के प्रति प्रेम भाव रखने के प्रबल समर्थक, भक्ति योग के प्रवर्तक, चैतन्य ने ईश्वर की आराधना श्रीकृष्ण के रूप में की। श्री रामनुजाचार्य ने दक्षिण भारत में रुढिवादी कुविचार की बढ़ती औपचारिकता के विरुद्ध विशिष्टाद्वैत सिद्धांत देकर आवाज उठाई और प्रेम तथा समर्पण की नींव रखी।बारहवीं और तेरहवीं शताब्घ्दी में भक्ति आंदोलन के अनुयायियों में भगत नामदेव और संत कबीरदास शामिल हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भगवान की स्तुति के भक्ति गीतों पर बल दिया।
सिक्ख धर्म के प्रवर्तक, गुरु नानकदेव ने सभी प्रकार के जाति भेद और धार्मिक शत्रुता तथा रीति रिवाजों का विरोध किया। उन्होंने ईश्वर के एक रूप माना तथा हिन्दू और मुस्लिम धर्म की औपचा- रिकताओं तथा रीति रिवाजों की आलोचना की। गुरु नामक का सिद्धांत सभी लोगों के लिए था। उन्होंने हर प्रकार से समानता का समर्थन किया।
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में भी अनेक धार्मिक सुधारकों का उत्थान हुआ। वैष्णव सम्घ्प्रदाय के राम के अनुयायी तथा कृष्ण के अनुयायी अनेक छोटे वर्गों और पंथों में बंट गए। राम के अनुयायियों में प्रमुख संत कवि तुलसीदास ने भारतीय दर्शन तथा साहित्य को प्रखर आयाम दिये। 1585 ए. डी में हरिवंश के अंतर्गत राधा बल्लभी पंथ की स्थापना की। सूरदास ने ब्रज भाषा में ‘‘सूर सरागर’’ की रचना की, जो श्रीकृष्ण के मोहक रूप तथा उनकी प्रेमिका राधा की कथाओं से परिपूर्ण है।
इसी दौर में सन्त परम्परा ही सूफीवाद के रूप में मानी गई। पद सूफी, वली, दरवेश और फकीर का उपयोग मुस्लिम संतों के लिए किया जाता है, जिन्होंने अपनी पूर्वाभासी शक्तियों के विकास हेतु वैराग्य अपनाकर, सम्पूर्णता की ओर जाकर, त्याग और आत्म अस्वीकार के माध्यम से प्रयास किया। बारहवीं शताब्दी तक सूफीवाद इस्लामी सामाजिक जीवन के एक सार्वभौमिक पक्ष का प्रतीक बन गया, क्योंकि यह पूरे इस्लामिक समुदाय में अपना प्रभाव विस्तारित कर चुका था।
सूफीवाद इस्लाम धर्म के अंदरुनी या गूढ़ पक्ष को या मुस्लिम धर्म के रहस्यमयी आयाम का प्रतिनिधित्व करता है। जबकि, सूफी संतों ने सभी धार्मिक और सामुदायिक भेदभावों से आगे बढ़कर विशाल पर मानवता के हित को प्रोत्साहन देने के लिए कार्य किया। सूफी सन्त दार्शनिकों का एक ऐसा वर्ग था जो अपनी धार्मिक विचारधारा के लिए उल्लेखनीय रहा। सूफियों ने ईश्वर को सर्वोच्च सुंदर माना है और ऐसा माना जाता है कि सभी को इसकी प्रशंसा करनी चाहिए, उसकी याद में खुशी महसूस करनी चाहिए और केवल उसी पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। उन्घ्होंने विश्घ्वास किया कि ईश्वर ‘‘माशूक’’ और सूफी ‘‘आशिक’’ हैं। सूफीवाद ने स्वयं को विभिन्न ‘सिलसिलों’ या क्रमों में बांटा। सर्वाधिक चार लोकप्रिय वर्ग हैं चिश्ती, सुहारावार्डिस, कादिरियाह और नक्शबंदी।
सूफीवाद ने शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में जडें जमा लीं और जन समूह पर गहरा सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रभाव डाला। इसने हर प्रकार के धार्मिक औपचारिक वाद, रुढिवादिता, आडंबर और पाखंड के विरुद्ध आवाज उठाई तथा एक ऐसे वैश्विक वर्ग के सृजन का प्रयास किया जहां आध्यात्मिक पवित्रता ही एकमात्र और अंतिम लक्ष्य है। एक ऐसे समय जब राजनैतिक शक्ति का संघर्ष पागलपन के रूप में प्रचलित था, सूफी संतों ने लोगों को नैतिक बाध्यता का पाठ पढ़ाया। संघर्ष और तनाव से टूटी दुनिया के लिए उन्होंने शांति और सौहार्द लाने का प्रयास किया। सूफीवाद का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह है कि उन्होंने अपनी प्रेम की भावना को विकसित कर हिन्दू – मुस्लिम पूर्वाग्रहों के भेद मिटाने में सहायता दी और इन दोनों धार्मिक समुदायों के बीच भाईचारे की भावना उत्पन्न की।
कुल मिलाकर कह सकते है कि भक्ति-आन्दोलन यानी सूफीवाद ‘प्रेम’ पर केन्द्रित है क्योंकि भक्ति का स्वरूप ही प्रेम है- ‘‘ईश्वर का स्वाभाविक गुण अरु ऐश्वर प्रेम के भीतर है, तो कह सकते हैं ईश्वर में है प्रेम, प्रेम में ईश्वर है।
प्रख्यात सूफी कवि बुल्लेशाह ने कहा है- ‘‘इक नुक्ते विच गल मुकदी है।’’ अर्थात् एक नुक्ते (बिन्दु) से बात पलट सकती है। उर्दू में ‘खुदा’ लिखते समय यदि एक नुक्ता (बिन्दु) ऊपर की जगह नीचे लग जाए, तो वह शब्द ‘जुदा’ बन जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे हृदय में अवस्थित प्रेम के बिन्दु को हम कहां स्थापित करते हैं, इसी पर हमारे जीवन की दशा एवं दिशा तय होती है कि हमारी आत्मिक उन्नति उध्र्वगामी होगी या अधोगामी।
महान सूफी सन्त जलालुद्दीन रूमी ने भी इसी सत्य को उजागर करते हुए लिखा है- ‘‘जब हमारे हृदय में किसी के प्रति प्रेम की ज्वलंत चिन्गारी उठती है, तो निश्चय ही वहीं प्रति-प्रेम उस हृदय में भी प्रतिबिम्बित हो रहा होता है। जब परमात्मा के लिये हृदय में अगाध प्रेम उमड़ता है, निस्सन्देह तब परमात्मा की हमारी प्रेम में सराबोर होते हैं।’’ रूहानियत यानी अध्यात्म वह शक्ति है, जो हमारे जीवन की अद्भुत संरचना कर सकती है। इसके माध्यम से नाकामयाबी की गर्त में जाता व्यक्ति सफलता के शिखर पर पहुंच सकता है। बस जरूरत है तो खुद को थोड़ा सा बदलने की।
– देवेश शास्त्री
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