रईसों की शरारत का समाज पर प्रभाव: एक समाजिक विवेचन
डाॅ.नीतू सिंह सेंगर, एम.ए., पी-एच.डी. समाजशास्त्र, पोस्ट डाॅक्टोरल फेलो, यू.जी.सी.दिल्ली.
आज पूरा विश्व अपराधीकरण की चपेट में है। कोई भी देश अपराध की समस्या से बचा न हीं है। भारत में भी अपराध का ग्राफ बड़ी तीव्रता से बढ़ रहा है। समाज का कोई भी वर्ग अपराध (यानि कानून को अपने लाभ के लिए तोड़ना) करने से नहीं हिचकता है। पहले कोई दरिद्र या अभावग्रस्त व्यक्ति अपनी छोटी-मोटी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए छोटी-मोटी चोरी, सेंधमारी या वस्तु छीनने जैसे अपराध करता था। आज तो अपराध की प्रकृति और सीमा ही बदल गई है। अब जितना बड़ा व्यक्ति उतना बड़ा अपराध होता है। अब अपराध एक व्यवसाय बन गया है। इस व्यवसाय में समाज के ऊँचे तथा सम्मानित पदों पर बैठे लोग अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं। चाहे सत्ता में बैठे मंत्रीगण हों, उच्च प्रशासनिक अधिकारी हों, शिक्षा संस्थानों के प्रबंधक हों, कानून के पालक हों, पुलिस अधिकारी हों या न्याय मंदिर में बैठने वाले न्यायाधीश हों, सभी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं।1
हमारे देश की राजनीति में अपराधीकरण अपनी चरम सीमा पर है, जिसे देखकर यह आशंका पैदा होती है कि आने वाले दिनों में राजनीति में सिर्फ अपराधी छवि वाले लोग ही रह पायेंगे और अच्छे लोग इससे किनारा कर लेंगे। राजनीति के अपराधीकरण के पीछे एक बडा कराण रूपया है। रूपया गलत तरीकों से उगाहा जाता है। चुनावों में कालेधन का बेतहाशा इस्तेमाल होता है। आज यह समस्या अत्यन्त गंभीर हो गई है और अब देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा खतरे में पड़ गई है। क्योंकि इस कालेधन के जनक तस्कर, करवंचक, नेता, अभिनेता अफीम और हीरोइन बेंचने वाले मौत के सौदागर, रिश्वतखोर, उच्च पदस्थ, अधिकारी और ऐसे लोग हैं जो अपने धन को उन व्यापारों में लगाते हैं जिससे देश में भौतिकवादी,संस्कृति का प्रचार-प्रसार हो रहा है और फलस्वरूप युवा पीढ़ी दिशाभ्रमित हो रही है।
सर्वाधिक सोचनीय विषय यह है कि कानून बनाने एवं संसद चलाने वाले सांसद एवं मंत्री ही स्वयं बड़े-बड़े घोटालों में संलिप्त हैं ताजा उदाहरण-सांसद राहुल गांधी एवं उनकी माता सांसद सोनिया गांधी की करतूत को देखिंए जिन्होंने ‘नेशनल हेराल्ड’ की अरबों रूपयों की सम्पत्ति घोटाला करके देश को चूना लगाया।2 इसी प्रकार पूर्व यू.पी.ए.-2 के पूर्व-दूरसंचार मंत्री ए.राजा की करतूत देखिए जिन्होंने 60,000 करोड़ रूपए का चूना लगाया। इसी प्रकार सुरेश कलमाडी ने काॅमनवेल्थ गेम्स कमेटी के आयोजन के पर पर रहते हुए खेल सम्बन्धी साजों सामान की खरीद-फरोख्त में 21.7 मिलियन डाॅलर की गड़बडि़यां की। ये सभी मामले सरकारी स्तर पर किए गए निकृष्टतम उदाहरण हैं। हालांकि इन मामलों में अधिकांश आरोपी जमानत पर हैं और ट्रायल फेस कर रहे हैं।3
समाज आज यौन अपराधों की गिरफ्त में है और इसका ग्राफ तेजी से ऊपर बढ़ रहा है। यौन सम्बन्धों के लिए टी. वी. कल्चर और मोबाइल ज्यादा जिम्मेदार है। मोबाइल पर बातचीत और टी. वी.की कार्यक्रमों में आवश्यकता से अधिक ग्लेमर युवा पीढ़ी को दिग्भ्रमित करता है। यही कारण है कि समाज में बलात्कार तथा यौन शोषण की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। राजधानी दिल्ली समेत देश के नगरों एवं महानगरों में यौन अपराधों की बढ़ती घटनाएं एक गंभीर सामाजिक समस्या बन गई है।
सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति एवं संचार क्रांति तथा भूमण्डलीकरण के इस युग में जहाँ एक ओर समाज में जागरूकता बढ़ी है और देश व विदेशों के नगरों के बीच दूरियां घटी हैं वहीं इनके प्रयोग से नए-नए प्रकार के अपराधों का जन्म हुआ है। भ्रूणहत्या, गर्भपात, साइबर क्राइम आदि ऐसे अनेक अपराध इसी श्रेणी में आते हैं।
‘स्ंिट्रग आॅपरेशन’ के द्वारा भ्रष्ट व रिश्वतखोर अधिकारियों, नेताओं, मंत्रियों, सांसदों तथा विधायकों की पोल खोली जाती हैं। स्ंिट्रग आॅपरेशन के द्वारा अधिकारियों को धन लेकर कार्यवाही करने तथा सांसदों को लोकसभा एवं विधायकों को विधानसभा में प्रश्न उठाने के एवज में शिकायतकर्ता से रिश्वत लेते हुए आए दिन दिखाया जाता है। इस प्रकार बिक्रीकर एवं आयकर को कम आंकने के एवज में रिश्वत लेते दिखाया जाना, समाज में अपराधीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति को दर्शाता है। अनेक किशोर एवं महिलाएं भी विभिन्न अपराधों में संलग्न पाईं गईं हैं।4
भारतीय समाज में अपराधों की उपर्युक्त स्थिति को देखकर दो तथ्य सामने आते हैं- (1) भारतीय समाज अवधारणात्मक संकट के दौर से गुजर रहा है, तथा (2) भारतीय समाज में अपराधीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है। अवधारणात्मक संकट का तात्पर्य यह है कि आज व्यक्ति अपने लिए, कुछ अन्यों के लिए कुछ और स्वयं कत्र्तव्य विमुख होकर दूसरे को कत्र्तव्यों का उपदेश देना एक मात्र उदाहरण है। ऐसी स्थिति में हमें केवल साध्य दिखाई दे रहा है। साधन पवित्र है या अपवित्र इसकी पहिचान विलुप्त होती जा रही है। साध्य की पवित्रता का विलोप ही अपराधीकरण है।5
‘क्राइम इन इण्डिया, 2011’ के अनुसार, भारत में प्रतिवर्ष भारतीय संहिता (आई.पी.सी.) के अंतर्गत लगभग 23.25 लाख संज्ञेय अपराध होते हैं और लगभग 29.27 लाख अपराध स्थानीय एवं विशेष कानून (एस.एस.एल.) के तहत होते हैं। जनसंख्या वृद्धि और अपराध में सीधा सम्बन्ध होता है-अपराध समाज विरोधी कार्य है और इसकी सार्वभौकिता को अस्वीकार नहीें किया जा सकता है। जब जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हो रही हो तो अपराधों का बढ़ना स्वाभाविक है।6
भारतीय समाज संक्रमण की अवस्था में गुजर रहा है। इस अवस्था को नवीन और प्राचीन का संघर्ष भी कहा जा सकता है। आज हमारी अतीत के प्रति आस्था समाप्त होती जा रही है। हम अपनी प्राचीन संस्कृति और समाज को आशंका की दृृष्टि से देखते हैं। अतीत के प्रति हमारे मस्तिष्क में उपेक्षा की भावना घर कर गई है। वर्तमान चित्र हमारे सामने अस्पष्ट दिखाई देता है और भविष्य अंधकारमय है। ऐसी अवस्था में हमारे मस्तिष्क में निराशा और विक्षोभ की भावना का उदय होता है। यह निराशा और विक्षोभ की भावना अपराध की ओर आसानी से प्रेरित करती है।
सभ्यता और संस्कृति एक ही मानव-विकास के दो पहलू हैं। समाज का विकास इन्हीं दोनों की समरूपता और सहयोग पर आधारित है। सभ्यता मौलिक होती है जबकि संस्कृति का स्वरूप अभौतिक होता है। ये भौतिक और अभौतिक वस्तु के दो पहलू-आंतरिक और बाह्य हैं। इन आंतरिक और बाह्य पहलूओं को अलग करक नहीं समझा जा सकता है। सम्यता और संस्कृति भी इसी प्रकार का एक मानव विकास के दो पहलू हैं। भारत में इन दोनों में अंतर किया जा रहा है। हम संस्कृति से पिछड़ेपन का अनुमान लगाते हैं, जबकि सभ्यता से विकास और प्रगति का अर्थ लगाते हैं। सभ्यता और संस्कृति का यह गतिरोध अपराधों की संख्या में वृद्धि के लिए उत्तरदायी है।
भारतीय समाज में नकल करने की प्रवृत्ति जोरों पर है। व्यक्ति दूसरों की नकल करने में गौरव का अनुभव करता हैं। इस नकल की प्रवृत्ति से भी अपराधों की संख्या में वृद्धि हो रही है।
बेकर के अनुसार, समाज में अपराध इस लिए होते हैं कि समाज व्यक्तियों के लिए कुछ नियम बनाता है तथा यही नियम अपराधों के कारण होते हैं। जो नियम बनाए जाते हैं, वे कुछ व्यक्तियों पर लागू होते हैं तथा इन व्यक्तियों के ‘बाहरी’ व्यक्ति का ठप्पा लगा दिया जाता है। कहा जाता है कि अपराधी व्यवहार ऐसा व्यवहार हो जिस पर समाज अपचार का ठप्पा लगा देता है।7
सामाजिक व्यवस्था के उन पहलूओं की आलोचना की जानी चाहिए जो अंध विश्वास, कूपमंडूकता एवं जलालत की ओर ले जाते हैं और राष्ट्र की उन्नति में बाधक बने हुए हैं।
स्वतंत्र भारत में आज स्थिति अत्यन्त भयानक है। सारे देश में आपाधापी, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजा वाद और बेईमानी का राज्य हो गया है। ईमानदारी, कर्मनिष्ट और वफादार का जिन्दा रहना असंभव हो गया है। आखिर क्यों?
हमारा विश्वास है कि यह भारतीय समाज में व्याप्त चरित्रहीनता एवं अनैतिकता का परिणाम है और इसक सीधा सम्बन्ध हमारे धर्मशास्त्रों, दर्शनशास्त्रों, सिद्धान्तों, आदर्शों और आकांक्षाओं से है।
धर्मगुरूओं, शास्त्रों एवं राजनेताओं ने भारतीयों द्वारा हजारों देवी-देवताओं को चढ़ावा-चढ़ाने, रिश्वत देने, उनके नाम रटने से अपने कुकुर्मों के परिणाम से बचने या सुख ऐश्वर्य प्राप्त करने का विधान करके भ्रष्टाचार व अकर्मण्डता पर धर्म की मोहर लगा दी है। जिसके कारण देश में कोई काम बिना स्तुति, खुशामद एवं रिश्वत के होता ही नहीं और सब अजामिल की तरह केवल व्यक्ति विशेष (ईश्वर) के सहारे, केवल कीर्तन, हवन, पूजा, विस्मिलाह, दुआ से जीवन की सारी समस्याएं हल करते रहते हैं, उदाहरणार्थ महमूद गजनबी सोमनाथ के दरबाजे पर आ खड़ा होता है पर धर्मगुरू बजाय8 उससे लड़ने के पूजा-कीर्तन में लगे रहते हैं और परिणाम?
यदि समाज का एक वर्ग कोई ऐसा काम कर रहा है जो समाज की प्रगति में बाधक है तो समाज के हर हितैषी का यह कत्र्तव्य ही नहीं, अधिकार भी है कि वह उसकी आलोचना कर। यदि कुछ लोग अंधश्रद्धा9 एवं लोभ-लालच के कारण सतीप्रथा, नरबलि, बालिकाबध, अवैध वसूली, अराजकता, कत्र्तव्य के प्रति उदासीनता-उपेक्षा, आतंक, दहशत में विश्वास करते हैं तो उन्हें रोका ही नहीं जाना चाहिए बल्कि समाज से प्रथक करके उचित दण्ड दिया जाना चाहिए।
संदर्भ सूची
1-डी.एस.बघेल, अपराधशास्त्र, विवेक प्रकाशन, 7-यू.ए.,जवाहरनगर, दिल्ली-7, वर्ष-2013 पेज-1
2-संपादक, दैेनिक जागरण कानपुर-संस्करण, जागरण प्रकाशन लि. कानपुर, दि.20.12.2015, पेज-12
3-डी.एस.बघेल, अपराधशास्त्र, विवेक प्रकाशन, 7-यू.ए.,जवाहरनगर, दिल्ली-7, वर्ष-2013 पेज-2
4-वही, पेज-2
5-वही, पेज-2
6-वही, पेज-149
7-वही, पेज-144
8-विश्वनाथ, ‘हिन्दू समाज’, सरिता, दिल्ली प्रेस, ई-3, झंडेवाला, नई दिल्ली-110033,1985, पेज-5
9-वही, पेज-7