अमेरिका से इतना भी क्या दबना
मोदी की अमेरिका यात्रा
संजय श्रीवास्तव
तमाम आर्थिक परेशानियों का हवाला देने वाली सरकार ने अमेरिकी दबाव में, अमेरिकी उपेक्षा के बावजूद अरबों डालर का रक्षा सौदा महज इसलिये कर लिया कि मोदी को वहां जाना था।
इधर प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका के लिये रवाना हुये तो उधर करीब 2.5 बिलियन डॉलर के अमेरिकी रक्षा सौदे को भारत सरकार ने मंजूरी दे दी। यह सौदा तब हुआ है कि जब पिछले पखवारे अमेरिका ने रक्षा तकनीक के हस्तांतरण और भारत में परमाणु उर्जा संयंत्र का निर्माण करने से मना कर दिया था। कुछ भी हो सरकार और रक्षा मंत्रालय इसपर अपनी पीठ अपने ही हाथों ठोंकने की कोशिश कर रहा है जबकि रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि जो खरीदारी सेना को सबल करने के लिये जरूरी थी उसकी बजाये यह खरीदारी की गयी जो गैर जरूरी तो नहीं पर इससे पहले उन हथियारों की खरीद आवश्यक थी जो सेना को सीधे मजबूती प्रदान करते।
भारत की सुरक्षा से जुड़ी संसदीय समिति ने जिन 22 अपाचे और 15 चिनूक हेलिकॉप्टर खरीदने की मंजूरी दी है वे दोनों हेलिकॉप्टर अमेरिकी कंपनी बोइंग से करीब 2.5 बिलियन डॉलर में खरीदे जाने है। अपाचे के लिए एक सौदा बोइंग के साथ होगा तो दूसरा, अमेरिकी सरकार के साथ, जिसके तहत लड़ाकू विमान में हथियार, राडार और युद्ध सामग्री लगाने की अनुमति होगी। माना जा रहा है कि अमेरिकी सरकार ने इस सौदे के लिए भारत पर जबरदस्त दवाब बना रखा था। इस दबाव में सरकार अ गयी यह इस बात का पक्का सबूत है कि सरकार ने मोदी के हवाई जहाज में बैठने से एक दिन पहले यह फैसला लिया।
एक वेब साइट को बताते हुये भारत सरकार के शीर्ष अधिकारी और रक्षा मंत्रालय में अधिग्रहण विभाग के महानिदेशक रह चुके विवेक कहते हैं, “बोइंग की तरफ से अमेरिकी सरकार तो दवाब बनाएगी ही क्योंकि इनका कारखाना है और बोईंग में काम करने वालों का रोजगार या रोजी-रोटी का सवाल है। इन्हें ऑर्डर मिलेंगे तभी तो इनकी कारखाना चलेगा। जब ओबामा पहली बार 2010 में भारत आए थे तो वो दवाब बना रहे थे कि सी 17 जो हमने खरीदे हैं, यह आप भी खरीदिए। इस ऑर्डर को जल्दी फाइनल कीजिए क्योंकि मेरे चुनाव क्षेत्र में बोइंग की फैक्ट्री है और वह बंद होने वाली है।”
इस सौदे की मंजूरी से ठीक एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद अमेरिकी कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक के सी ई ओ जेफरी इम्मेल्ट ने भारत में परमाणु उर्जा संयंत्र लगाने से साफ मना कर दिया। इसी साल जनवरी में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे पर दोनों देशों के बीच परमाणु दायित्व नियम को लेकर समझौता हुआ था। भारत इस समझौते के बाद अमेरिका से परमाणु उर्जा संयंत्र लगाने में अमेरिका सहायता की बेसब्री से उम्मीद कर रहा था।
पखवारे पहले पेंटागन के शीर्ष अधिकारी कीथ वेबस्टर ने भारत को जेट इंजन की तकनीक देने से साफ इंकार कर दिया था, वेबस्टर तकनीक सौंपने में भारत द्वारा रक्षा क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की सीमा 49 फीसदी रखने को सबसे बड़ी अड़चन मानते हैं। अमेरिकी उद्योग जेट इंजन के क्षेत्र में भारत में नए अवसर मिलने पर उत्साहित लेकिन वेबस्टर के कहते हैं कि इस उत्साह का यह मतलब नहीं कि हम अति उत्साह में बीते 70 साल से अरबों डॉलर खर्च करके अमेरिकी कंपनियां ने जिस बौद्धिक संपदा का विकास किया है वह इस तरह सौंप दे। यह नहीं होनेवाला।” बोइंग इंडिया भारत में किसी भी तरह की मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट लगाने से पहले ही इंकार कर चुका है।
प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिकी यात्रा के दौरान इस मुद्दे पर क्या नतीजा निकलेगा पता नहीं पर इस बात की चर्चा होगी। क्या प्रधानमंत्री 49 फीसदी के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नियम के तहत ओबामा को अमेरिकी कंपनियों से भारत में निवेश करने का दवाब बनाने की बात कहेंगे? यह मसल राजनीति नहीं है कि मोदी या ओबामा एक तरफा फैसला ले लें, जो कंपनी पैसा लगाना चाहती है, फैसला वही करेगी। उसे 49 फीसदी नियम के तहत निवेश करना मंजूर है कि नहीं वही तय करेगी। अमेरिकी सरकार और अमेरिकी कंपनियों का यह रवैया बताता है कि इसमें अमेरिका की मजबूरी ज्यादा है। अमेरिका को अपनी कंपनियों को ऑर्डर दिलाना बहुत जरूरी है जबकि भारत को अपनी वायु सेना के लिए लड़ाकू विमान की जो जरूरत है वह फ्रांस या रूस से भी पूरी हो सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)