मजदूरों को और मजबूर बनाने की सरकारी साजिश
कुछ खास कॉर्पोरेट घरनों की मदद से सत्ता में आयी सरकार उद्योगपतियों के हाथों बिकी हुई है और उन्हें मजदूरों के हितों की बलि देकर खुश करना चाहती है। श्रम कानूनों में प्रस्तावित बदलाव तो यही बताता है।
लगता नहीं है कि कार्पोरेट भक्त मोदी सरकार के हाथों देश के संगठित क्षेत्र के मजदूर अब बच पायेंगे। नये प्रस्तावित श्रम कानूनों को देख कर साफ है कि सरकार मजदूरों को बंधुआ और गुलाम से भी बदतर समझती है और कार्पोरेट के लिये उसे चारे या बलि के बतौर पेश कर रही है। ‘श्रम सुधार’ के नाम पर वास्तव में मोदी अपने चुनावी वादे के मुताबिक कॉर्पोरेट घरानों को लाभ पहुंचाना चाहते हैं। जिन श्रम कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव किया है उन के बारे में सरकार कहती है कि ज्यादातर श्रम कानून 50 साल से भी ज्यादा पुराने हैं और अब अप्रचलित हो चुके हैं, आर्थिक सुधार नीतियों द्वारा नियत विकास के रास्ते में रोड़ा न बनें इसलिये श्रम कानूनों में भी सुधार की जरूरत है, पुराने कानूनों को साथ मिलाकर नया श्रम कानून बनाया जाएगा और इससे पुराने पड़ चुके बेकार और उद्यमी विरोधी कायदों में बंधे उद्योग जगत को निर्बाध बढ़ने का भरपूर मौका मिलेगा। यह बढ़े तो रोजगार बढेगा और क्रय शक्ति। क्रय शक्ति बढी तो बाजार और अर्थव्यवस्था बढेगी और यह सब बढ़ा तो देश बढ़ेगा। कुल मिलाकर देश की प्रगति में मजदूर और पुराने मजदूर कानून ही रोड़ा हैं और इन्हें बदलना पड़ेगा।
श्रम मंत्री तो क्या केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह तक मानते हैं कि कुछ श्रम कानून कामगार तथा नियोक्ताओं के कल्याण में ‘अड़चन’ हैं, इसीलिये केन्द्र 44 साल पुराने श्रम कानूनों पर पुनर्विचार कर रहा है और जरूरत पड़ने पर अप्रासंगिक कानूनों को खत्म किया जाएगा। इस बात में सच्चाई कितनी है यह इसी से समझा जा सकता है कि यह बात कोई मजदूर संघ या मजदूरों के स्थिति पर काम करने वाला नहीं बल्कि सरकार कह रही है। इस नए कानून के खिलाफ 11 ट्रेड यूनियन डट गए हैं जिसमें खुद बीजेपी से जुड़ी भारतीय मजदूर संघ भी शामिल हैं। असल में वे ऐसे कानून हैं जिनके अंर्तगत श्रमिक पिछले साठ साल से सुविधाएं और लाभ प्राप्त करते चले आ रहे थे। मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते स्थानीय श्रम कानूनों को मजदूर विरोधी बनाया था इसीलिये कॉर्पोरेट को उम्मीद है कि वे दिल्ली में भी ऐसा करने से नहीं हिचकेंगे। सबको उम्मीद है यह जल्द ही होगा। जाहिर है कि अच्छे दिन आ गये हैं लेकिन गरीब मजदूरों के नहीं, बल्कि देशी-विदेशी सरमायेदारों के लिये।
मोदी की जीत के बाद से देश में श्रम कानूनों में बदलाव की उम्मीद लगाये कॉर्पोरेट जगत चट्टे-बट्टे खुशी जताते हुए कह रहे हैं कि मोदी जी ‘छोटी सरकार, बड़ा शासन’ का वादा बहुत अच्छे से निभा रहे हैं। गोल्डन शैक्स ने तारीफ करते हुए कहा कि मोदी जी गुजरात जैसी श्रम कानून बदलाव केंद्र में कर दें तो देश का विकास सुनिश्चित है। वर्ष 2004 में गुजरात में औद्योगिक विवाद अधिनियम के प्रावधानों में मजदूरों के खिलाफ श्रम कानून में मनमाना और एकतरफा बदलाव किया गया था। नतीजतन नियोजकों को यह छूट मिल गयी कि किसी को एक माह का नोटिस देकर काम से निकाल दें। भाजपा शासित राजस्थान ने भी ऐसे संशोधन किए हैं जो श्रमिकों के हितों के विपरीत हैं। इसके साथ ऐसे संस्थानों के नियोजकों को छंटनी, ले-ऑफ तथा क्लोजर आदि घोषित करने में भी आसानी हो जाएगी क्योंकि अब उन्हें सरकार से पूर्व अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी। मध्यप्रदेश इस मामले में सबसे आगे है।
देश के हो चाहे विदेश के, हर जगह के मुनाफाखोर पुराने कानूनों को बांधा मानते हैं और सरकारों पर खुली छूट देने वाले “लचीला” नया कानून बनाने का दबाव बनाते रहे हैं। इस मुद्दे पर हर जगह के हर तरह के पूँजीपति एकजुट हैं। जैसे भत्ते बढाने पर नेता, कार्पोरेट के धन पर चुनाव लडने वाले दलों की सरकारें तो क्या शासन-प्रशासन व न्यायपालिका तक इनके हित में खड़ी हो रही हैं। कुल मिलकर यह संशोधन श्रमिकों के अधिकारों को कमजोर करने वाले हैं। शायद इसका मकसद नियोक्ताओं व कॉर्पोरेट घरानों को बिना किसी जिम्मेवारी व जवाबदेही के आसानी से अनापदृशनाप मुनाफे कमाने के लिए रास्ता खोलना है, जबकि श्रम कानूनों में बदलाव के पीछे मोदी सरकार का तर्क है कि इनमें सुधार किए बिना देश में बड़े विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा इसके पीछे मैन्यूफैक्चरिंग की धीमी रफ्तार को तोड़ने, रोजगार के नए अवसर सृजन का तर्क भी दिया जा रहा है। हालांकि दबी जुबान से ही यह भी कहा जा रहा है कि मजदूर संगठन श्रम कानूनों का इस्तेमाल निवेशकों को प्रताडि़त करने के लिए करते हैं।
यह बदलाव इसलिये भी कि स्वदेशी की जड़ में मट्ठा डालने वाला “मेक इन इंडिया” का नारा परवान चढ सके। विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां मनमाने ढ़ंग से कारखाने चला सकें और इस देश के अब तक के श्रमिक कानूनों में जो सुविधाएं और लाभ श्रमिकों को मिलते थे उनसे उन्हें वंचित किया जा सके। इसीलिए संस्थानों के रोजमर्रा का काम ठेका श्रमिकों से कराने, ट्रेड यूनियनों को कमजोर करने, श्रमिकों को निकालने और छंटनी, ले-ऑफ, क्लोजर जैसी प्रक्रियाओं को आसान बनाने की कोशिश है। बिडंबना यह है कि इन श्रमिक विरोधी संशोधनों को श्रम सुधारों के नाम पर किया जा रहा है जबकि दरअसल यह श्रमिक सिधार कार्यक्रम है। यह भी कि सरकार निवेश में बेहद जरूरी वृद्धि और नई नौकरियों का सृजन चाहती है, ऐसे में इन कानूनों का सरलीकरण जल्द होना चाहिए। मोदी सरकार की अगली बड़ी चुनौती जीएसटी ही नही, बल्कि श्रम कानून भी हैं।
सरकार के लिए मजदूरों के हित नहीं वरन देशी, विदेशी पूंजी निवेश ज्यादा महत्वपूर्ण है। श्रम कानूनों में सुधार का फायदा मुनाफा कूटने में लगी रहने वाली देशी-विदेशी कंपनियों को ही मिलेगा, मजदूरों से उनकी बेहद कम आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा भी छीना जा रहा है। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि विनिर्मान में धीमी गति और नए रोजगार बनाने में श्रम कानून बाधक हैं। धीमी मैन्यूफैक्चरिंग और बेरोजगारी की समस्या तो पूंजीवादी प्रणाली की देन है।
अभी तो ये शुरुआत है, इसके बाद यूनियन बनाने के नियम और कठोर किये जायेंगे। इसमें कम से कम 30 फीसदी कार्यरत श्रमिकों की भागेदारी अनिवार्य करने के साथ ही बाहरी लोगों को यूनियन सदस्य बनाने की सीमा कम करने की तैयारी है। श्रमिकों को किसी भी विरोध या आन्दोलन के संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने की कोशिशें पिछली सरकार के समय से ही जारी हैं, वह अब तेज होंगी। औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947 को भी पंगु बनाने के प्रयास गति पकड़ चुकी है।
1993 में देश में असंगठित क्षेत्र के मजदूर 93 प्रतिशत थे संगठित क्षेत्र के 7 प्रतिशत। तब से लेकर आज तक संगठित क्षेत्र लगातार सिकुड़ा ही है। अगर इसी आंकडे को सच मान जाये तो श्रम कानून महज 5 से 7 फीसद मजदूरों को ही प्रभावित करते हैं बाकी तो वैसे भी बदतर जीवन जीने के लिये मजबूर है। आज के दौर में जब मजदूरों को और ज्यादा सहूलियतें व नौकरी की सुनिश्चितता चाहिए, भीषण महंगाई के समुचित वेतन चाहिए, वहाँ मोदी सरकार कोढ में खाज पैदा करने में लगी है। मजदूर कानूनों में प्रस्तावित बदलाव मजदूरों को इस्तेमाल करो और फेंको वाली चीज बना देने वाले हैं। मजदूर बुरी तरह पिसेगा और न तो कोई उसकी सुनने वाला होगा, न ही उसकी तरफ से कोई लड़ने वाला, कमजोर कानून, विरोधी सरकार, पंगु पड़ी यूनियनें, कुल मिलाकर मोदी मजदूरों को और मजबूर बनाने वाले हैं।