ऑपरेशन अक्षरधाम- ’गम्भीर चिन्तन के लिए आमंत्रित करता एक शोधपरक दस्तावेज’
ऑपरेशन अक्षरधाम (हिन्दी एवं उर्दू)
लेखक- राजीव यादव, शाहनवाज आलम
पृष्ठ- हिन्दी-236, उर्दू-230 मूल्य- 250 रूपये
मुद्रक- फारोस मीडिया एंड पब्लिशिंग प्रा० लि० नई दिल्ली
उन्नीस अध्याय वाली यह पुस्तक सुनी सुनाई चीजों पर या मीडिया में आने वाली खबरों के आधार पर नहीं बल्कि सरकारी दस्तावेजों, प्रत्यक्षदिर्शियों और भुक्तभोगियों द्वारा उपलब्ध करवाए गए सबूतों की बुनियाद पर लिखी गई है। लेखकों ने गुजरात और कश्मीर, जहां न केवल तथ्यों को छिपाया गया बल्कि उसे मिटाने की हर संभव कोशिश की गई, से जिस तरह से सबूतों को इकट्ठा किया जिसको रोकने के लिए गुजरात क्राइम ब्रांच ने उनको उठाया तक, यह तस्दीक करता है कि लोकतंत्र में सत्य को सामने लाना कितना मुश्किल हो चुका है। कुल मिलाकर इस किताब का हर अध्याय बेहतरीन शोध और विश्लेषण का नमूना है। प्रख्यात मानवाधिकार नेता गौतम नवलखा के शब्दों में ’’यह पुस्तक अक्षरधाम मामले का एक अनुसंधानपरक और मुकम्मल परदाफाश है। इस पुस्तक में हर पन्ना विवरणों से भरा हुआ है ….’’। आतंकवाद को जिस तरह से संचार माध्यम एक सनसनीखेज घटना बना देते हैं, ऐसे दौर में ’आॅपरेशन अक्षरधाम’ तात्कालिक समय की सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों का एक विश्लेषणात्मक दस्तावेज है।
इस किताब में अक्षरधाम मंदिर पर हमला और घटना स्थल से जुड़े हुए अंतर्विरोधों का जायजा लिया गया है और सूक्ष्मता से प्रथम सूचना रिपोर्ट, घटना स्थल और मारे गए कथित आतंकियों के शवों के पंचनामें की विसंगतियों को उजागर किया गया है। साथ ही ऐसे सवाल उठाए गए हैं जो जांच एजेंसी के दांत खट्टे कर देने के लिए काफी हैं। किताब में जांच एजेंसियों की भूमिका पर विस्तार से बहस की गई है और यह दर्शाया गया है कि किन परिस्थितियों में 24 सितम्बर 2002 को होने वाली इस घटना की जांच पहले क्राइम ब्रांच ने शुरू की, फिर दस दिनों के भीतर एटीएस गुजरात को सौंपी गई और फिर अचानक कोई कारण बताए बिना ग्यारह महीने बाद वापस क्राइम ब्रांच के सुपुर्द फिर कर दी गई। जिस घटना की जांच में ग्यारह महीने में कुछ भी हाथ नहीं लगा क्राइम ब्रांच को जांच मिलने के चैबीस घंटे के अंदर कई गिरफ्तारियां करके केस को हल कर देने का दावा कर दिया गया। कथित आरोपियों से कबूलनामें भी हासिल कर लिए गए। इसी बीच कश्मीर पुलिस ने दावा कर दिया कि अक्षरधाम हमले का आरोपी उसकी गिरफ्त में है। गुजरात क्राइम ब्रांच की कहानी के सामने अब एक नया संकट खड़ा हो गया था। उसने चांद खान को कश्मीर से अपनी हिरासत में ले लिया। एक और कबूलनामें के साथ कहानी में नया मोड़ आ गया। लेखकों ने सारे दस्तावेजी सबूतों और उनके तार्किक विश्लेषण से यह साबित किया है कि आरोपियों को पहले ही गैरकानूनी हिरासत में रखकर प्रताडि़त किया गया। उनसे पुलिस की कहानी के मुताबिक कबूलनामंे हासिल किए गए थे और सबूतों के साथ छेड़छाड़ की गई थी। जांच एजेंसियों के इसी रवैये पर गौतम नवलखा इस किताब की प्रस्तावना में लिखते हैं ’’एजेंसियों के बीच आतंकी साजिशों को बेनकाब करने की एक तरह से होड़ मच गई है जिसके नतीजे के तौर पर एक ही अपराध के लिए कई अपराधियों के पकड़े जाने का चलन हम देख पा रहे हैं। मसलन, अक्षरधाम मामले में गुजरात पुलिस, जम्मू-कश्मीर पुलिस और सीमा सुरक्षा बल के बयान अलग-अलग हैं। यह एक तरह का दोगलापन है, जिसका सीधा अर्थ यह है कि भारत में सभी भारतीयों पर कोई एक दंड विधान लागू नहीं होता’’।
अक्षरधाम मामले की पोटा अदालत में सुनवाई के बाद आरोपियों में से तीन को मृत्यु दंड, एक को अजीवन कारावास और दो अन्य को क्रमशः दस और पांच साल की सजा सुनाई गई। गुजरात हाईकोर्ट ने उस सजा को बहाल रखा। अन्त में 16 मई 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों को दोष मुक्त करते हुए रिहा किया और पोटा अदालत एंव गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले के साथ-साथ गुजरात सरकार के गृहमंत्री (उस समय गृह मंत्रालय का कार्यभार नरेंद्र मोदी के पास था) की भी तीखी आलोचना की। लेखकों ने बहुत विस्तार से अदालती कारवाइयों का भी जायजा लिया है और पाया है कि किस प्रकार राज्य मशीनरी अपने पक्ष में जांच एजेंसियों का इस्तेमाल करती है और अब अदालतें भी इससे अछूती नहीं रह गई हैं। गौतम नवलखा ने अपनी प्रस्तावना में सख्त टिप्पणी करते हुए लिखा है ’’…. जब पहली बार चार्जशीट पोटा अदालत के समक्ष पेश की गई तो उसने उसे फाड़ कर फेंक क्यों नहीं दिया? या फिर इसका अर्थ यह लगाया जाए कि विशेष अदालतें हमारे सुरक्षा तंत्र के ही एक विस्तार के तौर काम करती हैं जहां साक्ष्य से जुड़े नियम-कानून लचर पड़ जाते हैं’’।
इस किताब के दो अध्याय में ’कैपेबिलिटी डेमोंस्ट्रेशन टेस्ट’ (क्षमता प्रदर्शन) पर बहुत ही रोचक लेकिन गंभीर बहस मौजूद है। यह कैपेबिलिटी डेमोंस्ट्रेशन टेस्ट खुफिया एंव जांच एजेंसियों द्वारा किया जाता है। बिल क्लिंटन की भारत यात्रा के समय छत्तीसिंह पुरा का उदाहरण देते हुए और खुफिया विभाग में काम कर चुके एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के हवाले से इसे समझाने का प्रयास किया गया है। आतंकी किरदार अबू तलहा पर मशहूर डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर संजय काक का उल्लेख करते हुए ऐसे तमाम किरदारों की तरफ इशारा किया गया है जो आतंक से लड़ने वाली एजेंसियों के लिए अक्सर वारदातों के बाद संकट मोचक बनकर सामने आ जाते हैं और फिर रहस्मयी तरीके से गायब भी हो जाते हैं।
कुल मिलाकर आतंकी घटनाएं, जांच, गिरफ्तारियां अदालती फैसले और इन सब के राजनीतिक निहितार्थ पर सार्थक बहस के साथ ही यह किताब हमें कुछ सकारात्मक करने के लिए प्रेरित भी करती है। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडि़या इस किताब पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिखते हैं ’’अक्षरधाम की घटना का अन्वेषण बेहद तथ्यात्मक और तार्किक रूप से किया गया है। पूरी दुनिया में लोगों के खिलाफ छेड़े गए एकतरफा युद्ध के इस अध्याय का यह बारीकी से प्रस्तुत किया गया विवरण भी है और लोकतांत्रिक और समानता पर आधारित शासन व्यवस्था की खोज की दीर्घकालिक जरूरत का दस्तावेज भी’’।