लखनऊ की कलाओं को सारी दुनिया में परिचित कराने की जरूरत है
भारतीय शोधकर्ता सबीह अहमद से आरिफ नकवी (बर्लिन) का साक्षात्कार
पिछले सप्ताह बर्लिन हमबोलट विश्वविद्यालय इतिहास विभाग में एक महत्वपूर्ण कार्यशाला का आयोजन किया गया। जिसका उद्देश्य था इतिहास के ट्रांस विजुअल अध्ययन में सहयोग। भारत से सबीह अहमद को इसमें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था जो दिल्ली में कला और इतिहास से संबंधित एक अंतरराष्ट्रीय फर्म के वरिष्ठ शोधकर्ता हैं। विगत 9 जुलाई को सबीह अहमद साहब मेरे गरीब खाने पर तशरीफ़ लाए, जहां उनसे लंबी बातचीत करने का मौका मिला।
सबीह अहमद साहब का संबंध लखनऊ से है। वह नक्खास में अहमद मंजिल में रहते थे और लखनऊ की संस्कृति और कला से बहुत प्रभावित हैं। उनके विचार से इस बात की जरूरत है कि लखनऊ की कला को देश और विदेश में अधिक से अधिक परिचित कराया जाय और लखनऊ में भी आस पास की कलाओं को पेश किया जाए। बर्लिन की कार्यशाला में, जिसमें कुवैत, यूनाइटेड अरब अमीरात, शारजाह, लेबनान, मिस्र, इराक और भारत आदि के प्रतिनिधि शामिल थे इस बात पर बहसें हुईं कि विभिन्न देशों की कला और इतिहास पर जो शोध कार्य हो रहे हैं उनकी समीक्षा की जाय और विशेष रूप से सफ़रनामों से अधिकतम लाभ उठाया जाए।
मेरे एक सवाल के जवाब में सबीह अहमद साहब ने बताया कि उन्हें बर्लिन के एक केंद्र ने जिसका नाम नाम ट्रांसविजुआनाल स्टडीज फोरम है, हमबोलट विश्वविद्यालय की इस कार्यशाला में बुलाया था। इसमें वे इतिहासकार शामिल थे जो ट्रांसविजुआनाल स्टडीज पर शोध कर रहे हैं।
” अब तक इतिहास अपने मुद्दों को लेकर लिखा गया है। जबकि यदि बीसवीं सदी के इतिहास को देखें तो जितने आपसी तबादले हुए हैं, लोगों ने यात्रा की है, ज्ञान का आदान-प्रदान हुआ है उनका शोध कम रहा है। हालांकि उनका महत्व और भी बढ़ गया है। जितने देश एक दूसरे से अलग हो रहे हैं, युद्ध लड़ रहे हैं उन्हें दूर करने का तरीका यह भी है कि आप समझें कि यह देश हमेशा से विवाद नहीं करते थे बल्कि आपस में मेल-जोल भी था। बीसवीं सदी में मेलजोल अलग तरीके से कला पर हावी हुए हैं, राष्ट्रों को करीब लाने के और यह समझने के लिए कि इतिहास देशों में अलग नहीं होता बल्कि बहुत कुछ समझाता है जिससे आपसी समझ बढ़ती है और दुनिया एक सी लगने लगती है। ”
” आपके यह चार पांच दिन यहाँ कैसे गुजरे? ”
इस सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि ” मैं यहाँ 5 जुलाई को आया। पहले दिन शहर को देखा। 6 और 7 जुलाई को उस कार्यशाला में व्यस्त रहा। जिसका शीर्षक था:Writing history of new middle east and art and architecture| आज का इतिहास जो लिखा जाएगा वह पचास साल, बल्कि दस साल बाद कैसे पढ़ा जाएगा। इसी विषय पर सारी बहसें और लेख पढ़े गए, जिसमें मैंने भी लेख पढ़ा| मेरा विशेष फोकस था कला शिक्षा और कलाकारों की यात्राएं क्योंकि उनके साथ उनके विचारों ने भी यात्रा की। ”
इस वक़्त सबीह साहब क्या काम कर रहे हैं और कहाँ based हैं?
इसके बारे में उन्होंने बताया कि ” भारत के बीसवीं सदी की कला की आर्काइव बना रहा हूँ। मेरा काम पिछले पांच साल में यह रहा है कि अनुसंधान करूँ कि कला के क्षेत्र में क्या लिखा गया है? कलाकार किस सोसायटी से आते हैं? मैं अपने लेख में आर्काइव का काम प्रस्तुत किया और फोकस यह रखा कि कला की शिक्षा जो भारत में है और जो आर्ट कॉलेज हैं, केवल ब्रिटिश समय के कॉलेज मद्रास और कलकत्ता के ही नहीं, बल्कि शांति निकेतन 1920 या बड़ौदा 1950 और लखनऊ आदि उनकी हिस्ट्री क्या है।? किन अवधारणाओं से शुरू किए गए और वहां क्या पढ़ाते थे? ”
” आज के जमाने में लोग समझते हैं कि कलाकार का काम केवल कला है। कवि का काम केवल कविता करना है। शिक्षक काम केवल पढ़ाना है। जबकि उसका काम सीमित नहीं है। एक कलाकार पढ़ाता भी है, कविताएं भी लिखता है और दूसरे काम भी करता है। आज यह जरूरत और भी है कि हम उनके कामों को समझें। ”
इस सवाल के जवाब में कि ” आपके लेख पर कार्यशाला में शामिल अन्य शोधकर्ताओं की राय क्या थी? ”
सबीह साहब ने बताया कि उन्होंने ” बहुत रुचि ली। सबसे अधिक इस कार्यशाला में मज़ा लोगों को इस बात पर आया कि इस तरह के इतिहास कैसे एक दूसरे को ओवर लैप कर रही हैं| उन्होंने इस बात में भी बहुत रुचि ली कि इंडिया में भी यह सब काम हो रहे हैं। ”
” जिन लोगों ने कला को छोड़ दिया है, क्या उन कारणों पर भी आपने विचार किया है? ”
इस सवाल के जवाब में सबीह अहमद साहब ने कहा कि ” मेरे पास ऐसे हजारों कलाकारों के नाम हैं, जिन के बारे में अभी कोई बात नहीं करता। इस तरह के शोध शुरू नहीं हुए है। लेकिन मैं समझता हूं कि इस पर काम होना चाहिए। यह एक बड़ी फील्ड है। ऐसा लगने लगा है कि जो कलाकार बाजार में हैं वही कलाकार हैं। बाकी अच्छे कलाकार नहीं हैं। यह बहुत गलत धारणा है। ”
मैं अपने कमरे में राखी हुई एक मूर्ति की ओर इशारा करते हुए सबीह साहब से पूछा: ” यह मूर्ति, मेरी फुफेरी बहन ने बनाया है, जिसने लाहौर जाने के बाद अपनी कला से किनारा कर लिया है। आप का क्या विचार है? ”
” यह क्लासिकल मूर्ति है। ” उन्होंने सराहना करते हुए कहा, ” महिलाओं का जो योगदान हो सकता था, वह होते होते रह गया। मसलन महिलाए आर्ट्स कॉलेज में भर्ती हुईं। उन्होंने अच्छा काम किया। मगर जब शादी हुई तो घर चलाओ। दनिया कहाँ से कहां पहुंच गयी है लेकिन हमारे वहाँ यह सब समस्याए अभी भी हैं। ”
बर्लिन के बारे में उन्होंने बताया कि जर्मन इतिहास के बारे में बहुत कुछ पढ़ चुके थे। वह यहां के विभिन्न स्थानों पर गए और लोगों ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया।
उन्होंने अपने बारे में बताया कि उनका घर लखनऊ में नक्खास में अहमद मंजिल में है। जबकि वह पले बढ़े सऊदी में हैं। पिता इरफान अहमद साहब ख़ुद भी कविता में रुचि लेते हैं और मां चित्रकारी में। ” उन्हीं ने मेरे अंदर चित्रकारी का शौक पैदा किया। यही चीजें हैं जो मुझे घर से लखनऊ से मिली हैं उन्हीं के बारे में अधिक अधिक लिखना चाहता हूँ। ”
मेरे इस सवाल के जवाब में कि लखनऊ की कौन सी कलाएँ है, जो जर्मनों के दिलों को छू सकती हैं? ” सबीह साहब ने कहा:
” यह काम तो आपने बहुत पहले शुरू कर ही दिया है। इसका जवाब भी दिखा चुके हैं, साहित्य में जो योगदान आपने यहाँ किया है, यहां लाए हैं और आपका काम प्रकाशित हुआ है anthology में वह तो है ही। फीचर, बोलने का ढंग या लिखने की परंपरा, लखनऊ का साहित्य। लेकिन इसके साथ साथ लखनऊ की अन्य सभी कलाएँ जिनमें नृत्य व संगीत आदि के साथ चिकन, ज़रदोज़ी, और कई अन्य कलाएँ भी हैं उन सब को भारत के अंदर भी और बाहर भी परिचित कराना चाहिए और सोचना चाहिए कि कैसे उन्हें स्थापित रखें और नया रूप दें, क्योंकि परिवर्तन को रोका नहीं जा सकता। यह अचार वाली मानसिकता नहीं चलेगी। ”
” कुछ लोगों को लगता है कि लखनऊ की संस्कृति और कला समाप्त हो रहे है भाषा और कला नहीं रहेगी| इस बारे में आपका क्या विचार है?
” सबीह अहमद साहब का जवाब साफ था: ” मुझे तो उलझन होती है जब लोग कहते हैं कि खत्म हो रहा है। मैं यह मानता हूं कि नई पीढ़ी पर उनकी वैल्यू वैसी नहीं रहेगी जैसी पहले थी लेकिन मुझे उनके अस्तित्व पर पूरा भरोसा दरअसल मूल्यों को इस तरह पेश नहीं किया जा रहा जैसे करना चाहए.कछ ही लोग उन्हें समझ पाते हैं और बात करते हैं। इसलिए दूसरों की रुचि कम होती है। दरअसल वही लोग जो कहते हैं कि खत्म हो रही है उसकी रक्षा भी इसी तरह कर रहे हैं कि बस वही समझ सकते हैं, उनके अलावा कोई दूसरा नहीं समझ सकता। हमें ऐतिहासिक परिवर्तन द्वारा अपनी कार्यविधि को बदलना चाहिए। ”
सबीह अहमद साहब ने अपने बारे में बताया कि उन्हें लखनऊ छोड़े हुए 12 साल हो गए हैं। पढ़ाई उन्होंने ने बड़ौदा में की, फिर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में दिल्ली में। अब पिछले पांच साल से एक आर्ट आर्गेनाईजेशन के साथ जुड़े हैं जिसका मुख्यालय हांगकांग में है, लेकिन वह दिल्ली में रहते हैं, आर्गेनाईजेशन के प्रतिनिधि और वरिष्ठ शोधकर्ता हैं और इस समय इंडिया की आर्काइव और बीसवीं सदी की आर्काइव तैयार करने में व्यस्त हैं। उनकी इच्छा है कि कुछ
समय के लिए लखनऊ में रहकर और आर्ट कॉलेज और यूनिवर्सिटी से संपर्क करके लखनऊ की कला पर कुछ शोध कार्य करें खासतौर से आर्काइव के क्षेत्र में।