निजी क्षेत्र में मिले दलितों को आरक्षण: सुभाषिनी अली
लखनऊ। दलित शोषण मुक्ति मंच उ0प्र0 का प्रथम राज्य स्तरीय सम्मेलन आज अमीरूद्दौला इस्लामिया कालेज लालबाग लखनऊ के सभागार में आयोजित हुआ।
सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए सीपीआई (एम) की पोलित ब्यूरो सदस्या व पूर्व सांसद सुभाषिनी अली ने कहा कि उत्तर प्रदेश में दलित उत्पीड़न और शोषण सबसे ज्यादा है। यह बातें आंकड़ों से दिखायी भी पड़ती हैं। विभाजन और भेदभाव खत्म करके ही दलितों में व्यापक एकता का निर्माण किया जा सकता है और उनकी मुक्ति संभव की जा सकती है। विभिन्न काम करने वलोां के बीच विभाजन और भेदभाव खत्म करके ही उ0प्र0 में एक सशक्त समतावादी आंदोलन का निर्माण करना होगा। उन्होने कहा कि जाति उत्पीड़न और अन्य मुद्दों पर मंच को सक्रिय संघर्ष करना होगा। एक-एक घटना की तहकीकात कर आंदोलन चलाना होगा।
उन्होने आगे कहा कि निजी क्षेत्र में दलितों को आरक्षण का मुद्दा जरूरी हो गया है। इस हेतु संसद द्वारा कानून बनाने की तुरन्त आवश्यकता है। दलितों हेतु आरक्षित नौकरियों में ग्रुप ए, बी, सी में क्रमशः 10.15, 12.67, 16.15 फीसदी ही दलित हैं, रिक्त स्थान भरने की बजाय सैकड़ों पद समाप्त कर दलित आरक्षण पर हमला बोला गया है। प्रदेश सरकार ने दलितों को सरकारी सेवाओं में पदोन्नति में मिलने वाले आरक्षण को खत्म कर दलित विरोधी मानसिकता का प्रदर्शन किया है। सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण के चलते अनुसूचित जाति, जनजाति आरक्षण पंगु बनकर रह गया है। स्वास्थ्य व शिक्षा में बढ़ते निजीकरण व व्यापारीकरण के कारण दोनों ही क्षेत्रों से दलितों को वंचित रखने की योजना है। उदारीकरण की नीतियों से विभिन्न क्षेत्रों में पूंजीपतियों, ठेकेदारों, माफियाओं का दबदबा बढ़ गया है, ऐसी परिस्थितियों में दलितों के पहले से खराब हालात और बदतर होते जा रहे हैं।
अनुसूचित जाति/जनजाति सब प्लान के तहत आवंटित बजट में केन्द्र सरकार ने कटौती की है। जहां 2014-15 के बजट में 82,935 करोड़ रूपये आवंटित किये गये थे वहीं बीजेपी के नेतृत्ववाली केन्द्र सरकार ने वित्तीय वर्ष 2015-16 के बजट आवंटन इस मद में 50,830 करोड़ रूपये आवंटित किये हैं। यानि की कुल 32,105 करोड़ रूपये की भारी कटौती की है। जबकि अनुसूचित जाति/जनजाति की आबादी के अनुपात में धनराशि आवंटित होनी चाहिये। मोदी सरकार के इस कदम से दलितों के विकास पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ेगा। आर एस एस के इशारे पर चलने वाली मोदी सरकार का यह कदम दलित विरोधी मानसिकता को दर्शाता है। इसके साथ ही सरकार ने सामाजिक क्षेत्र से जुड़ी शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी उन्मूलन, महिला एवं बाल विकास आदि से जुड़ी योजनाओं में भारी वित्तीय कटौती की है, इन कटौतियों से समाज के वंचित तबकों खासकर दलितों, महिलाओं तथा गरीबों के विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके साथ ही पूंजीपतियों के हित में श्रम कानूनों में बदलाव करने की चल रही प्रक्रियाओं से दलित समुदाय सहित समस्त गरीब जनता और मजदूर वर्ग पर हमला बोला जा रहा है।
सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए सीपीआई (एम) के राज्य सचिव मण्डल सदस्य डा0 एस.पी. कश्यप ने कहा कि दलितों को साझा जनवादी आंदोलनों से दूर रखने के लिए राज्य में पूंजीवादी राजनैतिक दल अपना वोट बैंक पुख्ता करने के संकीर्ण हितों के लिए जाति की दुहाई दे रहे हैं। पूंजीवादी पार्टियों के नेता बुनियादी वर्गीय मुद्दों को नजरंदाज करते हैं जो कि सामंती पूंजीवादी व्यवस्था को उलटने का आधार हंै। दलितों के अंदर भी एक ऐसा तबका हो गया है जो अपने को सुपर रखने के लिए जातिगत भावनायें भरने की कोशिश करता रहता है। वर्णव्यवस्था के चक्रव्यूह व सामंती मानसिकता के तहत दलित जातियां भी आपस में ऊंचनीच, भेदभाव से ग्रसित हैं। साम्प्रदायिक व पहचान की जातिवादी राजनीति करने वाले तत्व इन प्रक्रियाओं को और गहरा कर रहे हैं व आपस में ही लोगों को लड़ाने की साजिशें हो रही हैं। हमें इन साजिशों से भी मुकाबला करना होगा। आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद व भाजपा की तिकड़ी घर वापसी, लव जेहाद, गौ हत्या जैसे मुद्दों को उठाकर साम्प्रदायिक माहौल पैदा करने की कोशिश कर रही हैं।
उन्होंने आगे कहा कि देश व प्रदेश में वर्ण और जाति व्यवस्था कुख्यात मनुस्मृति के सामाजिक नियम कायदों से संचालित रही है। जिसकी सबसे बुरी मार दलितों पर पड़ती रही है। समाज में दलित समाज सदियों से छुआछूत, भेदभाव, ऊंचनीच का शिकार रहा है। दलितों को खराब से खराब भोजन देना, तथाकथित ऊंची जातियों द्वारा जूठन देने का विधान था। उनको सार्वजनिक कुआंे से पानी भरने, मंदिरों में घुसने और सार्वजनिक शमशानों में दाह संस्कार से वंचित रखा गया। दलितों के लिए शिक्षा व ज्ञान के दरवाजे बंद ही रहे। भूमि व सम्पत्ति के स्वामित्व के अधिकारों से वंचित रखकर उनकी आर्थिक प्रगति के दरवाजे बंद ही रखे जाते रहे। यह स्थिति देश-प्रदेश में किसी न किसी रूप में आज भी बनी हुई है।
सम्मेलन का उद्घाटन कतरे हुए दैनिक हिन्दुस्तान के वरिष्ठ पत्रकार संतोष बाल्मीकि ने कहा कि सफाई कर्मियों की हालत बड़ी दयनीय है, इनके कल्याण और हित के लिए काम करने और नीति बनाने की जरूरत है। मैला ढोने वालों की स्थिति बदलने के लिए आयोगों की जो रिपोर्ट है, उन्हें सदन में चर्चा हेतु रखें और ठोस फैसले लेने की जरूरत है। उन्होंने सफाई कर्मियों को एकजुट होने की जरूरत पर बल दिया।
उन्होने कहा कि संविधान के मौलिक अधिकारों तथा अन्य कानूनी प्राविधानों को नकारते हुए ऊंचनीच, भेदभाव, छुआछूत अब भी जारी है। देश के कई हिस्सों में दलित पीने का पानी उस हैण्डपम्प से नही ले सकते जिनसे सवर्ण लेते हैं। दलित बाहुल्य गांव को छोड़कर प्राथमिक स्कूलों में दलित रसोइया का बनाया हुआ भोजन ऊंची जाति के बच्चे व अध्यापक नहीं खाते। आधे से अधिक विद्यालयों में भोजन बांटते समय दलित बच्चों को पीछे व अलग बैठाया जाता है। कई ग्रामीण क्षेत्रों में दलितों के बाल नाई नहीं काटते। बोलने के हक की आजादी भी छीनी जाती रही है। हाथ से या सिर पर मैला ढौने की कुप्रथायें आज भी जारी हैं। यदि दलित जातियों के लोग सामाजिक बराबरी और सार्वजनिक सुविधाओं के लिए अपने अधिकारों की मांग करते हैं तो उन्हें गंदी गंदी गालियों व शारीरिक हमलों का शिकार होना पड़ता है। सामंती मानसिकता वाले गुण्डा गिरोह दलितों की मारपीट, हत्या, महिलाओं से बलात्कार, आगजनी जैसे अपराध करने से जरा भी नहीं हिचकते हैं।
सम्मेलन में प्रस्ताव रखते हुए दलित शोषण मुक्ति मंच के राष्ट्रीय समन्वय समिति के सदस्य बी.एल. भारती ने कहा कि उत्तर प्रदेश में 2014 में घटी दलित उत्पीड़न की थानों में दर्ज घटनाओं को देखें तो बहुत गम्भीर हालात दिखते हैं। दलितों की हत्या से जुड़े 237 मामले, आगजनी से जुड़े 27 मामले, बलात्कार से जुड़े 413 मामले, गम्भीर चोटों से जुड़े 327 मामले, अन्य अपराधों से जुड़े 6573 मामले यानि अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून के अंतर्गत 7577 अभियोग दर्ज किये गये। बहुत सारी घटनाओं को थानों में दर्ज ही नही किया जाता। दर्ज घटनायें भी पूरी सच्चाई को उजागर नहीं करतीं क्योंकि पुलिस प्रशासन की सामंती मानसिकता के चलते कुछ आपराधिक घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज करने की बजाय पुलिस मामले को रफा दफा कर देती है और थाने से भगा देती है। न्याय मिलने में भी कई खामियां होने से ज्यादातर मुकदमों में देरी से सुनवाई होती है। प्रदेश में सत्ता पर काबिज रहीं भाजपा, बसपा, सपा ने एससी/एसटी एक्ट को कमजोर करने का ही कार्य किया है। वर्तमान में दलितों पर हमले और अत्याचार की घटनायें प्रदेश में बढ़ती ही जा रही हैं। दलितों पर हमले और अत्याचार की घटनाओं में प्रदेश में हो रही बढ़ोत्तरी बेहद चिंताजनक है। दलित बालिकाओं, महिलाओं के साथ छेड़छाड़, दुष्कर्म, बलात्कार, सामूहिक बलात्कार की घटनाओं आये दिन होती रहती हैं। देश भर में दलितों पर हो रही आपराधिक घटनाओं में से उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर है।
उन्होंने आगे कहा कि केन्द्र व राज्य सरकार ने भूमि सुधार कानूनों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। आज भी ऊसर, बंजर, परती, ग्राम समाज व नदियों के किनारे पड़ी और बिना पांैधो के खाली पड़ी वन विभाग की लाखों एकड़ जमीन तथा बेनामी जमीन प्रदेश में मौजूद है जिसका वितरण दलितों, खेत मजदूरों में किया जा सकता है। सरकार इस ओर ध्यान देने की बजाय उल्टे भूमि अधिग्रहण करने में लगी हुई है। उत्तर प्रदेश में दलित आबादी 4 करोड़ से अधिक है। जिसमें बड़ा भाग गरीबों का है। गहराते कृषि संकट ने ग्रामीण क्षेत्रों को अपनी जकड़ में ले लिया है। कृषि क्षेत्रों में साल भर में मिलने वाले रोजगार के दिनों की संख्या 40 दिनों से नीचे चली गयी है। इस रोजगार संकट की मार ज्यादातर दलितों पर ही पड़ रही है। प्रदेश में करीब डेढ़ करोड़ मनरेगा के तहत पंजीकृत मजदूर हंै जिसमें से 40 प्रतिशत से अधिक दलित हैं। प्रदेश में मनरेगा में औसत रोजगार में लगातार कमी आ रही है। केन्द्र सरकार ने मनरेगा के बजट में कटौती करके व इसमें ठेकेदारी और मशीन से कार्य करने की इजाजत देकर ग्रामीण मजदूरों पर हमले किये हंै। लक्षित वितरण प्रणाली के चलते करीब 56 फीसदी दलित परिवार अंत्योदय/बीपीएल कार्ड से वंचित हैं। खाद्य सुरक्षा लागू करने को सरकार बार-बार टाल रही है।
अपने सम्बोधन में बी.एल. भारती ने कहा कि उत्तर प्रदेश में कुल आबादी में करीब 24 प्रतिशत दलित हैं। आजादी के 67 साल बाद भी दलितोें की सामाजिक, आर्थिक स्थिति दयनीय बनी हुई है। दलित समाज का बहुमत विकास की दृष्टि से हाशिये पर बना हुआ है। दलित हर प्रकार से सामाजिक दमन, जातिगत भेदभाव, छुआछूत और आर्थिक शोषण का शिकार रहे हैं। अधिकतर दलित परिवार अमानवीय और कमतर हालात में जीवन जीने को मजबूर हैं। ये हर पहलू से मानव विकास के न्यूनतम पैमानों से भी पीछे हैं। सामाजिक, आर्थिक स्थिति में दलित एकदम निचले स्तर पर हैं। इनमें से अधिकतर लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रहे हैं और कुपोषण का शिकार हैं। करीब 65 फीसदी दलित परिवार पीने के पानी और साफ सफाई से वंचित हैं। 75 फीसदी दलित बच्चे व महिलायें खून की कमी का शिकार हैं। 86 फीसदी दलित या तो भूमिहीन खेत मजदूर हंै या फिर गरीब किसान हंै। बाल श्रमिकों में 88 फीसदी दलित बच्चे हैं।
प्रस्ताव पर डेढ़ दर्जन साथियों ने विचार विमर्श में हिस्सा लिया। प्रस्ताव व मांगपत्र सर्व सम्मति से स्वीकार किया गया।