बुजुर्गों को तो बस अदालतों का सहारा है, सरकार तो सो रही है !
मैं अपने बेटे से परेशान हूं…। 60 हजार रुपए किराया मिलता है और 60 रुपए भी मुझे नहीं देता है…। हम पति-पत्नी कभी रिश्तेदारों का दिया खाना खा लेते हैं, तो कभी रो कर रात बिता लेते हैं…। अपने ही घर में बेगाने हो कर रहे गए हैं हम…। अधिकारियों के पास भी हम लोग गए, मगर हुआ कुछ नहीं…। अब किसके पास जाएं, नहीं सूझ रहा है। लोग काग रहे कि अदालत के पास जाओ , पर उसके लिए भी रास्ता तो मालूम होना चाहिए । इतना कहते – कहते पटना सिटी के जयप्रकाश जी का गला रुंध गया।
इसके अलावा बात पिछले दिनों दिल्ली के नांगलोई में 76 साल की मुन्नी बेगम को उनके तीन बेटे जंजीर से बांधकर रखते थे। पिछले कई महीनों से सर्दी, गर्मी और बरसात में खुले आसमान के नीचे रह रही उस बुजुर्ग को एक एनजीओ की सूचना पर बचा कर पुलिस ने बेटों पर केस दर्ज किया। वास्तव में अपनी तरह की कोई इकलौती घटना नहीं है। ऐसा ही मामला पिछले दिनों दिल्ली हाई कोर्ट में सामने आया। 75 से अधिक वर्ष के बूढ़े माँ-बाप को घर निकाल बाहर करने वाले मामले की सुनवाई के दौरान अदालत ने वकील से पूछा कि बेटा कहाँ है, तो उसने कहा कि वह शिरड़ी दर्शन को गए हैं।
इस पर अदालत ने टिप्पणी की कि लोग कितनी अजीब पूजा करते हैं। एक तरफ अपने मां-बाप को घर से निकाल देते हैं और फिर पूजा करने शिरडी आदि पूजा-स्थलों पर जाते हैं। वकील ने कोर्ट को बताया कि बेटे को संयुक्त हिन्दू परिवार के कानून के तहत सम्पत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए। इस पर कोर्ट ने वकील को कड़ी फटकार लगाते हुए संयुक्त हिन्दू परिवार का मतलब समझाते हुए कहा कि जब आप अपने माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं तो आपका संपत्ति में कोई हक नहीं हो सकता। समाज में यह आम धारणा बनती जा रही है कि बुजुर्ग फालतू प्राणी हैं। उनकी उपेक्षा होने लगी है। अनुपयोगिता का अहसास एक व्रद्ध को जहां गतिशील सामाजिक जीवन से अलग कर रख देता है, वहीं उसके सामने सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करने की समस्या भी आ खड़ी होती है।
ऐसा नहीं है कि समाज में ऐसे परिवार बिल्कुल नहीं हैं जहां वृद्धों को पूरा सम्मान मिलता हो लेकिन ऐसे परिवारों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। हां, यह भी संभव है कि कुछ तथाकथित आधुनिक लोग जो एक ओर संयुक्त परिवार के लाभ तो लेना चाहते हैं लेकिन उसके विखंडन का दोष बुजुर्गों की रोक टोक पर डालकर अपना दामन बचाना चाहते हों लेकिन वे अपने बचपन को याद नहीं करना चाहते जब वे हमारी हर जिद्द पूरी करने को माता-पिता तैयार रहते थे। ऐसे लोग क्यों नहीं समझना चाहते कि बुढ़ापा एक तरह से बचपन का पुनरागमन ही तो है। आज जब वे शरीर से अशक्त और मन से बेचैन हैं तो क्या हम अपने कर्तव्य भुला दें?
जीवन का अखिरी चरण है। परिवार में ऐसा वातावरण बनाएं जिससे घर में बुजुर्ग को सम्मान मिल सके क्योंकि इस स्थिति में सभी को पहुंचना है, इस बात का अहसास सभी नवयुवकों को करना चाहिए। वृद्धो के पास अनुभवों, संस्मरणों, स्मृतियों के विशाल भण्डार होते हैं। उनके अनुभव हमारे लिए अमूल्य धरोहर हैं जिन्हें संजोकर रखना हमारा कर्तव्य है। साथ ही सरकार का भी यह परम कर्तव्य है कि वृद्धावस्था पैंशन, उनके पुनर्वास की योजनाएं आदि बनाकर उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करें। जीवन में सबसे उत्तम कर्म है माता-पिता की सेवा करना। माता-पिता की सेवा भगवान की पूजा करने के बराबर है। महात्मा चाणक्य ‘वृद्ध सेवाय विज्ञाननम्’ अर्थात वृद्घजनों की सेवा से विशेष ज्ञान एवं विज्ञान की प्राप्ति होती है का उद्घोष करते हैं। हमारे शास्त्रों में माता-पिता और गुरु की बड़ी महिमा बताई गई है। जो तीनों का आदर, सम्मान व सेवा करके उन्हें प्रसन्न करता है, वह तीनों लोकों को जीत लेता है। औसत आयु में वृद्घि के साथ ही, देश में बूढ़ों की संख्या में भी लगातार वृद्घि हो रही है। जब तक उनका शरीर चलता है, वे भार नहीं होते पर अशक्त होने या विपन्न होने की दशा में वे परिवार पर भार बन जाते हैं। परिवारों के टूटने पर दादा-दादी, माता -पिता तक का बंटवारा होने लगा है। उनकी छोटी-छोटी जरूरतों को लेकर भी अक्सर कलह होने लगती है। यह विचारणीय है कि आखिर हमारी संवेदनाएं इतनी मृतप्राय: क्यों और कैसे हो गईं।
आखिर हम अपने जिन बुजुर्गो का श्राद्ध अत्यंत श्रद्धा पूर्वक करते हैं, उनकी मृत्यु के पश्चात् बड़े-बड़े मृत्यु भोज आयोजित करते हैं पर जीते-जी उनकी सुध नहीं लेते? इतना सब कुछ होने पर भी हम, हमारा समाज और हमारी सरकारें राष्ट्र की इस अमूल्य धरोहर के प्रति अनमने क्यों हैं? कोई समाज अपने बुजुर्गों का तिरस्कार करके महान नहीं बन सकता।