अखिलेश यादव छींकते भी हैं तो हो जाते हैं तबादले
सत्य प्रकाश
भारत सरकार ने 28 जनवरी 2014 को आईपीएस कैडर संशोधन नियम 2014 पारित कर आईपीएस अफसरों की न्यूनतम तैनाती 2 वर्ष तय कर दी लेकिन यूपी में इस नियम का रोजाना उल्लंघन हो रहा है.
यूपी में कुल 405 आईपीएस अफसर हैं और इस प्रकार पिछले कुछ माह में आईपीएस अफसरों का औसतन 1.2 बार तबादला किया जा चुका है जबकि न्यूनतम तैनाती 2 साल निर्धारित की गयी है. इस दौरान कई अफसरों को डीजीपी कार्यालय से सम्बद्ध किया गया और कई अफसरों के आदेश निरस्त किये गए |इलाहाबाद हाइकोर्ट और राज्यपाल राम नाइक की तमाम नसीहतों और पूछताछ के बावजूद अखिलेश यादव सरकार की तबादला रफ़्तार पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। राज्यपाल राम नाइक ने कुछ महीने पूर्व प्रदेश में बड़े पैमाने पर हुए अफसरों के तबादलों पर सवाल उठाते हुए कहा कि सिर्फ अफसरों को इधर-उधर करने से कानून व्यवस्था में सुधार नहीं होगा, बल्कि इसके लिए पुलिस अफसरों और जिलाधिकारियों सहित अन्य प्रशासनिक अफसरों को बेहतर काम करना होगा। वहीँ दूसरी ओर सामाजिक कार्यकर्ता नूतन ठाकुर ने इस मामले को मुद्दा बनाते हुए हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में अवमानना का वाद दाखिल किया, तो सरकार का संकट और भी बढ़ गया। इसमें यूपी के मुख्य सचिव आलोक रंजन और अन्य वरिष्ठ अफसरों के खिलाफ अवमानना याचिका दायर की गयी है।
राज्य के मुख्य सचिव आलोक रंजन का कहना है कि अफसरों के तबादले करना सरकार का अधिकार है और सरकार को जब ऐसा लगता है कि अफसर ठीक से काम नहीं कर रहे हैं या सरकार की धारणा उनके बारे में सही नहीं है तो तबादला किया जाता है। वैसे यह सत्य है कि अखिलेश यादव की तीन साल की अवधि की सरकार ने अगर सबसे ज्यादा किसी अधिकार का इस्तेमाल किया है, तो निश्चित रूप से वह तबादले का ही अधिकार है। सूबे के तमाम वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं कि इस सरकार ने अपने आधे कार्यकाल में ही इतने ज्यादा तबादले कर दिए जितना शायद पांच साल की पूरी अवधि में भी बहुत सी सरकारों ने किया होगा । वैसे अखिलेश यादव के पिता मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री काल में भी ताबड़तोड़ तबादलों का रिकॉर्ड रहा है।
तबादलों को लेकर करीब सवा साल पहले भी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रदेश सरकार से गंभीर पूछताछ की थी, लेकिन इसका कोई खास असर सरकार की तबादला गति पर नहीं पड़ा। आदेश था कि सूबे के मुख्य सचिव 1 अप्रैल 2011 से 31 मार्च 2013 यानि दो साल की मियाद में हुए ऐसे तबादलों की जांच करें, जो नेताओं के दवाव में किये गए हैं जिससे जनता को पता चल सके कि किस नेता के कहने पर किस अधिकारी या कर्मचारी के तबादले किये गए थे। आदेश की सख्ती का अंदाजा इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मुख्य सचिव को अपनी जांच का ब्यौरा इश्तहार के जरिए अखबारों और इंटरनेट पर आम करना होगा। वास्तव में ट्रांसफर पोस्टिंग में सियासी दखल पर कोर्ट की नाराजगी काफी देर से जाहिर हुए है। सरकारी अफसरों के तबादलों में सियासत का खेल दसकों पुराना है इसलिए महज दो साल की अवधि के प्रकरणों का अन्वेषण बहुत व्यवहारिक नहीं माना जा सकता है।
यह सर्वविदित है कि उत्तर प्रदेश में पिछले 20 वर्षों से सरकारी अफसरों और कर्मचारियों के तबादलों का विषय बाकायदा संगठित उद्योग का रूप ले चुका है। प्रमुख सचिव से लेकर साधारण बाबू और कमिश्नर, डीएम, आईजी, डीआईजी, एसएसपी से लेकर प्राइमरी स्कूल के मास्टर तक के तबादलों में राजनीतिक पैरोकारी आम हो गयी है। स्वास्थ्य विभाग के छोटे-बड़े डॉक्टर हों या फिर सिंचाई, लोकनिर्माण, आरईएस, जलनिगम तथा अन्य इंजीनियरिंग सेवाओं के अधिकारी, 70 से 80 फीसदी तक तैनाती सत्तारूढ़ दल के नेताओं, मंत्रियों और विधायकों के लिखित और मौखिक सिफारिशों पर किए जाते रहे हैं। ताजा आंकड़ों के मुताबिक, बीते 7 महीनो में सूबे में शासन और पुलिस से जुड़े लगभग 600 आईएएस और आईपीएस अफसरों के तबादले किए हैं। तबादलों की इस तेज़ी पर हाईकोर्ट में अब उसे अवमानना याचिका का सामना भी करना पड़ रहा है। सूबे में ताबड़तोड़ तबादलों पर सवाल हमेशा ही उठते रहे हैं। मगर अखिलेश सरकार सवालों और न्यायालय के घेरे में तब आ गई एक साथ पुलिस के 94 आला अधिकारियों का तबादला कर दिया गया और दूसरे ही दिन उनमें से 11 के तबादलों को रद्द भी कर दिया गया। प्रदेश शासन में कानून-व्यवस्था से जुड़े सर्वोच्च पद यानि प्रमुख सचिव गृह के भी इतने ही बदलाव इस अवधि में किए जा चुके हैं।
इधर, नूतन ठाकुर ने अपनी याचिका में तबादलों के प्रक्रिया को लेकर सवाल उठाए हैं। याचिका के अनुसार, हाईकोर्ट ने 18 फ़रवरी 2014 को लोकप्रहरी की एक पीआईएल में कहा था कि आईएएस और आईपीएस कैडर संशोधन नियमावली 2014 के आने के बाद भविष्य में इन अफसरों के दो वर्षों से कम समय में तबादला सिविल सेवा बोर्ड द्वारा सम्बंधित अफसर से टिप्पणी प्राप्त करने के उपरांत लिखित रूप से कारण बताए जाने पर ही किये जाएंगे। इसके विपरीत प्रदेश में नियमों और हाईकोर्ट आदेश के सीधे उल्लंघन में रोज ट्रांसफर हो रहे हैं। इस मामले में पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने भी न्यायालय की शरण ली थी। लखनऊ बेंच में दायर अवमानना याचिका में जस्टिस डी के उपाध्याय ने याची से नियमों की अवहेलना के सम्बन्ध में दो सप्ताह में दृष्टान्त प्रस्तुत करने को कहा ताकि प्रतिवादीगण के विरुद्ध अवमानना नोटिस जारी की जा सके।
अभी बीते दिनों प्रदेश सरकार ने सत्ताशीर्ष के निकटस्थ रहे दो प्रमुख सचिवों राकेश बहादुर और संजीव सरन को एकदम से हटा दिया तो सत्ता के गलियारों में तरह-तरह की चर्चाएं रहीं । दोनों अधिकारी सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव के करीबी माने जाते रहे है। अखिलेश सरकार बनी तो इन्हें नोएडा के अध्यक्ष और सीईओ की कुर्सी पर बैठाया गया। मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री काल में भी ये दोनों अफसर इन्हीं पदों पर तैनात थे और होटल जमीन घोटाले की जांच के दायरे में हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद प्रदेश सरकार ने इन्हें लम्बे समय तक वहां से नहीं हटाया था। बाद में इन्हें मुख्यमंत्री और औद्योगिक विकास विभाग के प्रमुख सचिव जैसे अति महत्वपूर्ण पद पर बैठाया गया। कम से कम दो दर्जन ऐसे वरिष्ठ आईएस और आईपीएस अफसर भी पिछले कुछ महीनों में मुख्यधारा से बहार किये जा चुके हैं जो अच्छे -खासे समय तक सरकार नाक के बाल कहे जाते रहे हैं ।