दिल्ली के सीएम केजरीवाल का यह कहना- ‘‘रैली बंद न करके भूल की।’’ और आशुतोष के पहले के कथन – ‘‘अब कभी होगा, तो केजरीवाल को पेड़ पर चढ़ने को कहेंगे।’’ इन दोनों में कतई अपराध बोध नहीं झलकता, बल्कि सियासत के पुट स्पष्टतः दिखाई देते हैं। वास्तव में यह घटना स्टंट को हकीकत में बदलने का षड्यंत्र प्रतीत होती है। लगभग संपन्न घराने का सामाजिक कार्यकर्ता खुदकशी करने नहीं आया होगा। समझा जाता है कि मंच पर ‘‘पगड़ी विशेषज्ञ’’ के रूप में सम्मान पाने की महत्वाकांक्षा गजेन्द्र के उस काॅल से झलकती है, जिसमें उसने रैली शुरू होने से पहले अपने भाई से कहा था – ‘‘मैं मनीष जी के बुलावे पर दिल्ली में हूं, अभी टीवी पर देखना।’’ मंच पर न चढ़ने पर मनोभाव स्टंट का बना होगा और पेड़ पर चढ़ गया, ताकि मेजवान नेताओं की नजर में आ सके। इस बात का अनुमान आप का सिम्बल झाड़ू लहराते हुए देर तक पेड़ की ऊपरी डाल स्टंट करता रहा। फिर भी जब मंच ने आवाहन नहीं किया तो गमछे का फंदा डाला दोनों बांहें उसी डाल को पकड़े रही पैर को नीचे की डाल पर टिका लिए थे, फिर भी नेताओं की सियासी महत्वाकांक्षा से वह नहीं हारा, नारे लगाता रहा। दुर्भाग्य से नीचे वाली पतली डाल नारे लगाते जोशीले गजेन्द्र के भार को न सह सकी और टूट गई, डाल टूटते ही पैरों का सहारा छूटते ही वह लटक गया और इस तरह उसके प्राण पखेरू उड़ गये। फिर यह खुदकशी कैसे हो सकती? उसके परिजन और मिलने वाले लोग स्पष्ट कहते हैं कि वह आत्महत्या कर ही नहीं सकता। – Devesh Shastri Etawah