राजनैतिक चंदा : भ्रष्टाचार का लाइसेंस
सत्यव्रत त्रिपाठी
विकासशील प्रजातंत्र में सशक्त राजनीतिक दलों को प्रतियोगितापूर्ण जनतांत्रिक राजनीति का माहौल बनाना जरूरी होता है। पार्टी को इसमें टिके रहने, मुकाबला करने और जनतांत्रिक गतिविधियों से जुड़े रहने और चुनाव प्रचारों के लिए धन की जरूरत होती है। इन दिनों राजनीतिक फंड और पार्टी के लिए दान लेना समस्या बन गई है। पार्टियों को धन उपलब्ध कराने या फिर उसे मदद करने, खर्च और जनता के सामने उसका ब्योरा देने का कोई विधिवत प्रावधान नहीं है।
हालांकि कमजोर संगठन के लिए भ्रष्टाचार के जोखिम और वित्तीय कमी कोई मायने नहीं रखती है। कुछ बातों को छोड़ दें तो धन ही अपनी आवाज को बुलंद करने में पार्टियों के लिए मददगार साबित होता है। कोई भी पार्टी अपर्याप्त संसाधनों में सशक्त भागीदारी नहीं निभा पाती है। जिन पार्टियों के पास पर्याप्त संसाधन हैं, वे अपने सामाजिक आधार की बदौलत अपनी अलग पहचान बनाती हैं और अपने प्रतिद्वंद्वियों से मुकाबला करती हैं। जिन पार्टियों को कुछ ही स्रोतों से धन मिलता है, वे जनता तक अपने विस्तृत्व विचारों को नहीं पहुंचा पाती हैं। सत्ताधारी पार्टियों को “प्रशासनिक संसाधनों की भी मदद मिल जाती है” जिससे वे मित्रों को लाभ पहुंचाने और दुश्मनों को सजा दिलाने में उपयोगी साबित हो जाते हैं। विरोधी पार्टियों को राज्य की शक्ति और धन का लाभ नहीं मिलता है। मजबूत और अनुशासित जनतांत्रिक प्रणाली में पार्टी नेता व्यक्तिगत पहचान के आधार पर धन जुटा सकते हैं, अपनी पैठ बनाते हैं, पार्टी में अपने हिसाब से चर्चा आदि करा लेते हैं और धन के लिए दान देने वालों पर दबाव बनाने में सफल होते हैं, वहीं सत्तारूढ़ पार्टी के नेता इसी तरीके से अन्य व्यवस्थाओं का लाभ लेते हैं। व्यवस्थित प्रजातंत्र में, उस पार्टी और राजनीतिक का बाजार गर्म रहता है जो नीति निर्धारक और निजी मामलों के बीच बिचौलिए का काम करते हैं। इस लिहाज से इस पर रोक लगना और ऐसी बुराइयों का उजागर होना जरूरी है।
हमारा मूल उद्देश्य विकास और लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए एक सक्रिय राजनीतिक स्थिति और सशक्त राजनीतिक माहौल बनाने में संतुलित तरीके से काम करना है। विभिन्न संगठनों ने राजनीतिक फंड में पारदर्शिता का दबाव डालने के लिए अध्ययन किया है। उदाहरण के लिए, “पॉलिटिक्स हैंडबुक” में यूएसआईडी ने संबंधित मामले पर काम किया है।
भारत की स्थिति
भारत दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था है। 2014 में दुनिया ने सबसे बड़ा चुनाव देखा, जो कई मायनों में भारत की लोकतांत्रिक ताकत की झांकी था। आंकड़ों में बात करें तो इस चुनाव में अब तक की सबसे बड़ी तादाद में लोगों ने पूरे उत्साह के साथ मतदान किया। इस प्रक्रिया के दौरान अभूतपूर्व संख्या में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का इस्तेमाल किया गया और इस प्रक्रिया में तैनात किए गए अधिकारियों और सुरक्षा बलों की संख्या भी अभूतपूर्व थी, जिन्होंने सुनिश्चित किया कि भारत का सबसे बड़ा चुनावी उत्सव किसी दिक्कत के बगैर संपन्न हो जाए। यदि डाले गए मतों का आंकड़ा देखा जाए तो यह अब तक का सबसे प्रभावशाली चुनाव भी था। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि चुनावी राजनीति के इतिहास में वास्तव में यह सबसे बड़ा चुनाव था। इस चुनाव में विजयी होने वाली भारतीय जनता पार्टी को 16 करोड़ से भी ज्यादा मत प्राप्त हुए, जो दुनिया में किसी भी पार्टी को मिले वोटों से ज्यादा हैं। इस भारी भरकम कार्य को सफलतापूर्वक संपन्न करने के लिए भारत के निर्वाचन आयोग के अधिकारियों और पदाधिकारियों ने जो अथक प्रयत्न किए, उनके लिए आयोग को बधाई दी जानी चाहिए।
जो धन खर्च किया गया, उसके लिहाज से भी यह चुनाव सबसे खर्चीला चुनाव था। कई जगहों पर नोटों से भरे थैले बरामद हुए, जिनसे इस बात की पुष्टि हुई कि भ्रष्ट हरकतें हमारी चुनाव प्रणाली का हिस्सा हैं। इसके साथ ही ऐसे कई उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं और उनमें से कई ने जीत भी हासिल की। हालांकि प्रशासनिक तंत्र कमोबेश निष्पक्ष ही रहा फिर भी धांधली की घटनाएं हुईं और चुनाव आयोग तथा सर्वोच्च न्यायालय ने सभी तरह की गड़बड़ी रोकने के लिए सख्त दिशानिर्देश जारी किए थे, लेकिन यह चुनाव भ्रष्ट बातों से पूरी तरह मुक्त नहीं रह सका।
यही कारण है कि राष्ट्रीय आयोग को 2001 में संविधान की समीक्षा के बाद टिप्पणी करनी पड़ी, “चुनाव के लिए कोष की जरूरत ही भ्रष्टाचार के ढांचे की नींव बन गई है।” चुनाव में मुद्रा शक्ति (मनी पावर) की भूमिका की वजह से भारत में चुनाव व्यवस्था में सुधार इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है, जो व्यवस्था के मूल में ही एक तरह की बीमारी बन गई है।
विभिन्न संस्थानों, कमिटियों और संगठनों द्वारा कानून और अनुमोदन के रूप में तरह-तरह से कोशिशें की गईं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं :
1. संथानम कमिटी ने 1964 में और वांचू कमिटी ने 1973 में सिफारिशें की थीं। संस्थापक ने इनके रिपोर्ट को देखने के बाद पाया था कि बेहिसाबी काले धन इन भ्रष्टाचारों के सबसे बड़े स्रोत थे। राजनीतिक दलों के स्टेट फंड के लिए दोनों सिफारिशें की गई थीं।
2. रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपल्स एक्ट (आरपीए), 1951 की धारा 77 के अंतर्गत भारतीय चुनाव अधिनियम के मुताबिक, प्रत्येक उम्मीदवार को चुनाव से जुड़े सभी खर्च के सही हिसाब का खुलासा करना चाहिए और नामांकन से लेकर चुनाव परिणाम आने तक वे अपने खाते को जमा करने के लिए पाबंद हैं। इसके साथ ही, अधिनियम की धारा 123(6) के मुताबिक, चुनाव में अतिरिक्त खर्च भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है। इससे चुनाव पर होने वाले खर्च की सीमा भी कम हुई।
3. विभिन्न राज्यों में उम्मीदवारों द्वारा चुनाव पर होने वाले अधिकतम खर्च को निर्वाचन अधिनियम, 1961 के नियम 90 के तहत कम किया जा सकता है।
4. साथ ही, निर्धारित समय सीमा में चुनाव खर्च का हिसाब तैयार नहीं करने पर अधिनियम 1951 के तहत संसद और राज्य विधानसभा से सदस्यता अयोग्य करार दी जा सकती है।
5. सुप्रीम कोर्ट ऐसे कई मामलों में फैसला सुना चुका है जिनमें सवाल उठाए गए थे कि क्या राजनीतिक पार्टी या किसी उम्मीदवार का चुनाव खर्च धारा 123 की उपधारा 6 में आती है जो आरपीए, 1951 की धारा 77 में है। कनरलाल गुप्ता बनाम अमरनाथ चावला (1975(3) एससीसी 646) जैसे चर्चित मामले में सुप्रीम कोर्ट अपना विचार व्यक्त कर चुका है कि राजनीतिक पार्टी द्वारा किए गए खर्च में उम्मीदवार के चुनाव खर्च को भी जोड़ा जाना चाहिए।
6. उपर्युक्त मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, आरपीए में संशोधन किया गया था, इसलिए 1975 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द समझा जाए। स्पष्टीकरण 1 से आरपीए की धारा 77 को जोड़ा गया, जिसके द्वारा बिना मान्यता वाली पार्टी और सहयोगी के खर्च को उम्मीदवार के चुनाव खर्च में शामिल नहीं किया गया। इसके साथ ही, सुप्रीम कोर्ट के हाल के ही फैसले, जैसे, सी. नारायमस्वामी बनाम सी. के. जाफरशरीफ (1994(एसयूपीपी) 3 एससीसी 170), घड़ख यशवंतराव बनाम बालासाहेब विखेपाटिल (1994(1) एससीसी 682) और गजाणन बापत बनाम दत्ताजी मेघे (1995(5) एससीसी 437) में स्पष्टीकरण 1 के अधिनियम की धारा 77 को रद्द करने की जरूरत दुहराई गई। इसलिए विधान सभा और चुनाव आयोग को राजनीतिक पार्टियों द्वारा दिए गए खर्च के विवरण को मेनटेन करने उनसे प्राप्त फंड को सार्वजनिक करने की जिम्मेदारी सौंपी गई।
7. भारत के विधि आयोग ने 1990 बिल में पूरी तरह से निर्वाचन अधिनियम से जुड़े दस्तावेज में दुहराया है, राज्य सभा में भारत सरकार ने शामिल किया था जिसे स्पष्टीकरण 1 से आरपीए, 1951 की धारा 70 को रद्द किया गया था। आयोग ने भी राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए जाने वाले खर्च पर निगरानी रखने पर दबाव डाला था, बिना इस खामी के कि इस खर्च का हल नहीं निकाला जा सकता है। 1975 के पहले की स्थिति आज तक कायम है।
8. निर्वाचन आयोग ने 1992 में अपने प्रस्ताव को ठोस सलाह के साथ शामिल किया था जिसमें कहा गया था कि प्रत्येक राजनीतिक पार्टी को अपना वार्षिक हिसाब प्रकाशित करना चाहिए और ईसी को इसके अंकेक्षण की मंजूरी देनी चाहिए।
9. कॉरपोरेट फाइनैंसिंग के मामले में कंपनियों द्वारा दिए जाने वाले दान के प्रावधान को लेकर 1969 से पहले कोई कंपनी कानून नहीं बना था, लेकिन 1969 में एक कानून लाया गया, जिसमें किसी भी कंपनी को चुनाव में किसी तरह के योगदान देने पर प्रतिबंध लगाय दिया था। बाद में, 1985 में धारा 293 में संशोधन किया गया और कंपनियों को अपने तीन साल के औसत लाभ का 5 प्रतिशत किसी चेरिटेबल ट्रस्ट और अन्य कोष में देने की मंजूरी दे दी गई। यह संशोधन “पॉलिटिक्स में कालाबाजारी जैसी बुराई के रूप में उभरा और इससे पारदर्शिता में कमी आई और पक्षपात बढ़ने लगा।”
राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग के मामले में चुनाव सुधार को चुनौती देने के लिए उपर्युक्त मानदंड हथियार के समान थे। हालांकि, अब भी कई ऐसी समस्याएं है जो पुराने राजनीतिक भ्रष्टाचार की महामारी को बढ़ावा दे रही हैं। निर्वाचन आयोग और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और प्रवर्तन ही ऐसे मामलों को उजागर करने के लिए पर्याप्त हैं। वर्ष 2008 में मुख्य सूचना आयोग के क्रियान्वयन और निर्देश में राजनीतिक पार्टी को “पब्लिक अथॉरीटीज” के रूप में स्पष्ट किया गया था, जिसमें पार्टियों को उनके पास जमा धन को बताने वाली बैलंस शीट, आय और खर्च का ब्योरा देने के लिए कहा गया था। परिणामस्वरूप, यह पता चल पाया कि वर्ष 2010 में राष्ट्रीय पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी के पास क्रमशः 240 करोड़ रुपये और 220 करोड़ रुपये थे। ये आंकड़े निर्वाचन आयोग के आकलन 3,500 करोड़ रुपये (750 डॉलर) से काफी कम थे, जो अप्रैल एवं मई 2011 में पांच भारतीय राज्य से चुनाव के दौरान रिश्वत के रूप में दिये गए थे।
परिणामस्वरूप, उपर्युक्त प्रयास के आधार पर विभन्न सरकारी, गैर-सरकारी संगठन और व्यक्तिगत रूप से सुधार के लिए तीन बड़े सुझाव दिए गए। तीन बड़े प्रस्तावों को सुझाया गया।
पहला, राज्य के वित्तपोषित चुनावों के लिए बहस। 1998 में इंद्रजीत गुप्ता कमिटी ने राज्यपोषित चुनावों का पक्ष लेते हुए अपना विचार व्यक्त किया था कि राज्यपोषित चुनाव “पूर्ण न्यायसंगत, संवैधानिक, वैध और जनहित में है। राजनीतिक पार्टियों को अनुदान देने से वित्तीय रूप से कमजोर पार्टियां भी मजबूत पार्टियों के सामने मुकाबला करने के लिए तैयार रह पाएंगी।” विभिन्न रूपों में इसका अनुमोदन किया गया है, जिसे बाद में, 1999 में भारत के विधि आयोग ने मान्यता दे दी। राष्ट्रीय आयोग ने 2001 में संविधान की समीक्षा के बाद 2008 में दूसरी एडमिनिस्ट्रेटिव रिफॉर्म कमिटी गठित की। अंत में, केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री श्री सलमान खुर्शीद ने 28 नवंबर 2011 में लोकसभा को सूचित किया कि राज्य कोष निर्धारित करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स (जीओएम) बनाया जाए।
ऐसे प्रस्ताव में निर्वाचन आयोग या अन्य राज्य की बॉडी को शामिल किया गया, जिसमें देश की प्रत्येक राजनीतिक पार्टी के फंड के लिए प्रत्येक दिन के काम और चुनाव प्रचार शामिल किए गए। पूरी दुनिया इस तरह का नियम सबसे पहले 1959 में जर्मनी में बना और आज दुनिया के 75 से अधिक देशों में है। इनमें 90 % से अधिक यूरोपीय संघ ने राज्यपोषित चुनाव का प्रावधान किया। भारत में चुनाव आयोग के मुताबिक, ऐसे प्रस्ताव निरर्थक हो सकते हैं, यदि राजनीतिक पार्टियां और उनके द्वारा खर्च होने वाले ऐसे फंड में वास्तविक मामलों और मौलिक परिवर्तन की जरूरत महसूस की गई।
दूसरा, चुनाव के कॉरपोरेट फाइनैंसिंग और राजनीतिक पार्टियों पर निगरानी रोकने और नियम के लिए बहस। वर्तमान में कंपनी एक्ट, 1956 के मुताबिक, कंपनियां अपने लाभ का ज्यादा से ज्यादा 5% राजनीतिक पार्टियों को अनुदान दे सकती हैं। ऐसे अनुदान में कर में छूट देने का प्रावधान है। ऐसी फंडिंग में पारदर्शिता लाने के लिए लोक अधिनियम, 1951 के मुताबिक राजनीतिक पार्टियों को किसी व्यक्ति, समूह और कंपनी से प्राप्त 20,000 रुपये से अधिक राशि का विवरण जमा करना अनिवार्य है। फिर भी चुनाव आयोग ने माना है कि ऐसे मानक कॉरपोरेट करप्शन और पार्टियों के फंड को बताने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इसके बावजूद कठोर कॉरपोरेट नियम होने से कंपनी करोड़ों के रिश्वत से राहत पाने में सक्षम रहेगी। कानूनों को सरल बनाने के लिए कॉरपोरेट अनुदान, रिश्वत और गैर-कानूनी तरीके से राजनीतिक पार्टियों को कॉरपोरेट द्वारा ब्लैक मनी देने पर प्रभावशाली निगरानी रखने के तरीकों पर विचार किया जा सकता है।
यह हास्यास्पद है कि सत्तारूढ़ सरकार ने एक तरफ कमिटी बनाई है और वही उत्सुकता से राज्यपोषित चुनाव की बात कर रही है, जबकि दूसरी तरफ दिसंबर 2011 में सरकार ने कंपनी बिल, 2011 लाई थी जिसमें राजनीतिक पार्टियों के लिए कॉरपोरेट फंडिंग में कंपनियों के कुल लाभ के 5% से 7.5% तक बढ़ाने की सलाह दे रही थी।
तीसरा प्रस्ताव था, अकाउंट के रखरखाव में उम्मीदवार और राजनीतिक पार्टी की सहभागिता। वर्तमान में, लोकसभा चुनाव पर 40 लाख और र्जाय के चुनावों में 16 लाख तक चुनाव खर्च की सीमा है, जबकि राष्ट्रीय आयोग ने 2001 में संविधान की समीक्षा के बाद टिप्पणी की है कि “उम्मीदवार द्वारा चुनाव प्रचार में वैध सीमा से 20 से 30 गुना अधिक खर्च किया जाता है। ” वर्तमान नियम कहता है कि, आरपीए, 1951 की धारा 77 के तहत किसी उम्मीदवार को चुनाव खर्च का सही हिसाब रखना जरूरी है। इस हिसाब में धारा के मुताबिक अपनी राजनीतिक पार्टी के लिए खर्च का स्पष्टीकरण देना जरूरी है। इस प्रकार चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार आसानी से दिखा सकते हैं कि उन्होंने निर्धारित सीमा के अंदर ही खर्च किया है, जबकि राजनीतिक पार्टियों ने चुनाव पर काफी अधिक धन का व्यय किया है।
उपर्युक्त तीनों प्रस्तावों को स्पष्ट करना इसलिए जरूरी है कि ये भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों की विशेषताओं से जुड़े हैं। एक प्रक्रियागत लोकतंत्र के तौर पर भारत अच्छी तरह विकास कर रहा है और नागरिक अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति धीरे-धीरे जागरूक हो रहे हैं। मतदान का प्रतिशत बढ़ रहा है और समाज के प्रत्येक तबके से लोग मतदान करने के लिए बाहर निकल रहे हैं। मतदाताओं को अपना मताधिकार इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करने में चुनाव आयोग, भारत सरकार, नागरिक समाज के संगठन और निजी क्षेत्र भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। युवा पीढ़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति अधिक जागरूक हो रही है और लोगों को मतदान के लिए प्रोत्साहित करने में उसने प्रमुख भूमिका निभानी आरंभ कर दी है। लेकिन मजबूत और प्रभावी संस्थागत प्रणाली नहीं होने के कारण अब भी कुछ खामियां बरकरार हैं। भारत के लिए अनिवार्य है कि यहां की चुनाव प्रक्रिया अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बने। राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है, यदि सरकार और उसके प्रतिनिधि निष्पक्ष तरीके से नहीं चुने जाते हैं। यदि बेनामी रकम चुनावों में लगी है तो पूरी व्यवस्था के भ्रष्ट हो जाने की संभावना बढ़ जाती है। समतापरक और न्यायपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था तैयार करने के लिए अपनी चुनाव प्रक्रिया में सुधार करना हमारे लिए अपरिहार्य है।