नेहरू को नीचा दिखाने की कोशिश है जासूसी विवाद: इतिहासकार
नई दिल्ली: भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिवार की जासूसी कराए जाने के मामले में उठे विवाद पर इतिहासकारों की राय बिल्कुल अलग है। इतिहासकरों का कहना है कि ये सब नेहरू को नीचा दिखाने की कोशिश है।
आपको बता दें कि अंग्रेजी अख़बार मेल टुडे ने दावा किया है कि जवाहरलाल नेहरू ने करीब दो दशक तक नेताजी सुभाषचंद्र बोस के परिवार की आईबी द्वारा जासूसी कराई थी। मेल टुडे के इस दावे का आधार हाल ही में नेशनल आर्काइव की गुप्त सूची से हटाई गई इंटेलीजेंस ब्यूरो की दो फाइलें हैं।
खुफ़िया एजेंसी के इन दस्तावेज़ों में ये दावा किया गया है कि पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने नेता जी के परिवार की साल 1948 से 1968 तक जासूसी करवाई थी। इन 20 सालों में से 16 सालों तक पंडित नेहरू ही देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे और आईबी सीधे-सीधे पीएम कार्यालय के अधीन हुआ करता था।
दिल्ली की अबेंडकर यूनिवर्सिटी में हिस्ट्री के प्रोफेसर सलिल मिश्रा ने सीधे-सीधे इस आरोप को ख़ारिज कर दिया। सलिल के अनुसार, ‘मुझे ये विश्वास के लायक नहीं लगता, क्योंकि नेहरू और बोस के बीच दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जो विवाद या मतभेद थे, वो 1945 तक निपट चुके थे। इंग्लैंड और उसके अलाईड देश के विश्वयुद्ध जीतने के साथ ही नेहरू और बोस के मतभेद बेमानी हो चुके थे और ये अपने आप खत्म हो गया था।’
सलिल मिश्रा के अनुसार, ‘दूसरे वर्ल्ड वॉर के दौरान नेहरू फ़ासीवादी ताकतों के ख़िलाफ़ थे जबकि बोस चाहते थे कि भारत को इस लड़ाई में जर्मनी और जापान का साथ देकर साम्राज्यवादी ब्रिटेन का विरोध कर भारत की आज़ादी का मार्ग प्रशस्त करे, जिससे नेहरू असहमत थे।’
‘उस दौरान जहां सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और सी गोपालाचारी कांग्रेस में राइट विंग ताकतें थीं तो वहीं नेहरू और बोस उसके वामपंथ के अग्रणी। बोस और नेहरू एक दूसरे के साथ थे, वे आपस में चिट्ठियां शेयर किया करते थे, अपनी शिकायतें करते थे और इस लंबे साथ के दौरान दोनों के संबंध में काफ़ी भरोसा था…..मतभेद राजनैतिक और विचारधारा के मुद्दे पर था और वो मतभेद 1945 के दूसरे विश्व युद्द के खत्म होने के साथ ही खत्म हो गया।’
सलिल कहते हैं, ‘एक इतिहासकार के तौर पर मैं ये जानना चाहूंगा कि आख़िर नेहरू क्यों बोस के परिवार की जासूसी करवाना चाहेंगे। मेरे हिसाब से पिछले कुछ समय से देश में नेहरू निंदा की एक हवा चल रही है, जिसकी पूरी कोशिश भारत के आंतरिक विकास, चीन के साथ भारत के संबंधों और अन्य सामाजिक-राजनैतिक ताने-बाने को लेकर उन्हें दोषी ठहराने की कोशिश है।’
दिल्ली के ही सत्यवती कॉलेज की एसोसिएट प्रो. नीरजा सिंह कहती हैं, ‘मुझे तो ये आरोप ही बहुत बचकाना लगता है क्योंकि नेहरू का एक नेता और इंसान के तौर पर कद इससे कई गुणा बड़ा था। ये आरोप वही लोग लगा सकते हैं जो नेशनल मूवमेंट की प्रतिष्ठा को ख़त्म करना चाहते हैं। नेहरू और बोस दोनों ही 1940 के दौर में नई जागृति और उत्साह का प्रतीक थे।’ ‘कांग्रेस के अंतिम प्रेसिडेंट के तौर पर बोस अलग किस्म की राजनीति करना चाहते थे, वो अपना अलग प्रोग्राम चाहते थे जिसके लिए उन्हें ना गांधी जी का समर्थन मिला था ना नेहरू का। यहां तक कि आचार्य नरेंद्रदेव ने भी तब कहा था कि बोस कांग्रेस को बांटना चाहते हैं।’
इस घटनाक्रम के बाद नेताजी ने नेहरू को पत्र लिखकर कहा था, ‘सोशलिस्टों ने मेरा साथ नहीं दिया इसका मुझे दुख नहीं है लेकिन आपने मेरा साथ नहीं दिया इसका मुझे काफी दुख है।’ सुभाष चंद्र बोस हमेशा से एंटी कलोनियल और नेशनलिस्ट रहे पर कभी मास मूवमेंट नहीं किया था, उनके देशप्रेम पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता, ठीक उसी तरह जैसे नेहरू की निष्ठा पर। नेहरू देश के लोगों से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे। ये नेहरू की ही लीगेसी है कि आज इस देश में इतनी आज़ादी है कि लोग उनपर आरोप लगा पा रहे हैं, जबकि उन्होंने अपने समय में श्यामा प्रसाद मुखर्जी और जयप्रकाश नारायण को भी साथ लेकर चलने में सफलता हासिल की।
1939 में जब बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने तब पटेल, राजा जी, गांधी सबने हार मान ली थी और तब बोस ने उन्हें पत्र लिखकर कहा था कि मैं आपके साथ रहूंगा, सहयोग करूंगा। लेकिन गांधी जी ने कहा कि मैं अपना आंदोलन नहीं, लोगों का आंदोलन चलाता हूं, जिसका ……मैं सिर्फ़ जनरल होता हूं, आप अपना आंदोलन अलग चलाइये।
नीरजा कहती हैं कि इस समय केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी अपना आयडल ढूंढने के संकट से गुज़र रही है और उनके भीतर इसको लेकर काफी मंथन हो रहा है। जिसका नतीजा इस तरह के आरोपों के रूप में सामने आ रहा है। बहस फ्रेंच रिवोल्यूशन को लेकर भी होती है लेकिन उसकी आस्था और नीयत को इस तरह से नीचा नहीं दिखाया जाता।