वित्तीय घाटा भूल लोगों की जान बचाने का समय है
अखिलेन्द्र प्रताप सिंह, स्वराज अभियान
लाकडाउन के दूसरे दौर में देश ने प्रवेश कर लिया है। इस बार भी कुछ आर्थिक गतिविधियों को छोड़ दिया जाए तो आम आदमी की राहत के लिए सरकार द्वारा जारी दिशा-निर्देशों में कुछ खास नहीं दिख रहा है। तर्क चाहे जो भी दिए जाएं, सच्चाई यही है कि बिना किसी तैयारी के पिछली बार लाकडाउन की घोषणा प्रधानमंत्री जी ने की थी और इस बार भी इस महामारी से उत्पन्न लोगों की कठिनाईयों से निपटने का कोई रोडमैप नहीं दिख रहा है। लाकडाउन जरूरी होते हुए भी यह बीमारी से बचने के लिए कोई इलाज नहीं है। उपचार के लिए हॉटस्पॉट्स को चिन्हित करके अधिक से अधिक लोगों की टेस्टिंग और उनका इलाज होना जरूरी है। इस मोर्चे पर हमारा रिकार्ड बहुत ही कमजोर है, डॉक्टरों समेत स्वास्थ्य कर्मियों को पर्सनल प्रोटक्शन इक्विपमेंट देने तक में हम बहुत पीछे हैं। मोदी जी मेडिकल व्यवस्था की इस तैयारी के बारे में कुछ बोलते ही नहीं, हां यह जरूर करते हैं कि अपने प्रोग्राम की स्वीकृति लेने के लिए जनता से कभी थाली व घंटा बजवा लेते हैं और कभी मोमबत्ती और दिया जलवा लेते हैं। प्रतीकों के इन प्रयोगों से जनता के ध्यान को तो मोड़ा जा सकता है लेकिन कोविड-19 जैसी बीमारी से इसके द्वारा निपटा नहीं जा सकता।
अमेरिका और यूरोप से बेहतर भारत कर रहा कहना भी अच्छा नहीं लगता क्योंकि उनसे हमारी तुलना बहुत सारे कारणों से बेतुकी है। अपने पड़ोस के मुल्कों पर भी हमें नजर दौड़ा लेनी चाहिए। हमारा पडोसी बांग्लादेश भी अच्छा कर रहा है उससे भी सीखने की जरूरत है। चीन ने भी इस महामारी को कैसे नियंत्रित किया है उससे भी सीख ली जा सकती है। अमेरिका का उदाहरण देने से क्या फायदा जिसने मुनाफे के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं का निजीकरण कर उसकी कीमत पर हथियार उद्योग, वित्त और सट्टेबाजी की अर्थव्यवस्था को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया। यह भी सच है कि कोरोना का पहला केस 30 जनवरी को ही केरल में आ गया था और मार्च मध्य तक इससे निपटने के लिए केंद्र सरकार के पास कोई ठोस नीति व कार्यक्रम नहीं था। आखिर महामारी के इस खतरनाक दौर में ‘नमस्ते ट्रम्प’ जैसे कार्यक्रमों को करने का क्या औचित्य था? बहरहाल यह पुरानी बातें हैं उसमें जाने से अब कोई फायदा नहीं है।
बात यह है कि अब यह देखा जाए कि सरकार क्या कर सकती है और क्या उसे करना चाहिए? जो वह नहीं कर रही है, उसकी वजह क्या है? और उसमें हमारी भूमिका एक आंदोलन के बतौर, एक राजनीतिक आवाज के बतौर क्या हो सकती? बहुत से उदारमना लोग परेशान हैं कि लगभग 77 करोड़ टन अनाज अगर देश के गोदामों में है और आने वाले दिनों में और अनाज गोदामों में भर जाएंगे तो यह सरकार गरीबों में, जरूरतमंदों में इसका वितरण क्यों नहीं करा रही है। इससे तो कोई वित्तीय घाटा भी नहीं होने जा रहा है तब भी सरकार ऐसा क्यों नहीं कर रही।
दरअसल समझना यह है कि सरकारें हवा में न तो बनती है न ही उनका रुख अनायास होता है। सामान्य स्थितियों में इतना बड़ा अन्न भंडारण होने के बावजूद सरकार यह जानते हुए भी कि अनाज चूहे खा जा रहे हैं, गरीब तबकों में अगर अनाज का वितरण नहीं करती है तो इस संकट के दौर में मेहनतकश जनता के प्रति उसमें एकाएक प्रेम नहीं विकसित हो जायेगा। सरकारें जितना कर नहीं रही है उससे अधिक राहत देने का प्रचार कर रही हैं। चाहे हम जितना भी नकारें सरकार की भी एक वर्गीय सोच होती है, उसका एक नजरिया है और एक स्वार्थ होता है और उसी के तहत वह काम करती है। जैसे तबलीगी जमात से यह बहस उठी है कि लोग धर्मान्धता के शिकार हैं। डाक्टर और स्वास्थ्य कर्मियों पर हमला कर रहे हैं। लेकिन सत्तर सालों में धर्मान्धता बढ़ाने में तर्क और विज्ञान के विरूद्ध लोगों को खड़ा करने में और विज्ञान और तर्क के ऊपर आस्था को खड़ा करने वाले वे कौन लोग हैं और शासन तंत्र चलाने में उनकी क्या भूमिका है उस पर वह बहस नहीं करते हैं। उनकी दिलचस्पी एक समुदाय को किसी न किसी बहाने खलनायक बनाने और अलगाव में डालने की अभी भी बनी हुई है। यह अच्छा तरीका भी है सरकार की जिम्मेदारियों से बहस को मोड़कर सरकार को बरी कर देने का!
इस समय जब देश में एक गहरा राष्ट्रीय संकट मौजूद है, लोगों में अपनी सुरक्षा को लेकर गहरी चिंता है, देश की अर्थव्यवस्था के बारे में लोगों की चिंता है। उस समय भी हिंदू और मुसलमान के बीच में गहरी खाई खोदने की कोशिश संस्थागत ढंग से की जा रही है। इसमें हथियार के सौदागरों के न्यूज चैनल से लेकर अन्य कारपोरेट परिवार द्वारा नियंत्रित चैनल तक व्यवस्थित ढंग से काम कर रहे हैं। जबकि यह एक सच्चाई है कि लगभग एक हजार साल से अधिक समय से एक साथ रहते हुए भी हिंदू-मुस्लिम अवाम में जो एकता बननी थी वह नहीं बन पाई है। उसी को आधार बनाकर इस समय सांप्रदायिक भेदभाव को एक मूल्य के बतौर, एक स्थाई विभाजन के बतौर प्रस्तुत किया जा रहा है जो भारत के इतिहास में कभी भी नहीं रहा है।
देश के ढेर सारे बड़े अर्थशास्त्रियों का यह कहना हैं कि सरकार को वित्तीय घाटे के डर से बाहर आना होगा और उसे कम से कम जीडीपी का 6-7 प्रतिशत यानी 6-7 लाख करोड़ रूपया कैश के रूप में लोगों को देना चाहिए। फिर भी सरकार इसे मानने नहीं जा रही है। एक तो उसकी जनविरोधी आर्थिक-औद्योगिक नीति से बंधे रहने की प्रतिबद्धता और यह डर कि अगर वित्तीय घाटा हमने बढ़ने दिया और यह घाटा 6-7 प्रतिशत हो गया तो ग्लोबल पूंजी भारत से खिसक सकती है। किसी भी सम्प्रभु सरकार का यह दायित्व है कि वह अपने देश के हितों की रक्षा करे और लोगों की जरूरतों पर खर्च करे। यदि विदेशी पूंजी देश से पलायन की कोशिश करे तो उस पर प्रतिबंध लगाकर घोषणा कर दे कि तीन साल से पांच साल तक कोई भी पूंजी देश के बाहर नहीं जायेगी और किसी न किसी रूप में यहां के उद्योगों में ही उसका निवेश होता रहेगा। इस बीच में विदेशी पूंजी के दबाव से मुक्त होकर अपनी खेती-किसानी और संसाधनों पर अपनी अर्थनीति गढ़े। सट्टेबाजी की यह जो अर्थव्यवस्था है और उससे जो भ्रष्टाचार पनप रहा है विदेशी पूंजी के बाहर जाने पर रोक लगाकर उस भ्रष्टाचार पर भी नियंत्रण किया जा सकता है।
लेकिन यह क्षमता उन दलों की सरकारों में नहीं है जो बाजार और वित्तीय पूंजी पर निर्भरता बनाए हुए हैं। हिंदुत्व की इस सरकार में तो और भी नहीं है जो हर चीज़ को देशभक्ति और राष्ट्रवाद से जोड़ती है। यह वित्तीय पूंजी पर लगाम लगा नहीं सकती इसलिए वित्तीय घाटा बढ़ाने के लिए जनता की भलाई के लिए पैसा भी खर्च करना नहीं चाहती। हमें कोरोना महामारी से निपटने के लिए सरकार जो अच्छा काम करे उसका समर्थन करते हुए भी अपनी आलोचना और दबाव के अधिकार को बनाए रखने की जरूरत है।
अभी देखिए और क्या-क्या होता है? संकट इतना गहरा है कि न केवल आम जनजीवन बल्कि देश के कारपोरेट घराने भी गहरे संकट के दौर से गुजर रहे हैं। विदेशी पूंजी ने उन्हें निगलना शुरू कर दिया है, उनकी स्वायत्ता कब तक बची रहेगी यह भी कह पाना मुश्किल है। हालांकि विदेशी पूंजी की छत्रछाया में ही उनकी परवरिश हुई है। कारपोरेट घराने भी राहत के लिए 14 से 15 लाख करोड़ रूपए का पैकेज मांग रहे हैं। सरकार उन्हें बेलआऊट कैसे करती है यह आने वाले दिनों में दिखेगा। यदि राष्ट्रीय पूंजी से उन्हे बेलआऊट किया जाता है तो उस सम्पत्ति को भी राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने का जनदबाव बनाने की जरूरत है।
इधर एक बात चलन में आ गई है कि संकट के दौर में हमें राजनीति नहीं करनी चाहिए। पूरे राष्ट्र को एक साथ खड़ा होकर लड़ना चाहिए। आखिर राजनीति के प्रश्न पर इस तरह की बातों का और राजनीति को राष्ट्र के स्वार्थ के विरुद्ध खड़ा करने का क्या मतलब है? देश का शासक वर्ग गहरे संकट के दौर में भी मुनाफे की राजनीति से बाज नहीं आता है। इस दौर में भी बहुत सारे लोग मुनाफा कमाने में लगे हुए हैं, नहीं तो जमाखोरी, कालाबाजारी, मिलावटी दवा के काम में लगे लोग राजनीतिक दलों का संरक्षण नहीं लेते। वे सभी लोग जो अपनी छल-कपट की राजनीति में लगे हुए हैं वे राजनीति को राष्ट्र सेवा के विरूद्ध खड़ा करते हैं, जबकि जनराजनीति तो राष्ट्र सेवा के लिए ही होती है जो निरन्तर चलती रहती है।
केरल की सरकार ने अच्छा काम किया है इसमें दो राय नहीं है। लेकिन 70 सालों में केरल में जो एक सिविल सोसायटी तैयार हुई है उसकी भी इसमें बहुत बड़ी भूमिका रही है, वहां राजनीतिक रूप से सचेत लोग हैं। वहां नागरिक समाज अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहा है और इसीलिए केरल बेहतर ढंग से प्रयोग करने में इस बीमारी से निपटने में सफल हो रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में तो कोरोना संक्रमण से निपटने के लिए जन सहयोग लेने, जनता की व्यापक भागेदारी कराने की जगह नौकरशाहांना ढंग से निपटा जा रहा है। पुलिस-प्रशासन द्वारा प्रवासी मजदूरों से अमानवीय व्यवहार, इस महामारी में जनसहयोग करने वालों पर मुकदमें और जनता को सचेत करने वाले व सरकार की वाजिब आलोचना करने वाले पत्रकारों तक का उत्पीड़न किया जा रहा है। इस नजरिए की वजह से जनता में मौजूद पिछड़ेपन से जो कुछ गड़बड़ियाँ हो भी रही है उससे निपटने का जो बर्बर रास्ता अपनाया जा रहा है वह समस्या को और भी जटिल बना दे रहा है।
बहरहाल जो लोग हर दम हिंदू-मुस्लिम करते हैं, पाकिस्तान-चीन करते हैं वह तो बराबर कहेंगे कि हथियार पर खर्च करो क्योंकि उसमें उनको बड़ा कमीशन मिलता है। लेकिन जो लोग वास्तव में कोविड-19 जैसे वायरस से और ढेर सारी बीमारियों के दौर से गुजर रहे हैं उनके लिए हमें इस दौर में सरकार पर दबाव डालना होगा कि वह अपनी नीतियों को बदले और जनपक्षीय नीतियों पर खड़ी हो। क्योंकि करोना महामारी के इस दौर ने देश और दुनिया को तेजी से बदल दिया है। जब तक इस वायरस का वैक्सीन नहीं बनता तब तक इसका खतरा बना रहेगा। इसलिए हमें दीर्घकालीन संघर्ष में लगे रहना है और अभी के दौर में जो भी जनसहयोग सम्भव हो सके उसे करते हुए, साफ-सफाई पर विशेष जोर देते हुए, लोगों को फासीवादी राजनीति के खतरे से शिक्षित करते हुए सरकार पर दबाव बनाए रखना है।
इस समय सरकार पर जोर देना होगा कि वह वित्तीय घाटा की परवाह किए बगैर कम से कम 6-7 लाख करोड़ रूपए जनता की आजीविका को सुनिश्चित करने के लिए नकद और खाद्यान्न देने में खर्च करे और अपनी पूरी अर्थव्यवस्था का इस तरह से पुर्न संयोजन करे जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, कृषि विकास पर बजट का अधिक से अधिक हिस्सा खर्च हो। प्रधानमंत्री केयर फण्ड को पारदर्शी बनाया जाए और जीएसटी के कारण आर्थिक तौर पर कमजोर हो चुकी राज्य सरकारों को केन्द्र सरकार मदद करे। सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि कोरोना संक्रमण से निपटने के लिए सरकार अधिक से अधिक टेस्टिंग पर खर्च करे, हॉटस्पॉट की शिनाख्त करे, स्वास्थ्यकर्मियों व कोरोना वारियर्स को जीवनरक्षक किट उपलब्घ कराए, क्वोरनटाइन सेंटरों को सुविधाजनक बनाए और सरकारी चिकित्सा व्यवस्था को मजबूत कर बीमारों का बेहतर ढंग से इलाज करे।