काई, कैरी और काॅरोना
एन. सिंह सेंगर, समाजसेवी
कोरोना शब्द का तात्त्पर्य वस्तु पर उसका उत्सर्जित झाग आवरण है। जो सजीव या निर्जीव वस्तु को ठीक उसी प्रकार से जकड़ कर नष्ट कर देता है जिस प्रकार से दीमक काष्ट को, जंग लोहे को, काई जल शुद्धता को, मैल त्वचा को, कैरी बत्तीसी को, केचुआ मिट्टी को, कफ आंतों को, दुर्गंन्ध श्वांस को, सड़न तन को नष्ट कर देता है। काई, कैरी, कफ, सड़ा-मांस, नम-कागज में जीवाणु-विषाणु श्रंृखलित रूप में पैदा होते हैं। यह जल, वायु, भोजन माध्यम एवं नाक, मुंह, आंख, रोमछिद्र मार्ग से लोगों के तनों में घुस कर कोष्ठों पर चिपक जाते हैं। जिससे फेफड़ों पर नमी-कफ बढ़ता है, श्वसन-पाचन तंत्र शिथिल पड़ जाता है, नाक से पानी आने लगता है, दम-घोंटू खांसी-छींके आती हंै, सिर-बदन में पीढ़ा होती है और ज्वर आने लगता है।
आज विश्व काॅरोना के चंगुल में फंसा है। चारों ओर कोहराम मचा हुआ है। काॅरोनाग्रस्त हजारों लोग मर गए हैं व लाखों लोग मरने की कगार पर हैं। काॅरोना मरीजों-मृतकों संख्या तीब्रता से बढ़ रही है। विश्व विकसित चीन, अमेरिका, इटली, जर्मन, स्पेन देशों और भारतीय विकसित महाराष्ट्र, केरल राज्यों में काॅरोना सर्वाधिक प्रभावी है। अनेक शासक-प्रशासक काॅरोना ग्रसित या भयभीत होकर छुप गए हैं। राजाज्ञा काॅरोना कफ्यू जारी है और भयग्रस्त लोग घरों में पड़े हुए है। बाल, अबाल, वृद्ध, असहाय और पशु-पक्षी भूख से तड़प रहे हैं। सभी कारोबार, उद्योग, व्यापार, बाजार बंद हैं, श्रमिक लावारिस छोड़ दिए गए हैं। श्रमिक भीड़ सड़कों दिखती है। भूखी-प्यासी जनता सपरिवार अपने मूल गाँव की ओर पैदल दौड़ रही है। यह कहाँ जाएँगे? क्या करेंगे? क्या खाएँगे? यह परवाह किसी में भी नहीं दिखती है। तैयार कृषि-फसलें नष्ट होने की कगार पर हैं।
यह कैसा कम्प्यूटर-वैज्ञानिक युग है? आज चिकित्त्सा, शिक्षा और प्रबन्धन में राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय उपाधि एवं सर्वोच्य सम्मान से पुरस्कृत विद्वान नई व्यवस्था तो दूर पुरानी व्यवस्था तक बनाए रखने में अक्षम दिखते हैं। यह उत्पन्न्ा समस्या के अवसर पर लाचारी बताकर संबन्धित समस्या को अति जटिल बना देते हंै।
आज हम स्वयं या अन्य व्यक्ति को कैसे आश्वस्त कर सकते हैं कि हम और हमारा समाज भावी महामारी आपदा से मुक्त होगा। जबकि काॅरोना ने किसी एक व्यक्ति या देश की नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व की वास्तविक चिकित्त्सा, शिक्षा, प्रबन्धन, विकास और विद्वता का आइना दिखा दिया है। इसने सिद्ध कर दिया है कि अधिकांश संवैधानिक पदासीन साधारण जनता के हितों की जबरदस्त उपेक्षा कर अपने निजी स्वार्थ पूर्ति तक सीमित रहते हैं और सरकारी पद, प्रतिष्ठा, वेतन, भत्ते, सुख-सुविधाएँ एवं पुरस्कार मनमाने ढंग से लेते रहते हैं। पदासीनों जबाबदेह दायित्व होने के बावजूद गाँवों-बस्तियों की गली-नालियाँ और नदी-नाले-ताल गन्दी काई-गोंत से बजबजा रहे हैं, जहरीले कीट-कच्छरों का प्रकोप है, सफाई होती नहीं, डी.डी.टी. बेच ली जाती है, खुली बैंठक बिना फर्जी प्रस्ताव पर योजना लाभ आबंटित होता है, सरकारी कर्मी जनता से मिलते नहीं हैं, चिकित्सक अस्पतालों से नदारत रहते हैं, सफाईकर्मी इलाज करते हैं, सफाईकर्मियों के वेतन में बंदरबांट होता है, सफाई कार्य के बिना वेतन भुगतान, भट्टों श्रमिकों और उनके प्रतिपाल्यों कोे पशुतुल्य जीवन बिताना पड़ रहा हैं, सरकारी स्कूलों में शिक्षक-छात्र नहीं जाते है, बिना पढ़े-पढ़ाए परीक्षा-नकल-डिग्री बिक्री जारी है, श्रमिकों को मानकी वेतन-भत्ते, जीवन-सुरक्षा नहीं मिलता है, कालेज प्रयोगशालाओं-पुस्तकालयों से विहीन हैं, औचक निरीक्षण के नाम पर धन-उगाही होती है, कीट, मच्छरों और विषाक्त जल से मानव जीवन को बुरी तरह प्रभावित है, लालदवा-डी.डी.टी. बेंच दी जाती है, मद्य व्यापार चरम पर है, लोगों के मुँह गुटका पान-मशालों से भरे हुए हैं, यूरिया-डिटर्जेंट-पेंट निर्मित दूध-मिष्ठान व सड़ामाँस व्यापार बिक रहा है, विषाक्त तत्त्वों से बने खाद्य पदार्थ बिक रहे हैं, अन्त्योदय-आयुष्मान-बी.पी.एल. लाभ दरिद्रों की जगह रहीसों को मिल रहा है आदि तथ्यों पर विचार करने के परिणामस्वरूप कहा जा सकता है कि भावी आपदाएँ और महामारियाँ तथा जनहानि में अति अति वृद्धि की सम्भावनाएँ प्रबल हैं। अतः काॅरेना समस्या के कारणों सहित निदान हेतु युद्ध स्तरीय कार्य होने चाहिए तथा चिकित्सा, शिक्षा, प्रबन्धन और विकास पर शोध जबाबदेह होना चाहिए। संवैधानिक पदासीनताओं पर सक्रियता होनी चाहिए और शयनवेदी-वृद्धों की पदासीनता निरस्त होनी चाहिए।