दिल्ली हिंसा की जवाबदारी कौन लेगा ?
अशोक भाटिया
इसमें कोई शक नहीं कि यह समय चुनौतीपूर्ण है- आर्थिक दृष्टि से भी और आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से भी। जिस दिन ट्रंप भारत आए उसी दिन दिल्ली में जिस प्रकार का हिंसक उपद्रव प्रारंभ किया गया वह इस बात को बताता है कि पाकिस्तानी तत्व अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा को शाहीन बाग के उस आयाम के साथ टैग करके मीडिया में प्रस्तुत करना चाहते थे कि मोदी के भारत में सब कुछ ठीक नहीं है। यह घटना हमारे इंटेलीजेंस तथा सुरक्षा व्यवस्था के लिए भी एक धक्का और चुनौती बनकर आई है जिसमें स्पष्ट हुआ है कि भारत विद्रोही तत्व यह चाहते थे कि मीडिया में जिस दिन ट्रंप की भारत यात्रा का पहला समाचार छपे उसी दिन भारत की राजधानी दिल्ली में हिंसक उपद्रवों, हेड कांस्टेबल की मौत, पेट्रोल पंप में आग का भी समाचार छपे ताकि लगे भारत भीतर ही भीतर युद्धरत है। निश्चित रूप से मोदी और अमित शाह इसे हल्के ढंग से नहीं लेंगे पर यह परिदृश्य ट्रंप की भारत यात्रा के देशभक्तों और हमारी विकास यात्रा पर सकारात्मक प्रभाव को और ज्यादा आग्रहपूर्वक सिद्ध कर देता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा पूर्व नियोजित थी | बहुत समय से इसकी तैयारी चल रही थी | उनके आने के साथ ही दिल्ली में हिंसा भड़कने और उससे होने वाली मौतों का जिम्मेदार कौन हो सकता है | दिल्ली पुलिस है, जिसकी हर गली में इंटेलीजेंस होती है |इस इलाके में पहले भी पत्थरबाजी की घटनाएं हुई हैं |गृह राज्य मंत्री खुद आशंका जाता रहे हैं कि हिंसा की साज़िश थी |इंटेलिजेंस सिस्टम हाइपर एक्टिव था| दिल्ली पुलिस की लोकल इंटेलीजेंस यूनिट, उसके मुखबिर, बड़े अफसरों को मिलने वाली अंधाधुंध सोर्स मनी से फैलाया गया नेटवर्क, आईबी का समानांतर नेटवर्क| इतना ही नहीं दिल्ली में उत्तर प्रदेश की तरह बीट सिस्टम तहस नहस नहीं हुआ है| हर पुलिसवाले की जिम्मेदारी होती है कि वो अपनी बीट की जानकारी रखे| वह जानता है कि किस घर में कौन लोग रहते हैं? कौन नया आया है? कहां से आया है? कौन कहां कैसा धंधा करता है? जाहिर बात है रॉ भी लगातार जानकारियां इकट्ठी कर रही होगी| यह सभी एजेंसियां लगातार दिल्ली पुलिस को इनपुट भेजती हैं| इस पूरे नेटवर्क के बावजूद इतनी बड़ी हिंसा फ़ैल गई. कौन मानेगा कि सूचना ठीक से नहीं मिली होगी|
यह साफ है कि दिल्ली पुलिस ने इन सूचनाओं का सही इस्तेमाल नहीं किया |अब सही इस्तेमाल ना होने की दो वजहें हो सकती हैं पहली यह कि दिल्ली पुलिस बेहद नकारा है, उसकी प्रशासनिक क्षमताएं शून्य के करीब हैं |दूसरी वजह हो सकती है राजनीतिक दवाब| दिल्ली पुलिस की काबिलियत का डंका पूरी दुनिया में बजता है. उसकी तुलना स्कॉटलैंड यार्ड से की जाती है|उत्तर पूर्वी दिल्ली की हिंसक घटनाएं बताती हैं कि जिला पुलिस ने स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर ठीक से लागू ही नहीं कि|. हालात बिगड़ सकते हैं इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था. दो महीने पहले ही यहां नागरिकता कानून पर हिंसा हो चुकी है. ऐसी जटिल परिस्थितियों में कपिल मिश्रा की आग में घी झोंकने के लिए छोड़ दिया गया| उसकी गिरफ्तारी एहतियात के तौर पर की जा सकती थी. नजरबंदी भी कर सकते थे |शांति की खातिर यह बहुत जरूरी था|
इन इलाकों और शाहीन बाग़ में अंतर है |इलाकों के मुआज्जिज लोगों को बुलाकर पुलिस मीटिंग कर सकती थी| स्थानीय नेताओं की मदद ले सकती थी| उपद्रव फैलाने की आशंका में कुछ लोगों को रातों रात उठा सकती थी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ| निचोड़ ये है कि प्रशासन इस हिंसा की ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता| दिल्ली पुलिस के कमिश्नर को एक महीने पहले रिटायर होना था, वे एक्सटेंशन पर चल रहे हैं वो ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकते| एलजी अनिल बैजल पुलिस के बॉस हैं और दिल्ली पुलिस के राजनीतिक मुखिया अमित शाह है. इन तीनों की ज़िम्मेदारी थी कि हालात को काबू में रखते. विफलता सीधे उनके जिम्मे आती है|
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