पवित्रता और सेवा किसी धर्म की बपौती नहीं है
भारत माता के अमर सपूत स्वामी विवेकानन्द का उद्घोष
12 जनवरी, 1863 को कोलकात्ता में जन्में बिले उर्फ नरेन उर्फ नरेन्द्र नवम्बर 1881 में दक्षिणेश्वर गए और स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिले। नरेन्द्र को देकखकर स्वामी जी भाव विहृल हो गए और बोले, ‘‘नरेन्द्र तुम नर-नारायण ऋषि के अवतार हो। नरेन्द्र ने अपनी शंकाएँ स्वामी जी के समक्ष रखीं। स्वामी जी आपने ईश्वर को देखा है? स्वामी जी ने कहा हाँ देखा है। जैसे तुमको देख कर बात कर रहा हूँ, वैसे ही ईश्वर को देखना और बात करना सम्भव है। तुम चाहो तो ऐसा कर सकते हो। पूर्ण निष्ठा और साधना के के साथ ईश्वर की तपस्या करने से वे प्रकट होंगे। नरेन्द्र स्वामी जी का संदेश पाकर आश्वस्त हुए और गुरु-शिष्य का सम्बन्ध स्थापित किया। स्वामी जी कहा कि दूसरों की सहायता करने के लिए नरेन्द्र तुम्हारा जन्म हुआ है। अन्य भम्त नक्षत्रों की तरह हैं लेकिन तुम सूर्य की तरह हो। जैसे तेल के बिना दीपक नहीं जल सकता, ईश्वर के बिना मनुष्य की भी यही गति है। एक दिन स्वामी जी ने नरेन्द्र से बोले, नरेन्द्र मैं अपना सर्वस्व तुम्हें दे रहा हूँ। यह शक्ति तुम्हे बड़े-बड़े काम करने में सहायक होगी। स्वामी जी की समाधि से 2 दिन पूर्व नरेन्द्र के मन में यह विचार आया कि यदि गुरु जी स्वयं को ईश्वर कहते तो भी मान लेता। परमहंस शिष्यों को सन्यास की शिक्षा देकर उन्मुक्त अनुभव करते हुए नरेन्द्र से कहा कि मैं इन शियों को तुम्हे सौंप रहा हूँ। इन्हें सन्यासी जीवन से विमुक्त न होने देना।
16 अगस्त, 1886 में परमहंस ने महासमाधि ली तो नरेन्द्र ने बारानगर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की तथा किराए के मकान में रहकर ध्यान, योग, पूर्जा, अर्चना की। 2 वर्ष बाद भारत के कई नगरों की यात्रा करते हुए हिमालय पहुँचे। भ्रमण के दौरान नरेन्द्र ने अपने कई नाम यथा ‘विविदिशानन्द’, ‘सत्चितानन्द’ आदि रखे और सोचा कि नाम में क्या रखा है। आत्मा की पवित्रता ही महत्वपूर्ण है। 1891 में स्वामी जी अलवर नरेश से मिले। नरेश बोले, स्वामी जी क्या मूर्तिपूजा सही है? स्वमी जी बोले, भक्त मूर्तिपूजा नहीं करते, वे मूर्ति में जिस दिव्य शक्ति का रूप है, उसी की पूजा करते हैं। स्वामी जी से प्रभावित नरेश बोले, ’’मेरी विनम्र सलाह है कि ‘विविदिशानन्द’ के स्थान पर ‘विवेकानन्द’ नाम आप पर शोभित होता है। जिसे स्वामी जी उचित बताते हुए बोले किय यह नाम मुझे भी अच्छा लगा है तथा स्वामीजी ‘विवेकानन्द’ नाम से प्रशस्त हुए
विवेकानन्द ने अहमदाबाद जाकर जैन मुििनयों से जैन मत की नाजकारी ली। सारनाथ के मन्दिर में जाकर भारत का वैभवशाली अतीत देखा। पोरबन्दर के दीवान के घर ठहर कर वेदों के अनुवाद में उनकी मद्द की। उसी दौरान ‘फ्रेंच’ सीखना आरम्भ किया। पोरबन्दर में उन्हें ‘विश्वधर्म संसद’ के सम्बन्ध में पता चला। वहाँ जाने की इच्छा प्रकट करने पर दीवान जी बोले, बहुत अच्छा रहेगा। वहाँ जाकर आप हिन्दू धर्म पर बोलें। 1891 में पूना जाकर लोकमान्य तिलक से मिल और बोले, अपने देश के लिए कुछ करने की कामना है। तिलक बोले, हाँ सभी भारतीयों का यह कर्तव्य है कि मात्भूमि के लिए कुछ करें। नरेन्द्र कन्याकुमारी गए और एक पादशिला पर बैठ कर सामने बिछे भारत पर दृष्टि डाली। उनके सामने भारत माता साक्षात् जगदम्बा के रूप में दिखाई दीं। भारत की वर्तमान स्थिति पर भी उनका ध्यान गया। विचार किया कि भारत भूमि के लिए क्या करूँ। मुझे कुछ करना होगा। तीन दिन ध्यान व समाधि के बाद उनके मन में अमेरिका जाकर अपने देश के बारे में बताने की कामना ने जोर पकड़ा। उन्होंने सोचा, जगदम्बा और भारत माता में कोई अन्तर नहीं है। भारत माता की सेवा ही जगदम्बा की सेवा है।
11 सितम्बर 1893 को धर्म संसद में स्वामी विवेकानन्द अन्य अतिथियों के साथ मंच पर भारत-भारती का झंडा लहराने हेतु उपस्थित थे। स्वामी जी ने अपने उद्बोधन में कहा, ‘‘अमेरिका के भाइयो और बहिनों! मैं विश्व के सर्वाधिक प्राचीन सन्यासी समुदाय की ओर से धन्यवाद देता हूँ, मैं समस्त धर्मों के स्रोत की ओर से धन्यवाद देता हूँ।’’ उन्होंने हिन्दू धर्म की व्याख्या करते हुए कहा कि, सभी धर्मों का सार एक है। स्वामी जी के प्रगाढ़ ज्ञान और आध्यात्मिक प्रतिमा ने सभी को प्रभावित किया। स्वामीजी ने 12 भाषण दिए। तीसरे भाषण में उन्होंने हिन्दू धर्म पर पत्र पढ़ते हुए कहा कि, मनुष्य की प्रकृति वस्तुतः दैविक है और सभी धर्मों का लक्ष्य भी दैविक है। 27 सितम्बर 1893 को स्वामी जी ने अपने अन्तिम भाषण मंे विश्व एकता पर बल देकर कहा कि, ’’इस संसद में यह सिद्ध हो गया है कि पवित्रता और सेवा किसी चर्च या धर्म की बपौती नहीं है।’’ स्वामी जी सोचते थे कि, हमारी संस्कृति इतनी महान है फिर भी हम क्यों दासता की बेड़ियों में जकड़े हैं?
4 जुलाई 1903 को महासमाधि लेने वाले परम् श्रद्धेय स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती पर हमारा कोटि-कोटि नमन।
एन. सिंह सेंगर
ताजपुर-बिधूना, जनपद औरैया