हफीज नोमानी: उर्दू सहाफत का मर्दे मुजाहिद
मोहम्मद आरिफ नगरामी
अजीम हस्तियों की मौत के अलमनाक सांचे कब और किस दौर मेें पेश नहंी आये लेकिन इस बात से भी इन्कार मुमकिन नहंी कि ऐसी हस्तियों के किरदार व अमल के नकूश इन्सानी दिल व दिमाग पर ऐसे मूुरतसिम होते है कि गर्दिश लैलो नहार इसे आसानी से धुंधला नहीं सकते। उनकी यादों के चिराग नेहाखाने दिल के ंअंधियारे मेें जगमगाया करते है। आखें बरसों उन्हें ढूॅढती रहती है। उन्हीं नुमाया और अजीम हस्तियो ंमें ताजदारे सहाफत हफीजुर्रहमान नोमानी उर्फ हमीज नोमानी का नाम सुनहरे हरफो ं से लिखा जा सकता है जो आज हमें दागे मुफारकत देकर ऐश बाग के शहरे खमोशा मेें सुकून और इतमिनान के साथ अबदी नींद सो रहे हैं।
मुल्क के आलमी शोहरतयाता सहाफी अदीब व दानिशवर हफीज नोमानी का तअल्लुक जिला सम्भल के मरदुमखेज शहर से था। उनकी परवरिश व पर्दाख्त ऐसे खानवादे में हुई जो इल्म व अदब तकवा और दीनदारी में हमेशा से मुमताज रहा। बाद में उन्होंने शहरे निगारों लखनऊ को अपना वतन सानी बना लिया। और अपनी जिन्दिगी के आखिरी लम्हात तक वह लखनऊ में ही रहे।
हफीज नोमानी साहब मरहूम मौलाना हसरत मोहानी मौलाना अबुल कलाम आजाद, मौलाना मोहम्म्द अली जौहर और मौलाना जफर अली खां के तारीखी सिलसिले की आखिरी कड़ी थे जो 8 दिसम्बर, 2019 को टूट गयी। हफीज नोमानी के इन्तेकाल के साथ ही हिन्दुस्तान की आजादी में उर्दू सहाफत के बुनियादी किरदार की यह ताबनाक निशानी भी मौत के अंधरे में मादूम हो गयी।
हफीज नोमानी साहब के इन्तेकाल के बाद आजके सहाफती हल्कों में सहाफत के वसीले से मुल्क व कौम बिलखुसूस मिल्ल्ते इस्लामियां की तारीखसाज तर्जुमानी का तजकिरा जोर शोर से हो रहा है।
हफीज नोमानी साहब के इन्तेकाल से उर्दू सहाफत एक शजर सायादार से महरूम हो गयी। नामवर सहाफी के अखबारात और जराएद के लिये इदारिये और मजामीन तहरीर किये। वह सहाफत के उफक पर कई दहाइयों तक जलवा बिखेरते रहे। उनकी रेहलत उर्दू सहाफत के लिये नाकाबिले तलाफी नुकसान है।
हफीज नोमानी का जज्बएहुर्रियत, हुब्ब्बुल वतनी, मिल्ली खुलूस तामीरी और सेहतमंद अन्दाज सहाफत डिसिपलिन, तर्जएअमल, मुल्की और बैनुअकवामी सियासत पर गहरी नजर समाजी व इन्सानी मसाएल का मुदब्बिराना इदराक का न सिर्फ उर्दू सहाफियों के लिये मशअले राह है बल्कि उनके अफकार, तजुर्बात और नजरियात, अहले इल्म व दानिश और कौम व मिल्ली खिदमात में सरगर्म बाशऊर जेहनों के लिये भी फिक्र व अमल का गेरां कद्र सरमाया थे। हफीज नोमानी साहब ने उर्दू सहाफत के मैदान में जो कारहाय नुमाया अन्जाम दिये वह उर्दू सहाफत की तारीख का सुनेहरा बाब कहा जा सकता है। उनकी तहरीरें कालम और इदारिये अपनी अहमियत और मानूइयत के हवाले से उर्दू के असरी सहाफत के मुकम्म्ल नेसाब का दर्जा रखते थे।
हफीज नोमानी साहब की तहरीरों में जबर्दस्त अदबी चाशनी होती थी मगर उनकी तहरीरें इतनी आम जबान में होती थी कि उनको पढने का लुत्फ भी कुछ और होता था। और इदाउरिया लिखना तो हफीज नोमानी साहब के बायें हाथ का खेल था। कलम उठाते ही ताजातरीन हालात पर दस मिनट में इदारिया लिख दिया करते थे । प्रो0 सारिब रूदौल्वी ने हफीज नोमानी साहब की तहरीरों के बारे मेें लिखा है कि उनकी तहरीरों की सबसे बडी ख्ुासूसियत उनका उसलूब है। और जबान है। अरबी व फारसी के पसे मंजर के बावजूद वह बेहद नफीस जबान लिखा करते थे। प्रो0 शारिब रूदौलवी रकमतराज है कि हफीज नोमानी साहब के कलम में हुकूमते वक्त से कभी डरना नहीं सीखा। उन्होंने हमेशा वही लिखा जो सच था। झूठ तो लिखना जानते ही नहंी थे। हफीज नोमानी साहब कर हकगोई कभी कभी लोगों को नागवार गजरती थी लेकिन उन्होंने कभी भी इसक परवाह नहंी की।
हफीज नोमानी साहब के मजामीन पर मुश्तमिल एक किताब ‘बुझे दिलों की कितार‘ जो उनके अजीज भांजे और उर्दू के मशहूर कलमकार अवेस सम्भली ने मुरत्तब की है। शाया हो कर मंजरे आम पर आ चुकी है। और जिसको बेइन्तेहा पसंद किया गया। इस किताब के मजामीन में हफीज नोमानी साहब ने जिगर मुरादाबादी, मकबूल अहमद लारी, चैधरी सिब्त मो0 नकवी, उमर अन्सारी, लमील मेंहदी, वाली आसी, हाशिम रजा अब्दी, डाॅ0 सआदत अली सिद्दीकी, सलामत अली मेेहदी, महबूब अली दरियाबादी का तजकिरा बहुत ही शान्दार तरीके से किया है। बुझे दिलोें की कितार में हफीज नोमानी साहब ने अपनी शरीके हयात का भी तजकिरा किया है उसको पढ़ कर आंख पुरनम हो जाती है। हफीज नोमानी साहब ने अपनी शरीके हेयात पर लिखा था कि जिन्दिगी के वह डोर जो 52 बरस तक बंधी रहने के बाद एक पल में टूट जाय उसकी तकलीफ और उसका कर्व क्या होता। उसका तजुर्बा 9 जुलाई 2004 की रात 12 बजकर 20 मिनट पर इस तरह कि शरीके जिन्दिगी और रफीके हयात में कलमए तैयबा पढते हुये आखिरी सांस ली और मेरी हैसियत एक पल मेें इतनी बदल गयी कि मैं न अपने हाथों से उन आंखों को बंद कर सका जिन्होंने इस तवील अरसे में हजारों मर्तबा अपना मुन्तजिर पाया था न उस मुंह को हाथ लगा सका जो 52 साल तक सिर्फ मेरे लिये या औलाद के लिये मखसूस था।
हफीज नोमानी साहब के बारे में प्रो0 शारिब रूदौल्वी ने एक मजमून में लिखा है कि अगर वह मसलेहत से काम लेते या हालात से समझौता उनके मेजाज में होता तो मैने उनका वह जमाना देखा है कि बडी आसानी से वेजारत की कुर्सी तक पहुंच सकते थे लेकिन सच बोलने और सच लिखने की वजह से उन्होंने हमेशा अपना नुकसान किया।