सुप्रीम कोर्ट की दो टूक, भूमि अधिग्रहण केस से नहीं हटेंगे जस्टिस अरुण मिश्रा
नई दिल्ली: भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ही सुनवाई करेगी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्रा भूमि अधिग्रहण कानून के तहत उचित मुआवजा, पारदर्शिता और संबंधित मामलों की सुनवाई आगे भी जारी रखेंगे। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने यह फैसला दिया। इस पर जस्टिस अरुण मिश्रा ने भी खुद को सुनवाई से अलग करने से इनकार कर दिया है। दरअसल, कुछ किसान संगठनों ने संविधान पीठ से अनुरोध किया था कि इस मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा पहले फैसला सुना चुके है, लिहाजा उन्हें खुद को संविधान पीठ से अलग कर लेना चाहिए।
इस मामले की पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों की सुनवाई कर रही संविधान पीठ से जज मिश्रा को हटाने की मांग को ‘पीठ का शिकार' करना बताया था। शीर्ष अदालत ने उस दौरान कहा था कि यदि इसकी इजाजत दी गई, तो ‘संस्थान नष्ट' हो जाएगा। बता दें कि जस्टिस मिश्रा को सुनवाई से अलग करने की मांग याचिकाकर्ताओं ने की थी। उनका कहना था कि चूंकि जस्टिस मिश्रा 2018 के फैसले में शामिल थे, इसलिए उन्हें इस सुनवाई से अलग रखना चाहिए।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पक्षकारों के अनुरोध को स्वीकार कर यदि जस्टिस अरुण मिश्रा को पांच जजों की संविधान पीठ से हटाया गया, तो यह इतिहास का सबसे काला अध्याय होगा, यह न्यायपालिका पर हमले जैसा है। पीठ में न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी, न्यायमूर्ति विनीत सरन, न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट्ट भी हैं।
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने किसान संगठनों के वकील श्याम दीवान से कहा कि सुनवाई से जस्टिस मिश्रा को हटाने की मांग करना गलत है। क्या आप पांच जजों की पीठ में अपनी पसंद का व्यक्ति चाहते हैं। यह एक गंभीर मसला है और इतिहास कहेगा कि एक वरिष्ठ वकील भी इस प्रयास में शामिल था। कोर्ट के इस सवाल पर दीवान ने कहा कि एक जज को पूर्वाग्रह की आशंका को देखते हुए सुनवाई से हट जाना चाहिए। ऐसा न होने पर जनता का भरोसा उठ जाएगा और इसलिए वह संस्थान की ईमानदारी को बरकरार रखने के लिए जज को हटाने का निवेदन कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि उनकी प्रार्थना का सरोकार अपनी पसंद के व्यक्ति को पीठ में शामिल कराने से दूर-दूर तक नहीं है और 'वैश्विक सिद्धांत’ हैं जिन्हें यहां लागू किया जाना है। हम सिर्फ इस ओर ध्यान आकर्षित कर रहे हैं।
सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा कि पीठ से उनके अलग होने की मांग करने वाली याचिका 'प्रायोजित’ है। उन्होंने कहा, 'अगर हम इन प्रयासों के आगे झुक गए तो यह इतिहास का सबसे काला अध्याय होगा। ये ताकतें न्यायालय को किसी खास तरीके से काम करने के लिए मजबूर करने का प्रयास कर रही हैं। इस संस्थान को नियंत्रित करने के लिए हमले किए जा रहे हैं। यह तरीका नहीं हो सकता, यह तरीका नहीं होना चाहिए और यह तरीका नहीं होगा।
किसी का भी नाम लिए बिना न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा, 'ये ताकतें हैं जो इस न्यायालय को खास तरीके से काम करने के लिए मजबूर करने का प्रयास कर रही हैं, वही मुझे पीठ में बने रहने को मजबूर कर रही हैं। अन्यथा, मैं अलग हो जाता। उन्होंने कहा कि न्यायाधीश के तौर पर लोगों के लिये संस्थान की रक्षा करने की जिम्मेदारी को वह जानते हैं। उन्होंने कहा, 'इस संस्थान में जो कुछ भी हो रहा है, वह वाकई हैरान करने वाला है’।
दीवान ने विभिन्न निर्णयों का उल्लेख किया और कहा कि जब किसी न्यायाधीश के सुनवाई से अलग होने की मांग की जाती है तो उसे अनावश्यक संवेदनशील नहीं होना चाहिए, इसे व्यक्तिगत रूप से नहीं लेना चाहिए। उन्होंने कहा, 'झुकाव तथ्यों पर हो सकता है, यह कानून के एक सवाल पर भी हो सकता है। यहां हम भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 24 की व्याख्या पर विचार कर रहे हैं। यह पीठ जिस विस्तृत निर्णय विचार कर रही है, वह न्यायाधीश द्वारा दिया गया है और इसमें झुकाव का तत्व है’।
दीवान ने कहा कि मुद्दा यह है कि क्या यह सही है अगर किसी न्यायाधीश ने किसी मुद्दे पर निर्णय लिया है और फिर उस मुद्दे को एक बड़ी पीठ को सौंपा जाता है, तो क्या न्यायाधीश को उस बड़ी पीठ का हिस्सा होना चाहिए? न्यायमूर्ति मिश्रा ने न्यायाधीश के सुनवाई से अलग हो जाने के लिए पांच घंटे से अधिक समय तक निडर होकर बहस करने के लिए दीवान की सराहना की, जिसमें मुश्किल से तीस मिनट लगते। उन्होंने कहा कि यह एक अच्छा गुण है और वकील में यह विशेषता होनी चाहिए।
न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा, ‘अब मेरा सवाल यह है कि अगर आप न्यायाधीश के सुनवाई से अलग हो जाने पर निडर होकर बहस कर सकते हैं तो मुद्दे के गुण-दोष पर निडर होकर बहस करने में क्या हर्ज है’। दीवान ने सराहना के लिए न्यायालय को धन्यवाद दिया और कहा, ‘एक बार पीठ का गठन हो जाता है तो वादी बिना किसी झुकाव के मुद्दे पर फैसला किए जाने की अदालत से उम्मीद करता है। इसी तरह वरिष्ठ अधिवक्ता दिनेश द्विवेदी और गोपाल शंकरनारायणन ने भी न्यायमूर्ति मिश्रा के सुनवाई से अलग हो जाने पर दलील देते हुए कहा कि जरूरत संस्था की रक्षा की है।
केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि एक प्रवृत्ति उभर रही है जिसमें सुनवाई की पूर्व संध्या पर रिपोर्ट और लेख प्रकाशित किए जाते हैं। इस पर, न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा, ‘इन परिस्थितियों के आधार पर मेरा दृढ़ संकल्प मजबूत हुआ है। उन्होंने मुझे सुनने के लिए इस शर्मिंदगी में डाल दिया है। एक निश्चित लॉबी है जो किसी चीज की आड़ में न्यायालय को नियंत्रित करने का प्रयास कर ही है। यह प्रायोजित प्रयास है।
मेहता ने कहा कि यह निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए एक बौद्धिक रूप से गलत तरीका है और सभी जानते हैं कि ये सोशल मीडिया संदेश कहां से उत्पन्न होते हैं और वायरल होते हैं। उन्होंने कहा, ‘किसानों की ओर से भारत के प्रधान न्यायाधीश को एक ज्ञापन भेजा गया जिसे कुछ ही मिनटों के भीतर वायरल कर दिया गया। ये किसान नहीं, बल्कि कुछ अन्य ताकतें हैं’।
न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा कि गरीब किसान इसके पीछे नहीं हैं बल्कि इसके पीछे शक्तिशाली ताकत हैं और "जब मैं इस संस्थान में हूं, तो इसकी रक्षा करना मेरी जिम्मेदारी है।"
न्यायमूर्ति मिश्रा पिछले साल फरवरी में वह फैसला सुनाने वाली पीठ के सदस्य थे जिसने कहा था कि सरकारी एजेन्सियों द्वारा किया गया भूमि अधिग्रहण का मामला अदालत में लंबित होने की वजह से भू स्वामी द्वारा मुआवजे की राशि स्वीकार करने में पांच साल तक का विलंब होने के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। इससे पहले, 2014 में एक अन्य पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि मुआवजा स्वीकार करने में विलंब के आधार पर भूमि अधिग्रहण रद्द किया जा सकता है। शीर्ष अदालत ने पिछले साल छह मार्च को कहा था कि समान संख्या के सदस्यों वाली उसकी दो अलग-अलग पीठ के भूमि अधिग्रहण से संबंधित दो अलग-अलग फैसलों के सही होने के सवाल पर वृहद पीठ विचार करेगी