अली व् ज़ेहरा रसूले ज़मन भी रोते हैं।
फ़रिश्ते रोते हैं जिन्नों बशर भी रोते हैं,
अली व् ज़ेहरा रसूले ज़मन भी रोते हैं।
आज की तारीख़ उस तारिख की पेश ख़ेमा है जब इस्लाम फिर से ज़िंदां हुआ और मुसलमान शर्मिदिगी में डूब गया। करबला के तपते मैदान में तीन दिन की भूख और प्यास में अपने 71 साथियों के साथ इमाम हुसैन ने ज़ामीन और आसमान पर एक ऐसी लकीर खींच दी जिसने इस्लाम और मुसलमान को अलग कर दिया। अगर कोई मुसलमान के अमल से इस्लाम को समझने की कोशिश करे गा तो उसे इस्लाम टुकड़ों में नज़र आये गा, पर अगर कर्बला पर नज़र पड़े गी तो इस्लाम की रूह और सर बुलंदी दिखाई दे गी। इस्लाम ने अल्लाह के बन्दों को बन्दगी का रास्ता दिखाया, इबादत का सही रास्ता बताया। जिस में कुछ हक़ अपना रक्खा तो कुछ अपने बन्दों के लिए रखा। नमाज़ रोज़ा ज़कात ख़ुम्स वग़ैरा अल्लाह की ख़ास इबादत है तो, साथ ही बन्दों के हुक़ूक़ की पासबनी को भी इबादत के दायरे में रखा गया। मुसलमान को हर मिनट सर्फ़े इबादत में बिताना है। अगर इंसानियत से हट कर कोई काम मुसलमान करता है तो वह उसका अमल हो गा इस्लाम से उसका कोई मतलब नही होगा। इसी लिए सज़ा और जज़ा रखी गई।
इमाम हुसैन रसूले की आग़ोश में पले निवासे तो थे ही साथ ही दीने इस्लाम को बचाने वाले भी थे, उन्होंने हर मुसीबत को सहते हुए इस्लाम को ज़िन्दगी बख़्शी जब कि उस वक़्त के मुसलमानों की अक्सरियत इस्लाम को छोड़ कर हुकूमत की ताबेदारी कर रही थी। हुकूमत आती जाती है मगर इंसानी उसूल हमेशा ज़िंदां व् पाइंदा रहते हैं। इंसान के दिल में इंसानियत की शमा सोते जागते रोशन रहती है यही वजह है सड़क पर चलते हुए जब कोई शख्स मुसीबतों का मारा नज़र आता है तो क़दम रुक जाते हैं चाहे वह किसी मज़हब का मानाने वाला हो। दिल बेचैन हो जाता है। मगर किसी ज़ालिम के अमल को कोई इंसानियत नहीं कहता, मज़लूम की मदद या हिमायत ही इंसानियत होती है,
इमाम हुसैन उसी इंसानी क़द्रों को कर्बला में क़ायम कर गए जो अपने नाना ( रसूल )और बाबा ( मौला अली )से पाया था। कुछ को छोड़ कर मुसलमान दुनिया की लालच में बेदीनी का साथ दे कर अपने को ज़लालत का हक़दार बनाए हुए था। बाद में लोगों ने अपने को निकालने की कोशिश की मगर इन कोशिशों में इस्लाम तो एक ही रहा पर मुसलमान कई टुकड़ों में बंट कर बिखर गया। आज भी मुस्लमान कम से कम दो तबक़ों में बंटा हुआ है, एक जो इमाम हुसैन से दीन को हासिल कर के इंसानियत का नारा बुलंद करता है तो दूसरा दहशतगर्दी का खुला मुज़ाहिरा कर के इंसानियत को क़त्ल कर रहा है। इमाम हुसैन ने दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ परचम लहराया था और हमारा फ़र्ज़ है कि हम उस परचम के साए आ कर इंसानियत और इस्लाम को सरबुलंद करें।
कर्बला की हर क़ुरबानी बेमिसाल है मगर दो क़ुरबानी ने इस्लाम को हक़्क़ानियत की मिसाल कायम तक़यमत तक क़ायम कर दी, एक छः महीने के अली असग़र की दुसरे इमाम हुसैन की। छः महीने के बच्चे को, जो तीन दिन के भूखा और प्यासा था को पानी के बदले तीर मार कर यह साबित कर दिया कि यज़ीद इब्ने मुआयविया के मानने वाले इंसानियत से ख़ारिज थे और इमाम हुसैन की शहादत ने यह बता दिया की वो लोग इस्लाम से ख़ारिज थे।
इमाम हुसैन ने हर क़ुरबानी पर सब्र किया, पर अली असग़र की शहादत पर जहां सब्र मजबूर था वहां शुक्र अदा किया। बेशक अली असग़र की क़ुर्बानी ने इस्लाम और इमाम हुसैन की हक़्क़ानियत पर मोहरे कामिल लगा दिया। जो तक़ायमत नहीं मिट सकती, इमाम हुसैन की शहादत ने यह साबित किया कि नाम रख लेने से कोई मुसलमान नही हो जाता, अगर उसके अमल से इस्लामी क़द्रों की झलक न दिखे तो उसे मुसलमान न समझना।
आज नवीं मुहर्रम है, मुसलमान इस्लाम को रौंद कर निवासए रसूल इमाम हुसैन के क़त्ल पर आमादा थे। इमाम हुसैन हर मुमकिन कोशिश कर रहे थे कि अमन क़ायम रहे मगर दहश्त गर्द मुस्लमान इस्लाम को क़त्ल करने पँर आमादा थे, हुआ भी वही मुसलमानों ने अपने ही हाथों अपने दीन को शहीद कर ता क़यामत ज़लालत के कीचड में धंस गये।
मेहदी अब्बास रिज़वी