नाम ‘तारिक़’ का भी हो मीसमे तम्मार के साथ…
सलाम-ओ-अक़ीदत
क़स्र है सहमा हुआ क़दमों की रफ़्तार के साथ…
जैसे मौत आयी हो ज़ंजीर की झनकार के साथ….
कैसे आबिद से करे ज़ुल्म सवाल-ए-बेअत…
डर है दस्तार भी गिर जाएगी तलवार के साथ…
कर्बला देख के लगता है बहत्तर हैं हुसैन…
एक है सबका जवाब एक ही मैयार के साथ…
ग़र्क़ थीं फ़िक्र-ए-शरीयत में रसूलों की सफ़ें…
सब के सर उठ गये शब्बीर के इनकार के साथ…
बिदअत ओ शिर्क के फ़तवों से ये अहसास हुआ…
अब भी कुछ लोग हैं बेअत के तलबगार के साथ…
गिन के आमाल मलक उट्ठे तो मैं बोल पड़ा…
थोड़ी सी ख़ाक-ए-शिफ़ा भी है गुनहगार के साथ…
घर में दीवार पे तस्वीर दरे-काबा की…
दिल में तस्वीर उसी दर की है दीवार के साथ…
राइजुल वक़्त जो सिक्का है तो बस आँसू है…
लोगे क्या हश्र में इन दिर्हम ओ दीनार के साथ…
एक लम्हे को भी ज़ंजीर कहाँ रोक सकी…
वक़्त चलता ही रहा सब्र की रफ़्तार के साथ…
जब कभी ज़िक्र हो हैदर के सनाख़्वानों का…
नाम ‘तारिक़’ का भी हो मीसमे तम्मार के साथ…
—डॉ तारिक़ क़मर