उपचुनाव: सपा मुखिया के सामने वजूद बचाने की चुनौती
तौसीफ कुरैशी
राज्य मुख्यालय लखनऊ। बात 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद की है जब सपा के पूर्व मालिक एवं वरिष्ठ नेता मुलायम सिंह यादव ने अपने लखते जिगर को यूपी जैसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री बनवाया था हालाँकि 2012 के विधानसभा चुनाव के दौरान मुलायम सिंह यादव ने इस बात की किसी को भनक तक भी नही लगने दी थी कि अगर सत्ता में सपा आती है तो मुलायम सिंह नही अखिलेश यादव के सर सजाया जाएगा ताज ऐसा ही हुआ सपा को सत्ता की चाबी मिली और मुलायम सिंह यादव ने अपना सियासी चरखा दांव चल सबको चौंका दिया चाहे वो उनके छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव हो या अन्य समाजवादी लेकिन फ़ैसला सपा के मालिक का था इस लिए कोई चाहकर भी विरोध नही कर पाया लेकिन उनके अंदर विरोध की भावना बनी रही जो सरकार के अंतिम दौर में सड़कों पर आ गई विरोध से तिलमिलाएं अखिलेश ने आननफानन में सपा का अधिवेशन बुलाकर मुलायम सिंह यादव को ही सपा के मालिक के ताज को उनसे छीनकर स्वयं ही पहन लिया और सपा के नए मालिक बन गए नए मालिक के इर्दगिद रहने वाले तो दबी ज़ुबान व खुले तौर पर मुलायम सिंह यादव को बुढ़ा हो गया है दिमाग ठीक नही रहा इस तरह की बातें करने लगे थे इस सारे घटनाक्रम से आहत मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई को न चाहकर भी मजबूरन अलग पार्टी बनानी पड़ी ये परिवार की जंग का ही नतीजा था कि यह विवाद अलग दल तक जा पहुँचा शिवपाल ने अलग पार्टी का गठन कर लिया।मुलायम सिंह यादव ने सपा में अपने पुत्र को स्थापित करने के लिए ये किया था बदलाव प्रकृति का नियम है ,वही यह भी सच है कि बदलाव हमेशा सार्थक नही होता है।इसकी सार्थकता के लिए आपके पास कुछ नया करने का जज़्बा भी होना ज़रूरी है नही तो इस तरह के बदलाव के नतीजे ठीक उसी तरह होते है जैसे वेंटिलेटर पर पड़ा मरीज़ अंतिम सांसे गिन रहा हो और चिकित्सक लाचार होकर किसी अजूबे की प्रतीक्षा करने लगता है और थक हार कर चिकित्सक भी एक्सपेरिमेंट्स करने लगते है वही हाल सपा का हो गया है सपा के नए मालिक विधानसभा और लोकसभा में मिली हार से थक नए-नए एक्सपेरिमेंट्स कर रहे है अब वह सार्थक होगे या नही होगे यह तो कहना मुश्किल है अभी तक कांग्रेस और बसपा से किए गए गठबंधन के एक्सपेरिमेंट्स में तो वह फेल रहे है।सपा के मालिक अखिलेश यादव ने सभी इकाइयों को भंगकर दिया है नए सिरे से गठन करने की बात कह रहे है सियासी जानकार अखिलेश के फ़ैसले पर सवाल उठा रहे है उनका तर्क है कि एक तरफ़ यूपी में 13 सीटों पर उपचुनाव होने जा रहे है और सपा अपनी इकाइयाँ भंगकर बैठ गई यह तो भविष्य ही बताएगा कि सपा के मालिक का ये फ़ैसला सही या नही मगर इस बात से इंकार नही किया जा सकता कि सियासी जंग जीतने के लिए संगठन और उसके नेतृत्व की भूमिका बडी होती है जिस भी पार्टी का संगठन और नेतृत्व कमजोर पड़ा उसका सियासत साथ छोड देती है रालोद जैसे दल उसके गवाह है कमजोर दल का नेतृत्व लम्बे समय तक सियासी पिच पर नही टिक सकता उसे आउट होकर पेवेलियन लोटना ही पड़ता है ख़ासकर भारत की सियासी पिच तो यही संकेत देती है।केन्द्र की सियासी पिच पर आजादी से लेकर आज तक ऐसा ही देखने को मिला है यही परंपरा पूर्व से पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक के सभी राज्यों की सियासी पिच का भी यही हाल रहा है।बिहार की सियासत में दमदार चेहरा लालू प्रसाद यादव को सियासी लडाई के चलते जेल जाना पड़ा क्योंकि भारत की सियासत में लालू एक नाम ऐसा है जिसने कभी साम्प्रदायिकता से हाथ नही मिलाया और वह संघर्ष कर रहे है टूटना उनकी फ़ितरत में नही है इसी मजबूरी के चलते राष्ट्रीय जनता दल की कमान उनके पुत्र के हाथ आई और वह भी संघर्ष से पीछे नही हट रहे है लेकिन मुलायम सिंह यादव को तो उनके होनहार पुत्र ने ज़बरदस्ती हाशिए पर ला खड़ा किया और स्वयंभू सपा के मालिक बन गए और लगातार अपना सियासी क़द घटाते जा रहे है।सपा के मालिक न तो अपने नेताओं को साथ रख पा रहे और न ही पिता के साथियों के साथ समन्वय बना पा रहे है इतना ही नही वह अपने वोटबैंक को भी सुरक्षित नही रख पा रहे है हाँ सिर्फ़ बँधवा मज़दूर की हैसियत बना चुके मुसलमान को छोड़कर कोई सपा के पाले में आज दिखाई नही देता है सहजातिये यादव वोटबैंक तो पिछले दो चुनाव से मोदी की भाजपा में सिफ्ट हो गया है ये देख अब सपा में अपनी बँधवा मज़दूर की हैसियत बना चुके मुसलमान भी अपने लिए नए घर की तलाश में महसूस किया जा सकता है हालाँकि मुलायम सिंह यादव ने अपने विरोधियों को मुसलमानों में सेंध नही लगाने दी और अपनी फितरती चालों से मुसलमान को अपने से दूर नही जाने दिया यही वजह रही मुलायम की सियासी चालों से बड़े-बड़े नेता “ढेर” हो जाते थे चाहे कांग्रेस हो या बसपा उनके नेताओं के लाख प्रयास के बाद भी वह सफल नही हो सके।अखिलेश यादव की ढुलमुल नीति की वजह से एक बहुत बड़ा वोटबैंक छिनभिन्न होता जा रहा है वह कभी काँग्रेस से तो कभी बसपा से गठबंधन कर खुद को ऊपर उठाने का असफल प्रयास कर रहे है।अखिलेश न तो सपा को संभाल पाए न परिवार को सपा में बग़ावत के सुर उठने लगे है सपा के कई बड़े नेता या तो किनारा कर गए या छोड़कर दूसरे दलों में सिफ्ट हो गए जिसके चलते सपा का लगातार ग्राफ़ गिरता जा रहा है ऐसा लग रहा है कि यूपी में होने जा रहे 13 विधानसभाओं के उपचुनाव में भी सपा को करारी हार का सामना करना पड़ेगा अभी लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार से अखिलेश अपने आपको उभार नही पा रहे है अखिलेश की अपरिक्तत्ता का अहसास इसी से लगाया जा सकता है कि बसपा ने उपचुनाव के लिए दो सीटों को छोड़कर सभी सीटों पर प्रत्याशी घोषित कर दिए है और अखिलेश अभी संगठन को चुस्त करने में लगे है सपाइयों द्वारा कहा जा रहा है कि यूपी में लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद समाजवादी को नया रूप देने में जुटे है सपा में युवाओं को तर्जी दी जाएगी और नई जातियों को जोड़ने के प्रयास को मज़बूती दी जाएगी वह लगातार साथियों से मंथन कर रहे है संगठन को नए तरीक़े से मजबूत किया जाएगा सपा का फ़ोकस ऐसी जातियों पर रहने की संभावना व्यक्त की जा रही है जो आसानी से सपा के साथ जुड़ जाए जबकि ऐसा होना संभव नही लग रहा है।सपा को अपना अस्तित्व बचाने के लिए कई तरह की सियासी जंग लड़नी होगी तब जाकर कुछ हो सकता है फिलहाल ऐसा कोई रास्ता नही दिखाई दे रहा है कि सपा सियासी पिच पर मज़बूती से रन बनाती नज़र आए।परिवार की लडाई को खतम करना बहुत ज़रूरी है लेकिन इस ओर सपा के मालिक अखिलेश कोई पहल करते नही दिख रहे है इन्हीं कमियों के चलते बसपा सपा को लोकसभा चुनाव में बोना साबित करने में सफल रही।यूपी में होने जा रहे 13 सीटों के परिणाम यह तय करेगे कि कौन मोदी की भाजपा से लड़ने में सक्षम है 2022 के विधानसभा चुनाव में भी उसी दल को वोटर प्राथमिकता देगा जो इन चुनावों में मजबूत लडाई लड़ेगा। यूपी में मुसलमान वोटबैंक पर दो दलों की बारिक नज़र है बसपा व काँग्रेस ये दोनों दल मुसलमान को अपने पाले में लाना चाहते है अब ये मुसलमान को तय करना है कि वह दोनों में से किस दल के पाले में जाता है बसपा पर वह विश्वास नही करता और काँग्रेस पर कोई प्लस वोट नही है जिसकी वजह से उसे फ़ैसला लेने में दिक्कत आ रही है लेकिन मुसलमान को फ़ैसला करना ही पड़ेगा कि उसे किस तरफ़ जाना है इस लिए कहा जा सकता है कि अखिलेश यादव का सियासी भविष्य बचाना कठिन होता जा रहा है।