याद किये गए बशीर फारूकी
लखनऊ: ‘उर्दू शायरी के इतिहास में लखनऊ की षायरी कर अपना अलग मुकाम है। खासतौर से यहां से पनपे गजलगोई के षाइस्ता अंदाज़ का नूर सारी दुनिया में रोषन हुआ है। इसी अदबी माहौल में कामयाब षायर बशीर फारूकी ने हर्फों से जूझते हुए अपनी अलग पहचान बनाई।’ ये उदगार रखने के साथ उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी की चेयरपर्सन पद्मश्री प्रो.असिफा जमानी ने बशीर फारूकी की याद में आयोजित षोकसभा में व्यक्त करते हुए मरहूम षायर पर अकादमी की ओर से संगोष्ठी व प्रकाषन किये जाने की घोषणा की। सभा का आयोजन अदबी संस्थान और हिंदी उर्दू साहित्य अवार्ड कमेटी के संयुक्त तत्वावधान में आज षाम यहां अमीरुद्दाला इस्लामिया डिग्री कॉलेज में किया गया था।
अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ लेखक अहमद इब्राहिम अल्वी ने कहा कि बशीर फारूकी की शायरी का रंग लखनऊ के उनके समकालीन शायरों से अलग था। वे शब्दों का ऐसा गजब का उपयोग करते थे कि उनके शेर के अर्थों का विस्तार होता था। एडवोकेट जफरयाब जीलानी ने कहा कि मेरा उनसे तआल्लुक षेरो-शायरी के कारण नहीं, बल्कि, इसी इस्लामिया कॉलेज की वजह से था जहां की वे पैदावार थे और जहाँ से मैंने भी ज्ञान अर्जित किया है। उनसे यह दोहरा रिष्ता प्रबंध समिति में होने के नाते यहां उनके सम्मान में संगोष्ठी आयोजित कर निभायेंगे। पूर्व प्रषासनिक अधिकारी व शायर अनीस अंसारी ने बताया की बशीर फारूकी शायरी की बारीकियों को अमल में लाने वाले विद्धान थे। यही बारीकियां उनके उस्ताद शायर होने का प्रमाण हैं। उनका अंदाज बहुत आकर्षक था और जिन्हें वे अपने कलामों में मजबूती से पेष करते थे। हिन्दी-उर्दू अवार्ड कमेटी के सचिव अतहर नबी ने बषीर फारूकी के साहित्यिक योगदान के वास्तविक मूल्यांकन की जरूरत जताते हुए कहा कि एक उस्ताद षायर हमसे दूर हो गया। उनका बिछड़ना बड़ी तकलीफ का सबब रहा। शायर सुहैल काकोरवी ने कहा कि गालिब के बाद उन्हें सब से ज्यादा शेर बशीर फारूकी के याद हैं। सुहैल ने उनके मिजाज की शोखी और शरारत का भी उल्लेख किया जिससे अक्सर उनके शेरों में और भी ताजगी पैदा हो जाती थी। बषीर फारूकी के उनके निधन की खबर को बहुत मुश्किल से बर्दाश्त करने वाले बताते हुए लेखक व रंगनिर्देषक विलायत जाफरी ने उनका षेर- ‘पहले हम ने घर बना कर फासले पैदा किए, फिर उठा दीं और दीवारें घरों के दरमियाँ’ सुनाते हुए कहा कि उनके निधन की खबर सुनकर वह सहजता से उसपर विष्वास नहीं कर पाये। बषीर हमेषा गजल के लिये याद रखे जायेंगे। अहमद इरफान अलीग ने कहा की बशीर फारूकी ने उस प्रतिस्पर्धा वाले लखनवी माहौल में अपनी अलग पहचान बनायी जब यहाँ गजल के उस्ताद फनकार विशेषकर पुराने लखनऊ में मौजूद थे और जिनके सुखन की गूँज आज भी मेरे कानों में मौजूद है, उन सब ने बशीर फारूकी की शायरी को सराहा और उनकी फनकारी को हौसला दिया।
शायर अम्बर बहराइची ने कहा कि शायरी से अलग हटकर हम सब उनकी शख्सियत का सम्मान करते थे। शिष्टाचार और आपसी संबंधों में प्रेम के तत्वों ने सम्मिलित होकर उन्हें हरदिल अजीज बनाया था। संतोष वाल्मीकि ने कहा की बशीर फारूकी की शायरी में उर्दू गजल की शानदार परम्पराओं का विकास बेहद खूबसूरती से हुआ। वे हिंदी और उर्दू के कलमकारों से बराबर से संपर्क में रहते थे और दरगाह दादा मियां में साल में एक बार शायरों और कवियों को एक मंच पर इकट्ठा कर देते थे। हिंदी के कवि व कथाकार तरुण प्रकाश ने उनकी प्रभावशाली गजल की शैली की विशेषताओं पर अपनी बात रखी और कहा कि बषीर की शायरी से वे पहले से प्रभावित थे मुलाकात के बाद ये प्रभाव और गहरा हुआ। परवेज मलिकजादा ने अपने पिता प्रो.मलिकजादा मंजूर अहमद और बषीर फारुकी के घनिष्ट संबंधों का जिक्र करते हुए कुछ संस्मरण रखे। सभा का संचालन कर रहे हसन काजमी के साथ तारिक सिद्दीक़ी ने भी विचार रखे। अंत में संयोजक अनवर हबीब अल्वी ने आत्मा की शांति की दुआ कर सभी का आभार व्यक्त किया। आरम्भ में इरफान लखनवी व फारुक आदिल ने नातख्वानी की।