मनुष्य की बुद्धि में प्रश्न यह है कि सही क्या है?
– प्रदीप कुमार सिंह, लेखक, लखनऊ
तर्क दो तरह के होते हैं। पहला तर्क वह है, जिससे हम औरों को गलत साबित करना चाहते हैं। वह क्या कह रहा है, इससे कोई खास लेना-देना नहीं है। बस, उसे गलत ठहराना ही है। इस तर्क से केवल हम अपने अहंकार को सिद्ध करना चाहते हैं। ऐसा तर्क व्यर्थ तथा भ्रष्ट है इसको भारत की बौद्धिकता अर्थात विवेक ने कुतर्क कहा है। कुतर्क को कैसे भी और कितना भी विकसित कर लिया जाए, इससे किसी मनुष्य के जीवन का न तो कल्याण हो सकता है और न ही जीवन का रूपांतरण। इसके अलावा इससे भिन्न एक तर्क और भी है। इसका प्रयोग विवेक की खोज के लिए होता है। तब सवाल यह नहीं है कि दूसरा गलत है। तब सवाल यह है कि सही क्या है?
कौन कह रहा है, यह कीमती तथा विशेष नहीं है। विशेष यह है कि सत्य क्या है? इस तर्क के लिए कोई व्यक्ति नहीं वरन् सत्य मूल्यवान है जो सच है, वही सच है, फिर वह मेरे पक्ष में हो अथवा विपक्ष में। ऐसा तर्क सत्य को परखता है। उसे सोने की तरह परखता है कसौटी पर। ऐसा तर्क विचार की क्षमता, निर्णय और निर्णय का शास्त्र एक कला है। ऐसी स्थिति में पक्ष या विपक्ष कोई कसौटी नहीं होता। कसौटी होता है तर्क, एकदम निष्पक्ष कसौटी। इसमें अपने को भी उसी पर कसना होता है और दूसरों को भी उसी पर कसना होता है। जो मेरे लिए सत्य है वही किसी और के लिए भी सत्य है। यह सत्य के खोजी की साधना है। परहित या लोक कल्याण ही सत्य है तथा उसका उलटा किसी को पीड़ा पहुँचना असत्य है।
सदियों से मानव समाज में अनेकों प्रकार की धार्मिक तथा सामाजिक कुरीतियों ने समाज के विकास में बाधायें उत्पन्न की हैं। अन्धकार का कोई अस्तित्व नहीं होता है। प्रकाश का अभाव ही अन्धकार है। संसार में अज्ञान का बहुत अंधेरा है यदि उसे हम गाली देकर या लाठी लेकर भगाने की कोशिश करेंगे तो वह नहीं भगेगा। हमें अन्धेरे को भगाने के लिए एक दीप जलाने की कोशिश करनी पड़ेगी। इसलिए कहाँ जाता है कि अज्ञान रूपी अन्धकार को धिक्करने में क्यों समय बरबाद करें इसमें अपना समय बरबाद होने से बचाना विवेक बुद्धि है। संसार में मनुष्य की समझ की दो श्रेणियाँ हैं -एक सहज बुद्धि तथा दूसरी विवेक बुद्धि। जो मनुष्य केवल खाने, सोने, भय, बच्चे पैदा करने तक सीमित रहता है उस प्रकार के मनुष्य को सहज बुद्धि की श्रेणी में गिना जाता है। पशु की समझ भी खाने, सोने, भय, बच्चे पैदा करने तक सीमित है। जिन मनुष्यों में खाने, सोने, भय, बच्चे पैदा करने के अलावा अच्छे-बुरे कार्यों की विवेकपूर्ण बुद्धि भी होती है वे मनुष्य विवेक बुद्धि की श्रेणी में आते हैं।
अपने अस्तित्व के परम उद्देश्य को जानने की विवेक की विद्या ऐसी परम विद्या है, जिससे हम अपने स्वयं को जानते हैं। संभव है विवेक बुद्धि वाला व्यक्ति कुछ और न जानता हो, पर वह स्वयं को जरूर जानता होगा। महात्मा कबीर ने घोषित किया- मसि कागद छुओ नहिं, कलम गहवो नहि हाथ। कागज, स्याही, कलम को हाथ नहीं लगाया। दुनिया की सारी विद्याएँ तो इसी पर निर्भर हैं। इन्हें पढ़ने, सीखने, जानने, समझने के लिए स्याही, कागज, कलम को पकड़ना पड़ता है। इन्हें हाथ लगाना पड़ता है, लेकिन इनके बगैर ही वह स्वयं को जान गए। उन्होंने कुछ और नहीं, बल्कि विवेक की विद्या सीखी। यही स्थिति संसार के अनेक महापुरूषों की थी संसार तो नहीं पढ़ा, पर अपने अस्तित्व के सत्य को पढ़ा और स्वयं को जान गए।
जीवन के विकास के लिए संसार में विद्याएँ अनेकों हैं, इन्हें अनंत भी कहा जा सकता है, लेकिन अपने अस्तित्व के परम उद्देश्य को जानने की विवेक की विद्या गुणवत्ता की दृष्टि से अलग है। अगर कोई फिजिक्स जाने, तो कोई केमिस्ट्री का जानकार हो जाए, कोई ज्योतिष अथवा संगीत जान ले और और भी बहुत सारी विद्याएँ हैं, उन्हें जान ले, कितना भी ज्ञानी अथवा पारंगत हो जाए तो भी अपने से अनजान, अपरिचित रहता है। बडे़ से बड़ा संगीतकार खुद के स्वरों से अपरिचित रहता है। सारे वाद्यों को बजा लेने की क्षमता वाले व्यक्ति की स्वयं के भीतर की वीणा सूनी और अनछुई ही रह जाती है। इसी तरह जो गणित के सर्वश्रेष्ठ जानकार हैं, वे कितनी संख्याओं को क्यों न जोड़-घटा लें, लेकिन स्वयं संख्या एक की यों ही रह जाती है।
हमें पूरे मन से जो प्रमाणित रूप से सही है उस विवेक तथा ज्ञान रूपी प्रकाश को सर्वजन सुलभ बनाने में अपनी पूरी शक्ति लगाकर समाज को प्रकाशित करना चाहिए। कहते है जिनके पास सच्चाई को बताने के लिए पर्याप्त, प्रमाणित तथा संतुलित शब्द होते वे अपना पक्ष प्रमाण के साथ रखकर विपक्ष का हृदय भी जीत लेता है। वहीं दूसरी ओर पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यक्ति सच्चाई को बताने के लिए कठोर शब्दों का सहारा लेता है। इस प्रकार वह पक्ष तथा विपक्ष दोनों को ही घायल कर देता है। किसी समाजोपयोगी विचार में आग से भी अधिक गर्मी होती है। इस विचार की सार्थकता तभी है जब उसे सर्वजन सुलभ बनाया जाये।
स्वयं को जानने से ही जीवन का परम आनंद घटित होता है। अंततः मृत्यु के पार ले जाने वाला जो शाश्वत सूत्र है, वह स्वयं को जानने से घटित होता है। सारा कुछ जाना हुआ, सीखा हुआ, अंततोगत्वा पड़ा रह जाएगा, जो मेरे साथ जीवन के अंतिम क्षण तक रहेगा, वह केवल मेरे स्वयं का बोध है। वैसे भी ज्ञान वही है, जो मौत के पार जा सके। सच्चा ज्ञान उसी को कहेंगे, जिसे चिता की लपटें भी न जला सकें। मृत्यु जिसे नष्ट कर दे, वह तो ज्ञान है ही नहीं। बौद्धिक तथा विवेक बुद्धि वाले व्यक्ति मरने के बाद भी संसार में अपने समाजोपयोगी विचार तथा कार्यों के कारण युगों-युगों तक जीवित रहते हैं। मौत के समय ही ज्ञान की परख होती है। बहुत कुछ जानने, सीखने, बोलने वाले मरते वक्त बड़े ही दीन-हीन हो जाते हैं, लेकिन सत्य के खोजी नहीं होते। वह मृत्यु के क्षण भी अपने सत्य के ज्ञान में जीते हैं। ऐसे व्यक्ति ही कबीर ने विवेक विद्या को जानकर ही घोषणा कर दी- जिहि मरने ते जग डरै, मेरे मन आनंद।
समाज का आधार आत्मीयता, एकता एवं पारिवारिकता की इस वैचारिक अभियान में धुरियों पर टिका हुआ है। हम लोग हमेशा बौद्विक तथा वैचारिक रूप से एकदूसरे से जुड़े रहेंगे। साथ ही नये लोगों को भी जोड़ने के लिए प्रयासरत रहेंगे।