मोदी सरकार की दुखती रग ‘रोजगार’
-आशीष वशिष्ठ
मोदी सरकार के कार्यकाल के साढेे चार साल लगभग पूरे हो चुके हैं। वैसे तो किसी भी चुनी हुई सरकार के लिए हिसाब देने का वक्त 5वें साल में होता है। लेकिन, सच यही है कि, चैथे साल के रिकॉर्ड से ही करीब साल भर बाद होने वाले चुनावों में जनता फैसला लेगी, और, यह भी सही है कि, पांचवें साल में सरकार अगले 5 साल के लिए चुनाव की नजर से माहौल बनाना शुरू कर देती है। भाजपा अपनी सरकार को जबरदस्त कामयाब बताते हुए कई उपलब्धियां गिना रही है। ऐसा करते वक्त उसका सबसे ज्यादा जोर आर्थिक मोर्चे पर दिख रहा है। इसके लिए वह कई आंकड़े भी पेश कर रही है। लेकिन मुद्रा योजना के तहत बांटे गए लोन को छोड़कर रोजगार के मामले में खुद मोदी सरकार ही ज्यादा दावे नहीं कर रही है।
यह भी कहा जा सकता है कि अपनी तमाम उपलब्धियों के बीच बड़ी सफाई से मोदी सरकार रोजगार सृजन के ‘कमजोर आंकड़ों’ को ढक रही है। एक अनुमान के अनुसार देश के करीब 34 करोड़ युवा बेहतर रोजगार की तलाश में हैं। जिस देश में रेलवे की 90 हजार नौकरियों के लिए दो करोड़ 37 लाख अभ्यर्थियों के प्रार्थना पत्र आते हों उस देश के आर्थिक विकास के दावों की असलियत को समझने में किसी सामान्य नागरिक को भी ज्यादा दिमाग लड़ाना नहीं पड़ेगा। अर्थशास्त्रियों का भी दावा है कि रोजगार के मामले में मोदी सरकार को कामयाब नहीं कहा जा सकता।
खासकर तब जब आगरा में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए 22 नवंबर, 2013 को नरेंद्र मोदी ने दावा किया था कि यदि भाजपा की सरकार बनी तो हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार दिया जाएगा। उन्होंने मनमोहन सरकार पर ‘जॉबलेस ग्रोथ’ का आरोप जड़ा था। 2014 में यूपीए सरकार की हार के पीछे अहम कारणों में बढ़ती बेरोजगारी शुमार थी। लेकिन सच्चाई ठीक इसके उलट नजर आ रही है। बीते चार साल के दौरान मोदी सरकार के कार्यकाल में बेरोजगारी के आंकड़ों में सुधार का इंतजार जारी रहा। सरकार प्रॉविडेंट फंड के आंकड़े के जरिये साबित करना चाहती थी कि सितंबर 2017 और फरवरी 2018 के बीच ही 31 लाख नई नौकरियां पैदा की गई हैं, लेकिन सरकार के इस दलील लोगों को सहमत नहीं कर पाई।
जब त्रिपुरा के मुख्यमन्त्री यह कहते हंै कि किसी स्नातक युवक को गाय पालकर उसका दूध बेचकर कुछ कमाना चाहिए, न कि नौकरी की तलाश करने में समय गंवाना चाहिए, तो वह अनजाने में ही इस सत्य को उजागर कर देता है कि सरकार तो खुद नौकरियां कम कर रही है। पूरे देश में सभी राज्यों में कम से कम पचास लाख से अधिक नौकरियों को जाम कर दिया गया है। इनमें महाराष्ट्र का नम्बर सबसे ऊपर है। यदि सभी राज्यों का ब्यौरा दिया जाए तो मध्य प्रदेश ऐसा दूसरा राज्य है जिसमें पिछले 15 साल में सरकारी नौकरी के नाम पर पूरी युवा पीढ़ी को जमकर दिग्भ्रमित किया गया है। उत्तर प्रदेश में तो रोडवेज से लेकर बिजली के दफ्तरों में भर्ती इस तरह बन्द है जैसे किसी बर्फ की दुकान पर गर्मी पड़ने से वह पानी हो जाती है।
इस स्थिति की तरफ पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने बहुत ही संजीदगी के साथ अपने अन्तिम कार्यकाल वर्ष में बेंगलुरु विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह को सम्बोधित करते हुए चेताया था। उन्होंने कहा था कि यदि हमने जनसांख्यिकी लाभ (डैमोग्रेफिक डिवीडेंड) को समय रहते सही दिशा में नहीं लगाया तो यह बहुत बड़ी देनदारी या बोझ (लाइबिलिटी) बन जाएगा। प्रणब दा का आशय यही था कि 65 प्रतिशत युवा जनसंख्या वाले देश की इस पीढ़ी को रोजगार के व्यापक साधन सुलभ कराने की कोशिशें पूरी मुस्तैदी के साथ शुरू की जानी चाहिएं मगर हम तो पकौड़े बेच कर रोजगार पाने के गुर बांट रहे हैं और अपनी पीठ थपथपा रहे हैं और ऐसे आंकड़े पेश करने से बाज नहीं आ रहे हैं जो किसी जासूसी उपन्यास का हिस्सा नजर आते हों। बेरोजगारी के इस विस्फोट को रोकने का कोई जादुई तरीका निश्चित रूप से नहीं हो सकता है।
एक तरफ मोदी सरकार देश में रोजगार बढ़ने का दावा कर रही है और दूसरी तरफ देश में बेरोजगारी की दर बढ़ती जा रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाली निजी एजेंसी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआईई) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, देश में पिछले एक साल में बेरोजगारी दर 70 प्रतिशत बढ़ चुकी है। रिपोर्ट के मुताबिक, जून 2018 में देश की बेरोजगारी दर 5.67 प्रतिशत हो चुकी है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार 2014 में देश में बेरोजगारी की दर 3.41 फीसदी थी जो अगले तीन सालों में बढ़ते हुए 3.49, 3.51 और 3.52 फीसदी हो गई। वैसे अर्थशास्त्रियों का मानना है कि किसी भी अच्छी अर्थव्यवस्था में चार फीसदी से ज्यादा बेरोजगारी ठीक नहीं होती है।
श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक भी अप्रैल 2018 आते-आते भारत दुनिया में सर्वाधिक बेरोजगारों वाला देश बन चुका है। हाल ही में आए आरबीआई के कंज्यूमर कांफिडेंस सर्वे के मुताबिक, 31.5 प्रतिशत लोगों को लगता है कि रोजगार के मौके बेहतर हुए हैं जबकि 24.4 प्रतिशत को लगता है कि इस मोर्चे पर कोई सुधार नहीं हुआ है और 44.1 प्रतिशत लोगों का मानना है कि रोजगार के मौके खत्म हुए हैं। हालांकि भारत में रोजगार पर किसी विश्वस्त और विस्तृत सर्वेक्षण के अभाव में इसकी सही स्थिति का आकलन कर पाना हमेशा से एक मुश्किल काम रहा है। लेकिन कुछ महीने पहले आई एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि बीते चार सालों में केवल 36 लाख सालाना की दर से ही रोजगार पैदा हो पाए हैं। वहीं लेबर ब्यूरो के अनुसार अर्थव्यवस्था में आठ फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले संगठित क्षेत्र में 2014 से 2016 के बीच तीन लाख से भी कम की औसत से रोजगार पैदा हुए हैं। हालांकि संगठित क्षेत्र के आकार और प्रधानमंत्री के वादे को देखते हुए इससे हर साल करीब 16 लाख रोजगार पैदा करने की जरूरत थी।
सरकार अकेले ही सारे रोजगार पैदा नहीं कर सकती। इसलिए सरकार उद्यमिता की भावना सुनिश्चित करने के लिए भी काम कर रहे हैं। स्टैंड अप, स्टार्ट अप इंडिया और मुद्रा योजनाओं को इसी दिशा में उठाए गए कदम के रूप में देखा जा सकता है। स्टार्ट अप इंडिया के अच्छे नतीजे देखने को मिल रहे हैं। आज हमारे देश में आइडिया और इनोवेशन की कोई कमी नहीं है। मौजूद समय में भारत दुनिया के टॉप पांच देशों की सूची में दूसरे नंबर पर है जहां करीब 9,500 से लेकर 10,500 स्टार्टअप कंपनियां मौजूद हैं और इस नए कैंपेन की घोषणा से सरकार आने वाले वर्षों र्में 30,000 स्टार्टअप्स बनाने का लक्ष्य तय कर रही है। उदाहरण के तौर पर ‘ओला कैब’ जो चार साल पुरानी स्टार्टअप कंपनी है पर यह आज छोटे-बड़े शहरों में कैब की सुविधा प्रदान कर रही है और इसने अब तक करीब दो लाख ड्राइवरों को रोजगार दिया है। विशेषज्ञों की राय है कि स्टैंड अप इंडिया जैसी पहल को अभी महज एक साल ही हुआ है इसलिये इसका आकलन फिलहाल जल्दबाजी होगा लेकिन इससे स्टार्टअप इकोसिस्टम को प्रोत्साहन जरूर मिला है।
यह तस्वीर का एक रूख है। रोजगार के मसले पर विपक्ष मोदी सरकार पर हमलावर मुद्रा में है । विपक्ष का आरोप है कि मेक इन इंडिया से लेकर डिजिटल इंडिया सिर्फ योजनाओं का नाम भर रहा, जमीन पर कुछ देखने को नहीं मिला। लेकिन मेक इन इंडिया का बेहतर परिणाम समझने के लिए इस आंकड़ों को जरूर जानना चाहिए। जब नरेंद्र मोदी की सरकार आई थी तो, भारत में मोबाइल बनाने की कम्पनी थी, आज देश में 120 मोबाइल मैन्यूफैक्चरिंग इकाईयां लगी हुई हैं। अभी हाल ही में दुनिया की बड़ी मोबाइल निर्माता कंपनी सैमसंग ने उत्तर प्रदेश में विश्व की सबसे बड़ी उत्पादन इकाई की स्थापना की घोषणा की है। वहीं यूपी ने इंवेस्टर्स समिट का सफल आयोजन कर नयी आशा का संचार किया है।
रोजगार के मोर्चे पर चौतरफा वार झेल रही मोदी सरकार अब स्वरोजगार पाए लोगों का आंकड़ा भी रोजगार पाए लोगों की सूची में शामिल करने पर विचार कर रही है। ऐसा करने के पीछे सरकार की होशियारी देखिए कि इस से अगर ऐसा होता है तो पिछले चार साल में नौकरी पाने वालों की संख्या में आश्चर्यजनक इजाफा हो सकता है। इसके लिए केंद्रीय श्रम मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के जरिए ऋण लेकर स्वरोजगार करने वालों का आंकड़ा जोड़ने पर विचार किया जा रहा है। असल में श्रम ब्यूरो जो रोजगार पर आंकड़े जारी करता है, श्रम मंत्रालय के अधीन काम करता है। माना जा रहा है कि अगले साल यानी 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले मोदी सरकार श्रम ब्यूरो के आंकड़ों को लोगों के सामने रखकर अपनी पीठ थपथपाएगी।
जानकारों के मुताबिक बेरोजगारी दूर करने के लिए जरूरी है कि सबसे पहले सरकारी नौकरियों पर पड़े तालों को खोला जाए। आर्थिक मोर्चे पर तमाम अहम फैसलों व उपलब्धियों के बावजूद रोजगार के आंकड़े इस बात की चुगली करते हैं कि बीते चार सालों में कुल मिलाकर भी दो करोड़ रोजगार सृजित नहीं हो सके हैं। यही वजह है कि आलोचकों का मानना है कि केंद्र सरकार यदि दोबारा सत्ता में आना चाहती है तो उसे रोजगार बढ़ाने के लिए जल्द ही कुछ ठोस उपाय करने होंगे और ऐसा न हुआ तो नाराज युवा केंद्र की सत्ता में उसकी वापसी पर ग्रहण लगा सकते हैं।