सीबीआई के बहाने मोदी सरकार को घेरने में जुटा विपक्ष
-आशीष वशिष्ठ
देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी में मची घमासान पर विपक्ष राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आ रहा। विपक्ष को सीबीआई के बहाने मोदी सरकार को घेरने का नया मौका मिल गया है। इसलिए कांग्रेस ने बड़ी चतुराई से सीबीआई और राफेल को आपस में जोड़ने का काम किया है। दरअसल, सीबीआई के अंदर भ्रष्टाचार के एक मामले को लेकर जो दो शीर्ष के अफसरों में जंग शुरू हुई अब वह खुले मैदान में है। रातोरात जिस तरह दोनों अधिकारियों को छुट्टी पर भेज दिया गया और पूरी टीम को बदल दिया गया, उससे मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने सीवीसी से मामले की जांच निश्चित समय में करने के निर्देश दिये हैं। बावजूद इस मामले में जमकर राजनीति हो रही है।
ऊपरी तौर पर मामला दो आला अफसरों की लड़ाई का लगता है। हो सकता है ये बात सच भी हो। लेकिन श्री अस्थाना और श्री वर्मा के बीच शुरू हुई कीचड़ फेंक प्रतियोगिता जिस तरह से केंद्र सरकार विरुद्ध विपक्ष में तब्दील गई और घूसखोरी का आरोप रॉफेल की जांच से जाकर जुड़ गया उसके बाद अब ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि प्रधानमंत्री भले सीधे न कहें किन्तु सरकार की ओर से देश को विश्वास दिलाना जरूरी हो गया है कि सीबीआई में उच्च स्तर पर प्रारम्भ हुई जंग से उसका कोई लेना-देना नहीं है। चूंकि ये जांच एजेंसी सीधे-सीधे प्रधानमंत्री के मातहत होती है इसलिए उसकी जो छीछालेदर इस झगड़े में हो रही है उससे प्रधानमंत्री कार्यालय अछूता नहीं रह सकता। हो सकता है राहुल गांधी का आरोप हवा में छोड़ा गया तीर हो लेकिन इसके बाद भी ये जरूरी हो जाता है कि उस आरोप का समुचित स्पष्टीकरण दिया जावे।
वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार को घेरने के लिये विपक्ष को किसी ‘साॅलिड’ मुद्दे की जरूरत है। जो अभी तक उसके पास नहीं है। राॅफेल विमान सौदे को विपक्ष पिछले काफी समय से मोदी सरकार की नाकामी और भ्रष्टाचार के तौर पर साबित करना चाह रहा है। लेकिन राॅफेल विमान सौदे को मोदी सरकार के विरूद्ध स्थापित करने में विपक्ष के मंसूबे पूरे नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे में प्रमुख विरोधी दल कांग्रेस ने राॅफेल मुद्दे को जीवित करने के लिए इस मामले को सीबीआई प्रकरण से जोड़ दिया है। एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष का महत्व सरकार से कम नहीं होता है। विपक्ष का काम सत्ता पक्ष के कामकाज पर नजर रखना और आरोप लगाना है और उस दृष्टि से राहुल गांधी एवं अन्य विरोधी नेता यदि केंद्र सरकार और विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ये आरोप लगा रहे हैं कि सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच घूसखोरी के आरोप-प्रत्यारोप के उपरांत दोनों को छुट्टी पर भेजने जैसे कदम के पीछे रॉफेल लड़ाकू विमान सौदे के भ्रष्टाचार की जांच को रोकना है तो इस आरोप को साधारण मानकर हवा में उड़ाने की बजाय प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार को विपक्ष के आरोप का पुख्ता जवाब देते हुए देश को आश्वस्त करना चाहिए कि सीबीआई की स्वायत्तता बरकरार है और दोनों वरिष्ठ अधिकारियों को जबरन अवकाश पर भेजे जाने की वजह उन दोनों पर लगे आरोपों की निष्पक्ष जांच करवाना है।
चूंकि श्री वर्मा और श्री अस्थाना ने एक दूसरे को फंसाने के लिये अपने अधीनस्थों के माध्यम से चक्रव्यूह बनाना शुरू कर दिया था इसके कारण शीर्ष स्तर पर सीबीआई के अधिकारी और कर्मचारी दो गुटों में विभक्त होते दिखने लगे। ऐसे में जरूरी था कि उक्त दोनों अधिकारियों के हाथ से दायित्व और अधिकार छीनकर पूरे मामले की जांच कर दूध का दूध, पानी का पानी किया जाए क्योंकि श्री वर्मा और श्री अस्थाना के अधिकार सम्पन्न रहते तक जांच करने वाले अधीनस्थ अधिकारी असमंजस और भय में डूबे रहते। ऐसे में सवाल यह है कि सीबीआई जिन अहम मामलों की जांच देख रही थी उनका क्या होगा। फिलहाल इन मामलों का भविष्य अधर में लग रहा है। लगभग सभी राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों की जांच का जिम्मा राकेश अस्थाना के नेतृत्व वाली जांच टीम के पास था। इन केसों में सबसे अहम विजय माल्या का केस भी था। इसके अलावा भ्रष्टाचार के कई ऐसे केस हैं, जिनका अपना राजनीतिक महत्व है। इनमें मोईन कुरैशी, अगस्ता वेस्टलैंड रिश्वत केस भी है, जिनमें यूपीए काल के कई नेताओं के रिश्वत लेने के आरोप लगे थे। कोयला घोटाला, आईआरसीटीसी घोटाला,शारदा चिटफंड घोटाला जैसे केस भी हैं। नए डायरेक्टर की तैनाती के बाद अब इन मामलों की जांच में खासा समय लग सकता है। विपक्षी पार्टी के नेताओं से जुड़े भी भ्रष्टाचार के कई केस हैं। विपक्षी नेताओं के करीब दो दर्जन मामलों की सीबीआई जांच कर रही है। इनमें हिमाचल प्रदेश के पूर्व सीएम वीरभद्र सिंह, हरियाणा के पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी शामिल है। केंद्र सरकार के सामने सबसे बड़ा धर्मसंकट ये आ खड़ा हुआ कि श्री अस्थाना को जब गुजरात से सीबीआई में नियुक्त किया तभी ये कहा गया था कि वे प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के करीबी हैं। इसके अलावा जैसा कहा जा रहा है उनकी नियुक्ति को श्री वर्मा ने पसंद नहीं किया और इस कारण दोनों के बीच पहले दिन से तनातनी चलने लगी।
देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी में ऐसा भयानक टकराव पहली बार सतह पर आया है। प्रधानमंत्री मोदी नाखुश और नाराज बताए जाते हैं, लेकिन वह भी कायदे-कानूनों से बंधे हैं। प्रधानमंत्री ने नंबर 1 और 2 को अलग-अलग तलब किया था। जाहिर है कि उन्हें टकराव छोड़ने को कहा गया होगा। सीबीआई प्रमुख पद से आलोक वर्मा की सेवानिवृत्ति दो साल का तय कार्यकाल पूरा करने के बाद जनवरी, 2019 में है। उससे पहले उनका तबादला भी नहीं किया जा सकता। विशेष निदेशक अस्थाना को भी किस आधार पर छेड़ा जाए? नए निदेशक के चयन की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। उसमें प्रधानमंत्री के अलावा, भारत के प्रधान न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष की भी बराबर की भूमिका है। लोकसभा में फिलहाल नेता प्रतिपक्ष नहीं है। विपक्ष में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है, लिहाजा उसी के नेता को यह दर्जा अनौपचारिक तौर पर दिया गया है, ताकि कुछ संवेदनशील नियुक्तियों का काम बाधित न हो।
मौजूदा विवाद में सतही तौर पर देखने में ही लगता है कि इसकी जड़ में कहीं न कहीं ऐसा कुछ है जिससे किसी न किसी का कोई बड़ा नुकसान होने वाला था क्योंकि जिस तरह की जानकारी सामने आई है उससे सन्देह पैदा होता है कि उच्च स्तर पर चल रहे इस शीतयुद्ध में ये दोनों अधिकारी तो महज कठपुतली हैं जिनकी डोर किन्हीं और लोगों के हाथ में है। जिस तरह से श्री अस्थाना को श्री मोदी और श्री शाह का करीबी बताया गया और श्री वर्मा को अवकाश पर भेजे जाने के विरुद्ध राहुल खुलकर सामने आये उससे ये स्पष्ट हो गया कि उनके भी राजनीतिक संरक्षक हैं। कुल मिलाकर सीबीआई की इस अंतर्कलह ने नए राजनीतिक विवाद की जमीन तैयार कर दी है । सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में कोयला आवंटन घोटाले के संदर्भ में टिप्पणी की थी कि सीबीआई ‘पिंजरे का तोता’ है। जो मालिक (सरकार) कहेगा, उसी को दोहरा कर बोलेगा, लेकिन सवाल पेशेवर जांच और पक्षपात के नहीं हैं। सीबीआई के अंदर चल रही यह खींचतान, उस राजनीति से जुड़ी है, जिसे कुछ लोग गुजरात से आयातित बताते हैं. और यह खींचतान केवल सीबीआई से जुड़ी नहीं है, बल्कि इसमें प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और रॉ भी शामिल हैं।
कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष के कई दलों ने जिस तरह इस मामले में सड़क पर उतरकर प्रदर्शन किया है, उससे ये आभास हो रहा है कि मामले ने पूरी तरह से राजनीतिक रंग ले लिया है। यही कारण है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत विपक्ष के कई बड़े चेहरों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार पर सवाल उठाए हैं. जिसके कारण ये मामला आसानी से खत्म होता हुआ नहीं दिख रहा है, आने वाले दिनों में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी इस मुद्दे की गूंज सुनाई पड़ सकती है। विपक्ष आसानी से इस मामले को शांत नहीं होने देगा।