मौलिक अधिकारों के हनन पर सरकार का इंतज़ार नहीं करेंगी अदालतें: SC
नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने आज जोर देकर कहा कि यदि कोई कानून मौलिक अधिकारों का हनन करता है तो अदालतें कानून बनाने , संशोधन करने या उसे निरस्त करने के लिये बहुमत की सरकार का इंतजार नहीं कर सकतीं। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा , ‘‘ हम मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की समस्या से निबटने के लिये कानून बनाने , संशोधन करने अथवा कोई कानून नहीं बनाने के लिए बहुमत वाली सरकार का इंतजार नहीं करेंगे। ’’ संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति आर एफ नरिमन , न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर , न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा शामिल हैं। संविधान पीठ परस्पर सहमति से दो वयस्कों के यौन संबंधों को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत अपराध के दायरे से बाहर रखने के लिये दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है।
पीठ ने कहा कि अदालतें प्रतीक्षा करने के लिये बाध्य नहीं है और यदि मौलिक अधिकारों के हनन का मामला उनके सामने लाया जाता है तो वह उस पर कार्यवाही करेंगी। संविधान पीठ ने ये टिप्पणियां उस वक्त कीं जब कुछ गिरिजाघरों और उत्कल क्रिश्चयन एसोसिएशन की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने कहा कि धारा 377 में संशोधन करने या इसे बरकरार रखने के बारे में फैसला करना विधायिका का काम है।
इस पर पीठ ने कहा , ‘‘ जिस क्षण हम मौलिक अधिकारों के हनन के बारे में आश्वस्त हो गये , तो ये मौलिक अधिकार अदालत को यह अधिकार देते हैं कि ऐसे कानून को निरस्त किया जाये। ’’ श्याम दीवान ने ‘‘ लैंगिक रूझान ’’ शब्द का भी हवाला दिया और कहा कि नागरिकों के समता के अधिकार से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 में प्रयुक्त् ‘ सेक्स ’ शब्द को अंतरपरिवर्तनीय के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता।
उन्होंने दलील दी कि लैंगिक रूझान सेक्स शब्द से भिन्न है क्योंकि एलजीबीटीक्यू से इतर भी अनेक तरह के लैंगिक रूझान हैं। धारा 377 में ‘‘ अप्राकृतिक अपराध का जिक्र है और कहता है कि जो भी प्रकृति की व्यवस्था के विपरीक्ष किसी पुरूष , महिला या पशु के साथ यौनाचार करता है तो उसे उम्र कैद , या दस साल तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है।
इससे पहले , सरकार ने धारा 377 की संवैधानिक वैधता का मामला शीर्ष अदालत के विवेक पर छोड़ दिया था। सरकार ने कहा था कि न्यायालय को समलैंगिक विवाह , गोद लेना और दूसरे नागरिक अधिकारों पर विचार नहीं करना चाहिए। केन्द्र के रूख का संज्ञान लेते हुये न्यायालय ने कहा था कि वह इन मुद्दों पर विचार नहीं कर रहा है। न्यायालय ने कहा था कि वह सिर्फ परस्पर सहमति से दो वयस्कों के यौन रिश्तों के संबंध में कानून की वैधता परखेगा।