सल्लू और छल्लू के बीच फर्क करती व्यवस्था
सल्लू और छल्लू के बीच वैसे तो कोई रिशता और बराबरी नहीं है, लेकिन एक मामले में दोनों एक प्लेटफार्म पर खड़े दिखाई देते हैं। दोनों काला हिरण मारने के दोषी हैं। दोनों को अदालत ने गुनाहगार मानते हुए सजा सुनाई है। और यह भी कि, सल्लू और छल्लू दोनों जमानत की जिंदगी बसर कर रहे हैं। यहां बात हो रही है बाॅलीवुड के सल्लू यानी सलमान खान और हरियाणा के कुरूक्षेत्र जिले के किसान छल्लू राम की। मुंबई और कुरूक्षेत्र में भले ही तकरीबन डेढ हजार किलोमीटर का फासला हो, लेकिन गुनाह के मामले में सल्लू और छल्लू में गहरा रिशता है। अदालत से सल्लू की पेशी से लेकर जमानत मिलने तक ‘नेशनल मीडिया’ ने ऐसा माहौल बनाया मानो देश में कोई आफत या जलजला आया हुआ है। सल्लू की पल-पल की गतिविधि पर मीडिया नजर रखे था। सल्लू को जमानत मिलते ही मीडिया सल्लू पुराण का सजीव प्रसारण बंद किया।
सलमान खान को जोधपुर की अदालत ने बीस साल पुराने काला हिरण शिकार मामले में दोषी मानते हुए पांच साल की सजा सुनाई थी। सजा सुनाने के दो दिन बाद अदालत ने सल्लू को सशर्त जमानत दे दी। वहीं दूसरी ओर काला हिरण के मामले में हरियाणा के कुरूक्षेत्र निवासी किसान छल्लू राम की किस्मत सल्लू जैसी नहीं थी। 21 जनवरी 2012 को छल्लू राम के काला हिरण शिकार का मामला सामने आया था। 22 जनवरी 2012 को उसके खिलाफ मामला दर्ज हुआ था। अदालत में चली सुनवाई के बाद 18 जुलाई 2014 को ढाई साल के भीतर ही छल्लू राम समेत तीन लोगों को पंाच साल की सजा कुरूक्षेत्र की पर्यावरण अदालत ने सुनाई थी। छल्लू को जमानत मिलने में 22 दिन का वक्त लगा था। फिलवक्त छल्लू राम जमानत पर हैं। सल्लू के मामले में अदालत में सुनवाई 20 साल चली। और दो दिन के अंदर जमानत भी मिल गयी।
सवाल यही खड़ा होता है। क्या आंख पर पट्टी बंधे होने के बावजूद न्याय की देवी बड़े-छोटे, गरीब-अमीर, आम और खास में फर्क करती है। क्या न्याय की देवी के दरवाजे से अमीर को तुरत-फुरत और गरीब का एड़िया घसीट-घसीट कर इंसाफ मिलता है? क्या न्याय की देवी किसी के इशारे पर काम करती है? क्या न्याय की देवी का तराजू चांदी के सिक्कों से एक ओर झुक जाता है? जिस देश में करोड़ों केस अदालतों में लंबित पड़े हों; जहां न्याय की भीख की तरह मिलता हो; जहां न्याय से पहले रसूख और जेब देखी जाती हो, वहां सवाल बहुत होंगे।
यह एक विडम्बना ही है कि भारतीय जेलों में बंद कैदियों की संख्या का एक बड़ा हिस्सा उन कैदियों का है, जो सिर्फ इस कारण सलाखों के पीछे है क्योंकि वे अदालतों द्वारा निर्धारित जमानत की राशि का बॉण्ड भरने में सक्षम नहीं हैं। उनके अपराध की प्रकृति उन्हें समाज में वापस जाने की अनुमति देने के साथ ही उन्हें अपराध साबित होने तक अदालत सामान्य जीवन-बसर करने की इजाजत देती है, लेकिन वे कभी इस योग्य हो ही नहीं पाते कि अदालत द्वारा निर्धारित जमानत की राशि बॉण्ड के रूप में जमा करा सकें। नतीजतन वर्षों से सलाखों के पीछे वे अपने बेगुनाह होने का इंतजार ही करते रहते हैं, जबकि अमीर व सुविधा संपन्न व्यक्ति बड़े से बड़ा गुनाह करने के बाद भी बडे आराम से खुले में विचरण करता नजर आता है। वीआईपी और आम कैदी में जेलों में भी भारी भेदभाव और फर्क कायम है। यूपी, बिहार की जेलें माफियाओं, नेताओं और वीआईपी के लिए किसी सैरगााह से कम नहीं हैं।
जिस देश के सल्लू को दो दिन में जमानत हासिल हो जाती है। सारी व्यवस्था उसके कदमों में बिछी दिखाई देती है, वहीं ऐसे हजारों गरीब चंद पैसे न होने की वजह से जमानत मिलने के बावजूद जेलों में सड़ने को मजबूर हैं। पिछले साल दिसंबर में दिल्ली हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल और न्यायमूर्ति सी. हरिशंकर की पीठ ने टिप्पणी की थी कि वह जमानत मिलने के बावजूद गरीबी की वजह से मुचलका या जमानत राशि नहीं भर पाने के कारण तिहाड़ जेल में बंद विचाराधीन कैदियों को देखकर बेहद दुखी है। यह हालात तब हैं जब सुप्रीम कोर्ट ने अपने विभिन्न फैसलों में कह चुका है कि गंभीर अपराध करने वाले कैदियों के मौलिक अधिकारों को भी किसी सूरत में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
वर्ष 2011 में दिल्ली स्थित तिहाड़ जेल में 2-जी स्पैक्ट्रम के आरोपी भारत के निवर्तमान केन्द्रीय मंत्री ए. राजा बन्द थे। राजा को एक ऐसा कैदी मिला जो पिछले कई सालों से मात्र 20 हजार रुपये बॉण्ड के लिए न हो पाने के कारण जेल से आजाद नहीं हो पा रहा था। राजा ने जब यह जानकारी मिली कि मात्र 20 हजार रुपये के अभाव के कारण जेल में बन्द है तो उनका दिल पसीज गया और उन्होंने बीस हजार रुपये उस कैदी को दिये। वह कैदी उन रुपये से बॉण्ड भरकर जेल से मुक्ति पा गया। मामूली रकम न होने की वजह से जहां देश की जेलों में हजारों कैदी जमानत मिलने के बाद भी बंद हैं, वहीं तमाम मामलों में फैसला आने में बेहद लंब समय बीत जाना आम बात है।
हमारे यहां मुकदमे तय होने में बरसों लग जाते हैं, यह स्वीकारोक्ति गर्व करने की बात तो है नहीं। चिंता की बात होनी चाहिए-और शर्म की भी। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए एन राय को ही हाईकोर्ट से न्याय मिलने में 39 साल लग गए थे। इसी तरह बहुचर्चित सूर्यानेल्ली बलात्कार मामले में केरल हाईकोर्ट ने फैसला देने में 18 साल लगा दिए। इसी तरह डीटीसी के कंडक्टर रामबीर सिंह पिदले चार दशकों से इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसी तरह डीटीसी के कंडक्टर रामबीर सिंह 41 सालों से इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे हैं।
देश की अदालतों में लम्बित पड़े मुकद्दमों का आंकड़ा व ट्रायल अदालतों में लम्बित 2.54 करोड़ केसों सहित 3.2 करोड़ की संख्या को पार कर चुका है तथा दूसरी ओर देश की छोटी-बड़ी सभी अदालतों में न्यायाधीशों की भारी कमी चल रही है और न्याय प्रक्रिया की धीमी गति के कारण ही न्यायपालिका लगातार बढ़ रहे मुकद्दमों के पहाड़ तले दबी जा रही है। यहां तक कि इस समय सुप्रीम कोर्ट में 6 तथा देश के हाई कोर्टों में 407 जजों की कमी है। हाई कोर्टों में जजों की कुल स्वीकृत संख्या 1079 के मुकाबले 1 अगस्त 2017 को 672 जज ही काम कर रहे थे तथा 407 जज कम थे। गौरतलब है कि 1987 में लॉ कमीशन ने प्रति 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 50 करनें की अनुशंसा की थी, लेकिन आज 29 साल बाद भी हमारे हुक्मरानों ने लॉ कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की जहमत नहीं उठाई।
न्याय मिलने में देरी का कारण केवल जज और सुविधाओं की कमी नहीं हैै न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी, जज-वकीलों की साठगांठ और प्रभावशाली लोगों के कारण भी इंसाफ मिलने में देरी होती हैै जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने तो अदालतों के जज-अंकल सिंड्रोम से प्रभावित होने की बात आधिकारिक रूप से कही थीै निचली अदालत के वकील भी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट छोड़िए, गरीब तो निचली अदालत में भी मुकदमा लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, क्योंकि वह जानता है कि कोर्ट-कचहरी में न जाने कितने दिन लग जाएंगे, इसलिए वह दोहरे नुकसान से बचना चाहता हैै संपत्ति विवाद के मुकदमों का फैसला आने में पीढ़ियां गुजर जाती हैंैै। वकील अपनी फीस के चक्कर में भी लोगों को चक्कर कटवाते रहते हैंै। कई बार तो सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जज रह चुके लोगों ने सुनवाई की धीमी गति देखकर कहा कि यदि इसी रफ्तार से अदालतों में काम चलता रहा, तो लंबित मामले निपटाने में तीन-चार सौ साल लग जाएंगेै सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी बार-बार दोहराते रहे हैं कि देरी से इंसाफ, नाइंसाफी हैै।
कहते हैं देर से न्याय मिलने का मतलब न्याय न मिलना होता है। सवाल उठता है, यह अन्याय कब तक चलता रहेगा? लम्बे मुकदमे कुल मिलाकर न्याय-व्यवस्था की कमजोरी ही बताते हैं। इस कमजोरी से उबरना न्याय-व्यवस्था में आम नागरिक का विश्वास बने रहने की एक महत्वपूर्ण शर्त है। यह शर्त जल्दी पूरी होनी चाहिए। बहरहाल, न्याय की अवधारणा है कि जनता को न्याय सुलभ और त्वरित मिलें, लेकिन आज की स्थिति इसके ठीक विपरीत है। आमजन को इंसाफ पाने में एड़ियां घिस जा रहीं हैं, पीढ़ियां खप रही हैं, त्वरित न्याय अब स्वप्न समान हो गया है। वहीं सुविधासंपन्न तबका अपनी सुविधानुसार अदालतों व न्याय प्रक्रिया को चला व टहला रहा है। जब कानून की देवी सल्लू और छल्लू को एक नजर से देखने लगेगी तब न्याय प्रक्रिया में पैदा हो रहे तमाम अवरोध व संकट स्वयं समाप्त हो जाएंगे। और आम आदमी का विश्वास देश के संविधान, कानून और अदालतों के प्रति बहाल होगा।
आशीष वशिष्ठ
पत्रकार
303-304, विनय पैलेस,
11-अशोक मार्ग, लखनऊ-226 001
उत्तर प्रदेश (भारत)