सियासी डिनर में वजूद तलाशती कांग्रेस
-आशीष वशिष्ठ
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर देश में बदलते राजनीतिक समीकरणों के बीच विपक्ष बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की कोशिश में जुटा है। देश में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस की सर्वोच्च नेता सोनिया गांधी ने ‘डिनर डिप्लोमेसी’ के जरिए विपक्षी एकता की गांठें मजबूत करने की शुरूआत की है। यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी के बुलावे पर एक बार फिर ‘मोदी बनाम सब’ करने की कोशिश के तहत दो दर्जन से अधिक दलों के नेता डिनर पर पहुंचे। अगर ये कहा जाए कि चुनाव करीब आते ही आपदा प्रबंधन के तौर पर विपक्षी एकता के प्रयासों की नई कोशिश शुरू हो गई है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसके पहले भी सोनिया डिनर डिप्लोमेसी से विरोधी यानी बीजेपी खेमे को चोट पहुंचाती रही हैं। मैडम सोनिया की डिनर डिप्लोमेसी का मुख्य लक्ष्य 2019 में होने वाले फाइनल के लिए टीम तैयार करना, विपक्ष का लामबद करना और कांग्रेस का वजूद तलाशना था।
असल में जो कांग्रेस 2014 में देश के 13 राज्यों में सत्तारूढ़ थी, आज सिमट कर कर्नाटक, पंजाब, मिजोरम और पुड्डुचेरी यानी 4 राज्यों में ही सत्तासीन रह गई है। कर्नाटक में अप्रैल-मई में चुनाव होने हैं और मिजोरम में भी इसी साल के अंत में चुनाव तय हैं। बेशक पुड्डुचेरी में कांग्रेस सरकार है, लेकिन वह पूर्ण राज्य नहीं, बल्कि संघ शासित क्षेत्र है। राजनीति शास्त्र की परिभाषा के मुताबिक, कांग्रेस मात्र पंजाब में ही सत्तारूढ़ रह गई है। 2014 की जबरदस्त हार की बाद यूपीए एक तरह से अस्तित्वहीन होकर रह गया था। कांग्रेस जिस तरह से लगातार पराजित होते-होते हांशिये पर सिमटती जा रही थी उसके कारण अन्य विपक्षी दल भी उससे कटने लगे थे। विशेष रूप से राहुल के काम करने का तरीका उन्हें रास नहीं आता था।
उप्र विधानसभा चुनाव के बाद तो राहल एक तरह से असफलता का दूसरा नाम ही बन गए। यद्यपि गुजरात चुनाव के बाद उनकी क्षमताओं के प्रति भरोसा थोड़ा बढ़ा लेकिन अभी भी वरिष्ठ विपक्षी नेता उन्हें उतना भाव नहीं देते। यही वजह रही कि सोनिया गांधी ने कमान संभाली और 20 दलों के प्रतिनिधि उनके बुलावे पर भोज के बहाने एकत्र हो गए। उन सभी का मकसद भाजपा के प्रवाह को रोकना है जो श्री मोदी के नेतृत्व में लगातार विजय की ओर बढ़ती जा रही है। गुजरात के झटके के बाद त्रिपुरा की अविश्वसनीय विजय और नागालैंड के साथ मेघालय में भी सरकार बनाकर भाजपा ने एक बार फिर अपना सिक्का जमा लिया।
इस सियासी डिनर में बड़ी से लेकर हर छोटी बात का खास ख्याल रखा गया। डिनर में सोनिया की मेज पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दाहिनी ओर बैठे थे, तो बाईं और थे ‘हम’ पार्टी के दलित मुसहर नेता जीतन राम मांझी। सोनिया के इस सियासी डिनर में इस बात का खास ख्याल रखा गया कि जो भी आए वह भविष्य में सियासत का संकेत लेकर जाए। इसलिए भविष्य के लिहाज से सोनिया की टेबल पर अगर मांझी थे तो राहुल की टेबल पर वो थे जो राहुल के नेतृत्व को लेकर भविष्य में परेशानी पैदा कर सकते हैं और वो हैं एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार. मराठा क्षत्रप शरद पवार राहुल गांधी की बगल की सीट पर मौजूद थे। इतना ही नहीं दूसरी बड़ी सियासी प्लेयर मायावती के सिपहसालार सतीश चंद्र मिश्र भी राहुल की ही मेज पर बैठे थे। वैसे इस डिनर में खुद सोनिया ने मैन्यू तैयार किया था। डिनर में तेलगु देशम और औवेसी की पार्टी का आमंत्रण नहीं देना भी राजनीति का हिस्सा है।
खास बात ये रही कि सोनिया ने डिनर में आने वाले हर नेता को खुद गेट पर जाकर स्वागत किया। इसके बाद ममता, अखिलेश, मायावती के नुमाइंदों से उनके नेताओं का हाल जाना। खुद राहुल ने भी सोनिया के इसी कदम को फॉलो किया, जो बड़े नेता नहीं आये उनके नुमाइंदों से उनके नेता का हाल पूछा। साफ था कि सोनिया के साये में राहुल का नेतृत्व तलाशने की कोशिश इस डिनर में रही। लेकिन पहले किसी जल्दबाजी की बजाय सोनिया के नाम पर इकट्ठा होकर मोदी सरकार को उखाड़ने का बिगुल बजाने की आवाज जरूर नजर आई। खासकर, यूपी के धुर सियासी विरोधी सपा के रामगोपाल यादव और बसपा के सतीश मिश्र की फोटो ने सभी को हैरान कर ही दिया। रात्रिभोज में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी, बसपा प्रमुख मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव तो नहीं पहुंचे, हां उनके प्रतिनिधि जरूर पहुंचे।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि, कांग्रेस के बुलावे पर 20 दलों का एकजुट होना भी भाजपा के भय का ही नतीजा है लेकिन ये जमावड़ा कितना स्थायी हो सकेगा ये विश्लेषण का विषय है क्योंकि बंगाल में ममता बैनर्जी और वामपंथी कभी साथ नहीं आ सकेंगे। सोनिया जी के भोज में इसीलिए तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधि तो आए लेकिन ममता बैनर्जी कन्नी काट गईं। इसी तरह वहां कई ऐसे दल भी थे जिनकी रणनीति उनके प्रभाव वाले राज्यों में राष्ट्रीय राजनीति से अलग चलती है। कुल मिलाकर श्रीमती गांधी की ये पहल कितना रंग लाएगी कहना कठिन है क्योंकि विपक्षी एकता के कई स्तम्भ कमजोर हो चले हैं। लालू के जेल जाने से बिहार में विपक्ष बिना माई बाप जैसा है तो उप्र में मुलायम सिंह के हांशिये पर चले जाने से भी काफी फर्क पड़ रहा है। महाराष्ट्र में शरद पवार भी उम्र के चर्मोत्कर्ष पर हैं और स्वास्थ्य भी उनका साथ नहीं दे रहा। उनकी भतीजे अजीत पवार और बेटी सुप्रिया सुले उन जैसा असर नहीं दिखा पा रहे हैं।
हाल ही में तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने तीसरे मोर्चे के पुनर्जन्म की पहल की जिसे बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने भी समर्थन दिया। लेकिन वह ज्यादा आगे नहीं बढ़ सकी क्योंकि बीच में ही कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विपक्षी एकता का दांव चल दिया। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने पर एक तरह से राजनीति से सन्यास लेने के बवजूद सोनिया जी ने विपक्षी एकता का राग क्यों छेड़ा इस पर सवाल भी उठे जिनका सीधा-सीधा जवाब ये है कि अभी भी विपक्ष के तमाम नेता राहुल को अपरिपक्व मानकर उनके नेतृत्व में काम करना अपनी तौहीन मानते हैं। कुछ लोग इसे कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा भी बता रहे हैं जिसके अंतर्गत राहुल पार्टी संगठन पर ध्यान देंगे और सोनिया जी विपक्षी मोर्चा खड़ा करने पर ।
उप्र में सपा-बसपा की उपचुनाव में शानदार जीत के बाद दोनों दल नये सिरे से दोस्ती पर विचार जरूर करेंगे। उत्तर प्रदेश व बिहार उप चुनाव में जीत के बाद भी विपक्ष को इतना जरूर याद रखना होगा कि 2004 की तुलना में भाजपा का नेतृत्व अधिक ऊर्जावान और जुझारू लोगों के हाथ में है तथा कांग्रेस अब तक राष्ट्रीय स्तर पर असर छोडनेे वाला कोई नेतृत्व नहीं दे सकी है। प्रादेशिक नेताओं में भी पहले जैसा दम-खम नहीं दिख रहा। शायद यही वजह है कि भाजपा शिवसेना और तेलुगु देशम की नाराजगी का खतरा उठाने तैयार है और ताजा संकेतों के अनुसार जल्द ही वह अकाली दल से भी पिंड छुड़ाने की सोचने लगी है। विपक्षी एकता की इस मुहिम को अभी एक खतरा तीसरे मोर्चे के संभावित उदय से भी है जिसमें वे नेता और पार्टियां शरीक होंगी जो भाजपा और कांग्रेस दोनों से परहेज करती हैं। उप्र के उपचुनावों के नतीजों में कांग्रेस का डिब्बा गोल होना भी इस गठबंधन पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है।
जाहिर है कांग्रेस के लिए अकेले भाजपा का सामना करने की हिम्मत और ताकत दोनों नहीं बचे। उप्र और बिहार जैसे बड़े राज्यों में तो वह घुटनों के बल चलने मजबूर है। जिस वजह से 2019 में अपने बूते सरकार बनाने की बात सोचना भी उसके ये सम्भव नहीं रहा। ऐसे में विपक्षी एकता की सबसे ज्यादा जरूरत किसी को है तो वह कांग्रेस को ही है क्योंकि 2019 में भी यदि 2014 जैसा नतीजा आया तब उसकी राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत भी खतरे में पड़े बिना नहीं रहेगी लेकिन सोनिया जी के भोज में 20 दलों की मौजूदगी के बाद भी अभी 2004 जैसे चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि तब भाजपा का नेतृत्व कर रही पीढ़ी वृद्धावस्था में पहुंच चुकी थी। लेकिन आज पार्टी और सरकार दोनों की कमान जिन हाथों में है वे शारीरिक और मानसिक रूप से बेहद सशक्त और सक्रिय हैं। फिलहाल डिनर डिप्लोमेसी में विपक्ष को मजबूत करने की बजाय सोनिया गांधी कांग्रेस का वजूद तलाशती नजर आईं।