मोहम्मद आरिफ नगरामी

लखनऊ की तहजीब अपनी जगह पर एक ऐसी हसीन व जमील और पुरकैफ दुनिया की जिसको शाहाने अवध के दौरे इक्तेदार में आबाद रखा गया। लखनऊ तहजीब ने एक आलम को मुतास्सिर कियां नवाबी अहद के रईसों के खाने पीने का शौक भी नेहायत नफीस और आला या उनके इसी जौक व शौक का असर शहरे लखनऊ के तमाम बावर्चियों और दुकानदारों पर भी पूरी तरह छाया हुआ था। फारिगुल बाली का जमान अरजानी का दौर, बाशिंदों में नफासत व नजाकत और तनव व रगीनी का जौक, जिंदगी के हर शोबे में इजाजत व इख्तेराआत का शौक गिजाएं खुसूसियत के साथ तवज्जो का मरकज थी। रईसों की कदरदानी ने बेहतरीन बावर्ची पैदा किये। यहां तक कि शहरे निगारां लखनऊ के अवाम में भी रईसों के मुसाहिबीन की वसातत से मिजाज व मजाक में अच्छे खानो का रूझहान तेज हुआ। इन हालात का मजमुई यह था कि खाना पकाना, खाने में लज्जत रंग व खुशबू का इमतिजाज पैदा करना, यहां तक कि खाना खाना सब कुछ फन के दर्जे तक पहुंच गया था।

चुनाचे चैक बाजार में बीसवीं सदी की इबतिहा तक अब्दुल्लाह की दुकान पूरी, कचोरियां, साआदत की शीर मालें और गाव जुबानें, अहमद की बाकर खानियां, शुबराती के 18 परत वाले पराठे, शाहिद का बरैर पुलाव, कम्मन का मुर्ग मुसल्लम, टुंडे के कबाब, कप्तान के कुएं वाली बरफियां और बहुत से ऐसी चीजें बेहद मरगूब और मकबूल थी।

बहुत अच्छा और लजीज खाना खाने के जौक की वजह से घरोें के अंदर ख्वातीन भी पकाने के फन में माहिर थी। शुरफा और अवाम के घरों में मामूली और सादा खाना भी बहुत खुश जायका होता था। बाज खानदानों में घर का पका हुआ पुलाव और कोरमा लखनऊ के मशहूर बावर्चियों की फनकारी में टक्कर लेता था। लखनऊ के रईसों और उमरा के महलों में जनाने और मरदाने बावर्ची खाने अलग अलग होते थे। रईसों के दस्तरख्वान पर इतनी तादाद में खाने चुने जाते थे कि बाज के चखने की नौबत भी नहीं आती थी। दस्तरख्वान पर शरीक होनेे वालों में हर शख्स के आगे हर खाना जो हकीकतन खाने के लिए होता था और महज शाने रियासत मंे जीनते दस्तरख्वान के लिए चुना नहीं जाता था। अलग अलग बर्तनों में लगाया जाता था,अलबत्ता पुलाव और मीठे पुलाव की बड़ी बड़ी प्लेटें दस्तरख्वान पर हाजिर की जाती थी।

लखनऊ के रईसों के दस्तरख्वान की ‘‘बड़ी रोटी’’ बहुत मशहूर थी। जो मन के वजन में मैदा और कर्द की आमेजिश से तीन सेर घी में तंदूर में पकाई जाती थी। जसामत मंे बहुत बड़ी और गैर मामूली तौर पर खस्ता और लजीज होती थी।

लखनऊ के उमरा और रईस आम तौर से बाजार की चीजें खाने में परहेज करते थे उनके बावर्ची खानों में मामूली चीजें भी बड़े एहतेराम व इलतिजाम से तैयार होती थी जिनका रंग व रोगन नजरे फिरेब होता था। चुनाचे मामूली जरदा जो हकीकतन जर्द रंग का सुकैदा होता था रंग बा रंग जर्दा तारीखी जर्दा हुआ जिसकी तैयारी में संगतरों की आमेजिश होती थी।

नवाबी दौर के लखनऊ में नवाबों, रईसों और उमरा के दस्तरख्वान पर एक खास लाजवाब और बेमिसाल डिश ‘‘मुतनजन’’ नाम की जरूर होती थी। लखनऊ के उमरा मुतनजन को बहुत ज्यादा पसंद किया करते थे। मुतनजन लखनऊ के बा सलाहियत और फनकार बावरचियों की एक मखसूस ला जवाब और अदीमुल मिसाल डिश थी। मुतनजन एक तरह से ‘‘पुलाव बू कलमो’’ का जवाब था लेकिन अहदे कदीम में मुतनजन को नमकीन पुलाव से ज्यादा वकार और अहमियत हासिल थीं हर बड़ी तकरीब में हर रईस की दावत मंे और शादियों के मौके पर खाने में मुतनजन जरूर होता था लड़कियों की रूखसती के वक्त मुतनजन की एक डेग साथ जाना जरूरी था।

मुतनजन को मीठा और नमकीन पुलाव कहना आज के दौर ज्यादा सही होगा। मुतनजन को मीठी गिजा के जिम्रे में शामिल करने का जवाज यह था कि इसमें चैगनी शकर पड़ती थी। यानी सेर भर के चावल के मुतनजन में चार सेर शकर दी जाती थी। लखनऊ के बाज रईस सादा गोश्त के बजाय मुर्ग या दूसरे परिंदों के गोश्त में मुतनजन पकवाते थे। उनको यह गिजा बहुत मरगूब थी। मुतनजन पकाना सिर्फ लखनऊ के होनहार और फनकार बावर्चियों का काम था। लखनऊ के रईसों के दस्तरख्वान पर मुतनजन के अलावा दूसरी बहुत ज्यादा लतीफ खुशगवार और हर दिल अजीज मीठी डिशें भी पेश की जाती थी। मीठी गिजा में एक एक शि का नाम शशरगां भी था। शश रगां आम तौर से सेब या अन्नानास गाजर ओर सब्ज चने से तैयार किया जाता था। शशरगां कीमा, शकर अंडो से नमक देकर तैयार की जाती थी। एक बर्तन में 6 रंगों का शशरगां की चमक दमक देखकर लोग हैरान रह जाते थे। शश रंगे का ना सिर्फ यह कि पकाने में बल्कि पतीली से निकालने में भी बड़ी महारत की जरूरत होती थी। मुतनजन ओर शशरगां की तरह लखनऊ के बावर्चियों की ईजाद ‘‘याकूती’’ भी था। यह डिश बाजाहिर बहुत सादा थी जो नशास्ता, शकर, दूध और बादाम के दूध की तरह पिसी हुई गिरी से तैयार होती थी। लेकिन इसका तैयार करना भी हुनर मंदी और तजुर्बेकारी पर मुनहसिर था। खीर की तरह पकाई जाती थी लेकिन जब तक तैयार ना हो जाय। पकाने वाले का हाथ नहीं रूकता था। याकूती को पक जाने के बाद मिट्टी के कागजी छिछले बर्तनों में निकाला जाता था और ऊपर से पिसते की हवाइयां छिड़क दी जाती थी, दस्तरख्वान पर हर शिकरत करने वाले के आगे एक हडियां याकूती की लगा दी जाती थी। याकूती को बहुत ज्यादा लतीफ जूदे हज्म मुकव्वी और मुफरर्रह गिजा समझा जाता था, जिसका इस्तेमाल रईसों के दस्तरख्वान पर सबसे आखिर में होता था।

इस मजमून में दस्तरख्वान के आदाब नशिस्त व बरख्वास्त के तौर तरीकों का जिक्र कर देना भी जरूरी है। रईस के इशारे पर दस्तरख्वान बिछ जाता था यानी यह कि खाने भी लगा दिये जाते थे तो रईस और उनके हमराह दूसरे लोग भी खाने के कमरे में दाखिल होते थे खाने के हाल में कई मुलाजिम तसलों में घास डाले, हाथों में पानी से भरे लोटे लिए और कांधों पर चादर नुमा रूमाल डाले अदब के साथ खड़े रहते थे। रईस का हाथ धुलाने के लिए एक चमकती हुई ‘‘सिलफूची’’ का अलग इंतेजाम रहता था और एक नौकर मखसूस लोटे से उनका हाथ धुलाता था। दस्तरख्वान पर सबसे पहले रईस रोनक अफसोज होते फिर हाजिरीन बा लेहाज अपने मरतबे के दाहिने और बायंे बैठ जाते। रईस अपनी जगह पर बैठकर ‘‘बिस मिल्लाह’’ कहते तब खाना शुरू होता। आदाब दस्तरख्वान में यह जरूरी था कि जो जिस तरह बैठ गया, उसी तरह आखिर तक बैठा रहता। घुटने उठा कर बैठना मायूब समझ जाना जाता था। खाना इंतेहाई सुकुन और खामोशी के साथ खाया जाता था। खाने के दौरान मुहं से हल्की सी हल्की आवाज निकलना भी बहुत बड़ा ऐब समझा जाता था। किसी फर्दे वाहिद का खाने के खात्मे से पहले उठ जाना नाकाबिले काफी और बद तहजीबी थां खाना खत्म करने के बाद भी दस्तरख्वान पर बैठे रहना तहजीब में दाखिल था। रईस जब खाने से फारिग हो जाते थे तो सब एक साथ दस्तरख्वान से उठते थे।