2019 में बीजेपी की राह आसान करेंगे पूर्वोत्तर के चुनाव नतीजे
आशीष वशिष्ठ
पूर्वोत्तर भारत के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड के विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए ‘गुड न्यूज’ लेकर आए हैं। त्रिपुरा में तो भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति मंे हैं। वहीं मेघालय व नागालैंड में उसने दमदार प्रदर्शन से विरोधियों की नींद उड़ाने का काम किया है। भले ही तीनों राज्यों की गिनती राजनीतिक और सीटों की हिसाब से छोटे राज्यों में की जाती हो। लेकिन कुल 180 विधानसभा सीटों और 5 लोकसभा सीट वालें इन तीन राज्यों में भाजपा की बढ़त कई मायानों में अहम है। गुजरात में कांटे की टक्कर के बाद मिली जीत, राजस्थान और मध्य प्रदेश के उपचुनाव में मिली हार के बाद पूर्वोत्तर से जीत की हवा निश्चित तौर पर उत्साह बढ़ाने का काम करेगी। खासकर त्रिपुरा जहां भाजपा ने पच्चीस साल पुराना कम्युनिस्टों का किला ढहाने का नामुमकिन कारनामा किया है। असम चुनाव के नतीजों से पहले भाजपा को स्थानीय लोग जमानत जब्त पार्टी के रूप में देखते रहे हैं। लेकिन समय से साथ बहुत कुछ बदल गया। असम के साथ-साथ मणिपुर और अरुणाचल में भाजपा की सरकार है, तो सिक्किम में पवन चामलिंग एनडीए का हिस्सा हैं। देश के 19 राज्यों में भाजपा और उसके समर्थकों की सरकार है।
त्रिपुरा में चुनाव प्रचार और वोटिंग के बाद ऐसी खबरें आ रही थी कि पूर्वोत्तर में बदलाव की बयार बह रही है। त्रिपुरा में पहली मर्तबा भाजपा न केवल मुकाबले में खड़ी दिखाई दे रही थी बल्कि वामपंथियों के तीन दशक के एकाधिकार को तोड़कर सत्ता बनाने की हैसियत में दिख रही थी। अभी तक आए चुनाव परिणाम में चैंकाने वाली बात ये है कि 60 विधानसभा सीटों वाले उत्तर पूर्व के इस छोटे से राज्य में अब तक मुख्य विपक्षी दल रहने वाली कांग्रेस का लेख लिखे जाने तक एक भी सीट पर खाता न खुलना कांग्रेस और विशेषकर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी जो फिलवक्त इटली में घूम रहे हैं, के लिए बेहद शर्म व चिंता की बात है। चुनाव नतीजों के रूझान के अनुसार भाजपा त्रिपुरा में अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में है। भाजपा यदि त्रिपुरा में सरकार बना लेती है तब असम और मणिपुर और अरुणाचल के बाद उत्तर पूर्व में यह उसकी चैथी सरकार होगी जो इसलिए महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय होगा क्योंकि कुछ बरस पहले तक मणिपुर और त्रिपुरा सदृश प्रदेशों में भाजपा का कोई नामलेवा तक नहीं था।
त्रिपुरा के स्थानीय समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के जो सर्वेक्षण और एग्जिट पोल आए थे उनके मुताबिक त्रिपुरा के युवा वर्ग में वामपंथी सरकार के प्रति काफी रोष व्याप्त है जिसकी वजह से भाजपा को अपने लिए उम्मीदें नजर आ रही थीं। भाजपा ने एक स्थानीय जनजातीय संगठन आईपीएफटी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। त्रिपुरा पर भारतीय जनता पार्टी और आरएसएसी नजरें पिछले काफी समय से थी। और पार्टी धीरे-धीरे अपनी तैयारियों में जुटी थी।
अंाकड़ों पर नजर डालें तो त्रिपुरा में 2013 के चुनाव में बीजेपी ने 50 उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिनमें से 49 की जमानत जब्त हो गई थी। 2008 में भी पार्टी के 49 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई थी। इसी तरह 2003 में बीजेपी के 21 उम्मीदवार अपनी जमानत नहीं बचा सके थे। 1998 में पार्टी ने पहली बार राज्य की सारी 60 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन पार्टी के 58 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। वर्ष 2013 में विधानसभा के चुनावों में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को 49 सीटें आयीं थीं. जबकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई को एक. दस सीटों से साथ त्रिपुरा में कांग्रेस पार्टी मुख्य विपक्षी दल थी।
त्रिपुरा में पार्टी की जड़ें जमाने के लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने काफी आक्रामक रणनीति बनाते हुए असम में पार्टी को सफलता दिलवाने वाली टीम को ही त्रिपुरा में मोर्चे पर डटा दिया था। त्रिपुरा को लेकर भाजपा की टीम काफी हद तक आश्वस्त थी। भाजपा नेतृत्व को इस बात का विश्वास थाकि त्रिपुरा में यदि वामपंथी फिर सरकार में आए तब भी भाजपा का मुख्य विपक्ष के रूप में स्थापित होना तय है। और अगर त्रिशंकु विधानसभा बनने की हालत में भी भाजपा सरकार बनने के मजबूत आसार हैं। लेकिन चुनाव नतीजें तो कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं। पांच साल पहले पूर्वोत्तर के जिस राज्य त्रिपुरा में बीजेपी अपना खाता भी नहीं खोल सकी थी और वहां के सियासी माहौल में उसे गंभीरता से भी नहीं लिया जाता था, उसने सभी राजनीतिक विश्लेषकों को चैंकाते हुए त्रिपुरा में बेहतरीन प्रदर्शन किया है। त्रिपुरा के नतीजों ने कांग्रेस की चिंता बढ़ाने का काम किया है। ऐसा आभास हो रहा है कि कांग्रेस के लिये यहां चिंतन-मंथन की संभावना भी खत्म हो गयी है।
मेघालय और नागालैंड के चुनाव नतीजे भी भाजपा के पक्ष में जाते दिख रहे हैं। इन दो राज्यों में भी भाजपा पहली मर्तबा लड़ाई में न सिर्फ दिखाई दे रही थी वह सरकार बनाने के इरादे से मैदान में उतरी थी। भले ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सहित वहां के चर्च पदाधिकारी भाजपा को हिन्दू पार्टी बताकर ईसाई मतदाताओं को भयभीत कर रहे थे किन्तु छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों से समय रहते गठबंधन की वजह से कुछ बरस पहले तक इन पूर्वोत्तर राज्यों में अपरिचित बनी रही भाजपा का मैदान में मुस्तैदी से डटे रहना और राष्ट्रीय राजनीति के प्रतिनिधि के तौर पर अब तक उपस्थित कांग्रेस का विकल्प बनते जाना मायने रखता है।
मेघालय में साल 2013 में हुए पिछले चुनाव में कांग्रेस ने 29 सीटों के साथ जीत दर्ज की थी। कांग्रेस के अलावा सीटों के आधार पर दूसरे नंबर पर निर्दलीय उम्मीदवार रहे। निर्दलियों ने 13 सीटों पर कब्जा जमाया था। यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (मेघालय) को कुल 8 और हिल स्टेट पिपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को सिर्फ 4 सीटों से संतोष करना पड़ा था। एनसीपी ने भी 2 सीटों के साथ राज्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी थी, जबकि भाजपा यहां खाता भी नहीं खोल पायी थी। साल 2008 के चुनाव में भी कांग्रेस ने 25 सीटें हासिल की थीं, जबकि एनसीपी को राज्य में 14 सीटें मिली थीं। यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी को 11 और भाजपा सिर्फ 1 सीट से संतोष करना पड़ा था।
नागालैंड में पिछली बार भाजपा ने 11 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे जिनमें से 8 उम्मीदवार जमानत नहीं बचा सके। 2008 में भाजपा द्वारा मैदान में उतारे गए 23 उम्मीदवारों में से 2 ही चुनाव जीत सके जबकि 15 की जमानत जब्त हो गई। 2003 में पार्टी ने 38 उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिनमें से 7 उम्मीदवार जीते और 28 की जमानत जब्त हो गई। 1993 में भाजपा के 6 उम्मीदवार थे, जिनमें से किसी की भी जमानत नहीं बची।
पूर्वोत्तर के सबसे बड़े राज्य असम के अलावा अरुणाचल और मणिपुर में भाजपा पहले से ही काबिज है। यह उसकी सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है जिसके अंतर्गत अब तक अछूते रहे राज्यों में भी अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाना है। दूसरी तरफ कांग्रेस जिस तरह पूर्वोत्तर के इन छोटे-छोटे राज्यों में हांशिये पर सिमटती जा रही है वह उसके लिए अच्छा नहीं है। पूर्वोत्तर में पहले कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुआ करती थी किन्तु धीरे-धीरे वहां आदिवासियों की क्षेत्रीय पार्टियां पनप गईं जिन्हें ईसाई मिशनरियों ने संरक्षण और समर्थन देकर धर्मांतरण का अपना एजेंडा लागू किया। परिणामस्वरूप इन राज्यों में हिन्दू आबादी घटने के साथ ही साथ मिशनरियों की शह पर अलगाववादी ताकतें भी प्रभावशाली होती गईं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा पूर्वोत्तर में ज्यों-ज्यों सूखती गई त्यों-त्यों देशविरोधी शक्तियों की सक्रियता बढ़ती गई। म्यामांर, बांग्लादेश और चीन से इन ताकतों को पैसा, प्रशिक्षण, अस्त्र-शस्त्र और शरण मिलने से आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरे ने स्थायी रूप से पैर जमा लिए। कश्मीर की तरह यहां भी भारत विरोधी भावनाएं यदि मजबूत हुईं तो उसके पीछे मिशनरियों और उनके साथ वामपंथी गुटों की संगामित्ति की बड़ी भूमिका रही है। लेकिन बीते कुछ वर्षों में आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठनों ने यहां की जनता को मुख्यधारा से जोड़ने का जो प्रयास किया उसकी वजह से भाजपा के प्रति झुकाव में बढ़ोतरी हुई। जो हिन्दू आबादी अपने को दांतों की बीच जीभ की स्थिति में अनुभव करते हुए दबी सहमी रहा करती थी वह एकाएक मुखर हो चली। असल में त्रिपुरा में भाजपा की सरकार बनाने की ओर बढ़ते कदम वामपंथियों से अधिक कांग्रेस के लिए बुरी खबर हैं क्योंकि साम्यवादी आंदोलन की जड़ें तो सूखने की कगार पर हैं ही किन्तु उसके स्थान पर भाजपा का उभार कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को वास्तविकता में बदलने की वजह बनता जाएगा।
पूर्वोत्तर राज्यों की राजनीति यद्यपि राष्ट्रीय मुख्यधारा पर न्यूनतम प्रभाव डालती है किंतु भाजपा जिस तहर पूर्वोत्तर में एक के बाद एक राज्य में सत्ता हथियाती जा रही है इससे ये राज्य राष्ट्रीय राजनीति में अहम होते जा रहे हैं। भाजपा की जीत से इन छोटे -छोटे राज्यों की राजनीति को स्थानीय दबाव समूहों से मुक्त करवाकर भारत विरोधी शक्तियों को कमजोर करने वाली राष्ट्रवादी शक्तियां मजबूत होंगी, जोकि ये शुभ संकेत है लेकिन इसके लिए भाजपा को क्षणिक लाभ वाले समझौतों और गठबंधनों से बचकर रहना होगा वरना कांग्रेस का पतन होने में तो काफी लंबा समय लगा लेकिन भाजपा को उतना वक्त नहीं मिलेगा क्योंकि पूर्वोत्तर में भी पूर्वापेक्षा स्थितियां तेजी से बदल रही हैं और भारत विरोधी अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां वहां इतनी आसानी से मैदान नहीं छोड़ेंगीं। कुल मिलाकर तीन राज्यों के नतीजे भाजपा को उत्साह बढ़ाने के साथ ही साथ 2019 के लोकसभा चुनाव की राह आसान करने वाले साबित होंगे।