…ताकि कोई ‘खुशी’ स्कूल आना बंद ने करे
-आशीष वशिष्ठ
उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के प्राचीन प्राथमिक विद्यालय जगदीशपुरा की कक्षा तीन की छात्रा खुशी ने विद्यालय में शौचालय न होने की वजह से नाम कटवाने का अर्जी स्कूल की प्रिंसिपल को दी है। खुशी की शिकायत है कि स्कूल में टॉयलेट नहीं है, जिसके कारण उसे और बाकी बच्चों को काफी दिक्कत होती है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार स्कूल में केवल शौचालय की समस्या ही नहीं है, बल्कि इसके अलावा भी बच्चों को कई सारी दिक्कतें हो रही हैं। ये हालात तब हैं जब स्वच्छता अभियान के तहत सरकार पूरे प्रदेश में टॉयलेट बनवाने का कार्यक्रम चला रही है।
सरकारी स्कूल के गंदे और खराब टाॅयलेट की वजह से सितंबर 2016 में यूपी के कौशाम्बी जिले के त्रिलोकपुर गांव के राज बाबू को अपनी तीसरी कक्षा में पढ़ रही नौ साल की बेटी शीलू को हमेशा के लिए खोना पड़ा था। असल में जिस सरकारी स्कूल में शीलू पढ़ती थी उसका शौचालय गंदा और खराब होने की वजह से महीनों से बंद पड़ा था, जिसके चलते बच्चों को बाहर खुले में जाना पड़ता था। एक दिन पेट खराब होने की वजह से शीलू शौच के बाद वह नेशनल हाइवे को पार कर वापस स्कूल आ रही थी तभी सड़क पर तेज रफ्तार से आ रहे एक पार्सल वैन की चपेट में आ गई और स्कूल गेट के सामने ही उसने कुछ ही पलों में दम तोड़ दिया था। अगर स्कूल का शौचालय सही होता तो शीलू को न तो बाहर जाना पड़ता और न ही सड़क हादसे में उसकी मौत होती।
खुशी की शिकायत से पहले पहले भी आगरा में रामबाग के सीता नगर के प्राथमिक विद्यालय में टॉयलेट न होने के कारण चार छात्राओं ने स्कूल छोड़ दिया था। इसके अलावा, इसी स्कूल की अन्य 31 छात्राओं ने भी नाम कटाने का एलान किया था। इसके बावजूद प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। आगरा जिले में 500 ऐसे प्राथमिक स्कूल हैं जहां करीब 3 हजार छात्र पढ़ते हैं। ये सभी छात्र खासकर लड़कियों का पूरा दिन बेचैनी में बीतता है क्योंकि उनके स्कूल में टॉयलेट नहीं है। आगरा ही नहीं प्रदेश भर के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाली लाखों छात्राएं ऐसी हैं जो स्कूल का समय खत्म होने का इंतजार करती हैं। और यह सब इसलिए कि उनके स्कूल में एक अदद टॉयलट तक नहीं है। टॉयलट नहीं होने के कारण ये छात्राएं जब तक स्कूल में रहती हैं पानी तक नहीं पीतीं। आगरा के थाना एत्माउद्दौला क्षेत्र के रामबाग में स्थित एक सरकारी स्कूल में आजादी के 71 वर्ष बीत जाने के बाद आज तक कोई टॉयलेट नहीं है। शिक्षा विभाग के आंकड़ों के अनुसार आगरा मंडल के चार जिलों में लगभग 2.5 लाख छात्र प्राथमिक विद्यालयों में पंजीकृत हैं। मंडल में लगभग 500 स्कूल ऐसे हैं जहां टॉयलेट नहीं है। इसके अलावा 800 ऐसे स्कूल हैं जहां पीने के पानी की उपलब्धता नहीं है। ये हालात प्रदेश के एक मंडल का है, प्रदेश के अन्य सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की वर्ष 2014 रिपोर्ट के मुताबिक, एक रपट के अनुसार, यूपी में करीब 1,60,763 स्कूल हैं, जहां 1.9 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं। शिक्षा के अधिकार के तहत, हर 20 विद्यार्थी पर कम से कम छात्रों और छात्राओं के लिए एक टॉयलेट होना चाहिए। यूपी में करीब 2,355 ऐसे सरकारी स्कूल हैं जहां छात्राओं के लिए अलग टॉयलेट नहीं है। वहीं, 4634 स्कूलों में छात्रों को इस हालात का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा, छात्राओं के 5971 और छात्रों के 3852 शौचालयों में न्यूनतम जरूरतों का अभाव है। इस लिस्ट में बलिया जिला टॉप पर है। यहां के 2,572 सरकारी स्कूलों में 524 स्कूलों में लड़कियों के लिए कोई अलग शौचालय नहीं है। वहीं, 1,405 टॉयलेट में संसाधनों का अभाव है। जालौन में 1830 स्कूलों के 506 टॉयलेट में वही स्थिति है। फतेहपुर के 409 स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय इलाके वाराणसी में भी कुछ हालात बेहतर हैं।
नवंबर 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में कक्षा 1 से 8 तक के सरकारी स्कूलों के हालात पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि, स्कूलों के जो हालात हैं उनमें ना कोई शिक्षा दे सकता है और ना ही कोई शिक्षा ले सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यूपी के प्राइमरी स्कूलों की स्थिति जानने के लिए तीन वकीलों की एक कमेटी गठित की थी। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि यूपी में बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। इलाहाबाद जिले के सभी सरकारी स्कूलों की स्थिति काफी बुरी है। बच्चों को स्कूल में मूलभूत सुविधाएं नहीं दी जा रही है। कई स्कूलों में बिजली के कनेक्शन नहीं हैं। कई स्कूलों में पीने के पानी का कनेक्शन नहीं है। कई स्कूलों में सफाई के लिए कोई तैनात नहीं है। स्कूलों में सफाई के अभाव में कई टाॅयलेट बंद पड़े हैं। छात्र-छात्राओं के लिए अलग टायलेट की भी कमी है। सुप्रीम कोर्ट के जज दीपक मिश्रा की बेंच ने तत्कालीन अखिलेश यादव सरकार को खरी-खरी सुनाते हुए जल्द से जल्द व्यवस्था सुधारने के निर्देश जारी किए थे। लेकिन स्थिति में कोई फर्क आया दिखता नहीं है।
प्रदेश में हर साल करोड़ों रुपये का बजट बढ़ने के बावजूद सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की गुणवत्ता और सुविधाएं बढ़ने की जगह घट रही हैं, जिसके कारण स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। छात्राओं के मामले में उम्र बढ़ने के साथ उनका ड्रॉप आउट प्रतिशत भी बढ़ता जा रहा है। यह खुलासा प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की सालाना रिपोर्ट में हुआ है। साल 2016 में प्रदेश के 1966 सरकारी स्कूलों में किए गए सर्वे में सामने आया है कि 60 या इससे कम बच्चों वाले स्कूलों की संख्या वर्ष 2010 में केवल 5.3 प्रतिशत थी, जो 2016 में बढ़कर 13 फीसदी से ज्यादा हो गई है। यहां पढ़ रहे बच्चों की उपस्थिति के आंकड़ों में भी एक फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। रिपोर्ट के मुताबिक लड़कियों के 50 फीसदी से ज्यादा स्कूलों में शौचालयों की व्यवस्था ही नहीं है। जहां शौचालय हैं, वो इस्तेमाल लायक नहीं हैं। लड़कियों के ड्रॉप आउट की यह भी एक बड़ी वजह है।
प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि असर (एएसईआर) की 2016 की सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकतर स्कूलों में टेबल कुर्सी की व्यवस्था नहीं है बच्चों को दरी पर बैठाया जाता है। गंदे क्लास रूम और उजड़ी हुई दीवारें प्राथमिक शिक्षा की बदहाली को बयां करती हैं। मूलभूत सुविधाओं की बात करें तो ज्यादातर स्कूलों में पीने के पानी और शौचालय की भी मारामारी है। लड़कियों के लिए अलग शौचालय तो दूर की कौड़ी है पहले एक शौचालय का ही इंतजाम सही तरह से हो जाए तो बड़ी बात है। उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में प्रदेश के 5,000 प्राथमिक विद्यालयों ़ को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल बनाने का फैसला लिया है ताकि स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ाई जा सके। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर सरकार स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ाना चाहती है तो पहले स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं को दुरुस्त करने की जरूरत है।
यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार बनने के बाद से ही बदलाव की बयार बहाने की तैयारियां शुरू हो गई हैं। बोर्ड परीक्षाओं में नकल पर प्रभावी रोक काबिलेतारीफ है। लेकिन सरकारी स्कूलों के बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए कोई कारगर काम किया जाना अब भी बाकी है। सरकार को तत्काल प्रभावी कदम इस दिशा में उठाने चाहिएं ताकि भविष्य में कोई खुशी स्कूल से अपना नाम काटने का प्रार्थना पत्र देने को मजबूर न हो।