सामाजिक समरसता के प्रेरक संत रविदास
31 जनवरी पर विशेष
मृत्युंजय दीक्षित
हिंदू समाज को छुआछूत जैसी घृणित परम्परा से मुक्ति दिलाने वाले महान संत रविदास का जन्म धर्मनगरी काशी के निकट मंडुआडीह में संवत 1433 की पूर्णिमा को हुआ था। संत रविदास के पिता का नाम राघव व माता का नाम करमा था। जिस दिन उनका जन्म हुआ उस दिन रविवार था इस कारण उन्हें रविदास कहा गया। भारत की विभिन्न प्रांतीय भाषाओं में उन्हें रोईदास, रैदास व रहदास आदि नामों से भी जाना जाता है। वे न केवल उच्चकोटि के संत अपितु महान कवि भी थे। उन्होनें अपनी वाणी के माध्यम से आध्यात्मिक, बौद्धिक व सामाजिक क्रांति का सफल नेतृत्व किया। उनकी वाणी मंे निर्गुण तत्व का मौलिक व प्रभावशाली निरूपण मिलता है।
उनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब भारत में मुगलों का शासन था चारों ओर गरीबी, भ्रष्टाचार व अशिक्षा का बोलबाला था। संत रविदास का मन पारिवारिक व्यवसाय मंे नहीं लगता था। उन्हें साधु संतों की सेवा और आध्यात्मिक विषयों मंे रूचि थी। माता- पिता ने उनका विवाह बहुत ही छोटी आयु में कर दिया था। लेकिन इसका उनके जीवन पर कोई असर नहीं पड़ा। अंततः उन्हें परिवार से निकाल दिया गया। लेकिन वे तनिक भी विचलित नहीें हुए और उन्होनें घर के पीछे ही अपनी झोपड़ी बनवा ली। उसी झोपड़ी मंे वे अपने परिवार का व्यवसाय करने लग गये। युग प्रवर्तक स्वमी रामानंद उस काल में काशी में पंच गंगाघाट में रहते थे। वे सभी को अपना शिष्य बनाते थे। रविदास ने उन्हीं को अपना गुरू बना लिया। स्वामी रामानंद ने उन्हें रामभजन की आज्ञा दी व गुरूमंत्र दिया “रं रामाय नमः“। गुरूजी के सान्निध्य में ही उन्होनें योग साधना और ईश्वरीय साक्षात्कार प्राप्त किया। उन्होनें वेद, पुराण आदि का समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया। कहा जाता है कि भक्त रविदास का उद्धार करने के लिये भगवान स्वयं साधु वेश में उनकी झोपड़ी में आये। लेकिन उन्होनें उनके द्वारा दिये गये पारस पत्थर को स्वीकार नहीं किया। उस समय मुस्लिम शासकों द्वारा प्रयास किया जाता था कि येन केन प्रकारेण हिंदुओं को मुस्लिम बनाया जाये। उस समय सदना पीर नाम का एक मुसिलम विद्वान रविदास को मुस्लिम बनाने के लिये उनसे मिलने पहुंचा। सदना पीर ने शास्त्रार्थ करके हिंदू धर्म की निंदा की और मुसलमान धर्म की प्रशंसा की। संत रविदास ने उनकी बातों को ध्यान से सुना और फिर उत्तर दिया और उन्होनें इस्लाम धर्म के दोष बता दिये। संत रविदास के तर्को के आगे सदना पीर टिक न सका । सदना पीर आया तो था संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिये लेकिन वह स्वयं हिंदू बन बैठा। दिल्ली में उस समय सिकंदर लोदी का शासन था। उसने रविदास के विषय में काफी सुन रखा था। सिकंदर लोदी ने संत रविदास को मुसलमन बनाने के लिये दिल्ली बुलाया और उन्हें मुसलमान बनने के लिये बहुत सारे प्रलोभन दिये। संत रविदास ने काफी निर्भीक शब्दों में निंदा की जिससे चिढ़कर उसने रविदास को जेल में डाल दिया। सिकंदर लोदी ने कहा कि यदि वे मुसलमान नहीं बनेंगे तो उन्हें कठोर दंड दिया जायेगा। इस पर रविदास जी ने जो उत्तर दिया उससे वह और चिढ़ गया। जेल में भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिये और कहाकि धर्मनिष्ठ सेवक ही आपकी रक्षा करेंगे। अगले दिन जब सुल्तान नमाज पढ़ने गया तो सामने रविदास को खड़ा पाया। उसे चारो दिशाओं में संत रविदास के ही दर्शन हुये। यह चमत्कार देखकर सिकंदर लोदी घबरा गया। लोदी ने तत्काल संत रविदास को रिहा कर दिया और माफी मांग ली। संत रविदा के जीवन मेें बहुत सी चमत्कारिक घटनाएं घटीं।
संत रविदास ने अपनी वाणी के माध्यम से समाज मेें व्याप्त कुरीतियों पर करारी चोट की। संत रविदास का कहना था कि हमें सभी में समान प्राण -तत्व का अनुभव करना चाहिये। भारतीय संतों ने सदा अहिंसा वृति का ही पोषण किया है। संत रविदास जाति से चर्मकार थे। लेकिन उन्होनें कभी भी जन्मजाति के कारण अपने आप को हीन नहीं माना। उन्होनें परमार्थ साधना के लिये सत्संगति का महत्व भी स्वीकारा है। वे सत्संग की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उनके आगमन से घर पवित्र हो जाता है। उन्होनंे श्रम व कार्य के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की तथा कहा कि अपने जीविका कर्म के प्रति हीनता का भाव मन में नहीं लाना चाहिये। उनके अनुसार श्रम ईश्वर के समान ही पूजनीय है। संत रविदास के प्रभु किसी भी प्रकार की सीमाआंे से नहीं बंधे हैं वे तो घट – घट व्यापी हैं। उनका मत है कि प्रभु ही सबके स्वामी हैं। वे उच्चकोटि के आध्यात्मिक संत थे। उन्होनें अपनी वाणी से आध्यात्मिक व बौद्धिक क्रांति के साथ- साथ सामाजिक क्रांति का भी आहवान किया। वे प्रभु राम को ही परम ज्योति के रूप में स्वीकारते थे तथा निर्गुण तत्व का मौलिक निरूपण करते थे। संत रविदास कवि होने के साथ – साथ एक क्रांतिकारी व मौलिक विचारक भी थे। उन्होनें परमात्मा से संपर्क जोड़ने के लिये नामस्मरण,आत्मसमर्पण व दीनभावना का सहारा लिया तथा अपने पदों में समाज के दीनहीन वर्ग के उत्थान की कामना की। उनकी भक्ति का रूझान इतना बढ़ा कि वे प्रभु का मानसी पूजन करने लगे व प्रभु से प्राप्त पारसमणि को भी अस्वीकार कर दिया।
संत रविदास ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भारत भ्रमण किया तथा दीन हीन दलित समाज को उत्थान की नयी दिशा दी। संत रविदास साम्प्रदायिकता पर भी चोट करते हैं। उनका मत है कि सारा मानव वंश एक ही प्राण तत्व से जीवंत है। वे सामाजिक समरसता के प्रतीक महान संत थे। वे मदिरा पान तथा नशे आदि के भी घोर विरोधी थेे तथा इस पर उपदेश भी दिये हैं। चित्तौड़ के राणा संागा की पत्नी झाली रानी उनकी शिष्या बनीं वहीं चित्तौड़ में संत रविदास की छतरी बनी हुई है। मान्यता है कि वे वहीं से स्वर्गारोहण कर गये। समाज में सभी स्तर पर उन्हें सम्मान मिला। वे महान संत कबीर के गुरूभाई तथा मीरा के गुरू थे। श्री गुरूगं्रथ साहिब में उनके पदों का समायोजन किया गया है। आज के सामाजिक वातावरण में समरसता का संदेश देने के लिये संत रविदास का जीवन आज भी प्रेरक हैं ।