लखनऊ में 110 वाँ उर्स शाहे रज़ा (दादा मियां) कल से
लखनऊ : इन्सान परवर दिगारे आलम की सबसे हसीन और खूबसूरत मखलूक है, पर उतनी ही नाजुक भी और कमज़ोर भी,उसके बावजूद अक़्लो शऊर की बुनियाद पर वो मन्सबे इन्सानियत पर फायज़ है, जो कि उसका अज़्ली हक़ है। मगर दुनिया की रंगीनियत के हसीन जाल में फंस कर इन्सान उलझ कर रह गया है। जिस अक्लो खिरद और शऊर की बुनियाद पर वो तमाम मखलूक का मुक्तदा बना अब इसी अक्लो शऊर का इस्तेमाल गुमराहियत के लिए कर रहा है कल तक वो अपना मुस्तकबिल बन्दगाने खुदा की सोहबतों में देखा करता था, मगर आज वो अपना मुस्तकबिल दुनिया के हसीन नजा़रों में देख रहा है। उसे अपना दिल बाकी रहने वाली चीजों में लगाना चाहिए था मगर आज वो अपना दिल फानी हो जाने वाली चीजों में लगा रहा है। वो खुदा की दी हुई उन नेमतों का शुक्र गुज़ार नहीं है जिन नेमतों के जरिये वो इस फानी दुनिया को देख रहा है, अगर उन नेमतों में से एक भी नेमत उनका देने वाला ले ले तो वह दुनिया की नज़रोें में ऐबदार शख्स शुमार किया जोयगा, मगर इन्सान है कि उसे इन बातों से कोई दिलचस्पी नहीं है। वो इतना ज़्यादा ला-परवाह हो चुका है कि उसे अपने रब की अता की हुई नेमतों का एहसास तक नहीं है।
एैसा नहीं है कि रब्बे करीम ने उन लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है, नहीं बिल्कुल नहीं बलकि नबूवत के एख्तेताम के बाद अल्लाह तआला ने अपने महबूब सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम की उम्मत में अपने नेक बन्दों को पैदा फरमाया और क्यामत तक पैदा फरमाता रहेगा जो रहमतुल ल्लिआलमीन सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम का मज़हर बनकर हर दौर में सारे आलम में इन्सानों की रहनुमाई करते हुये नज़र आयेगें, माजी में आ चुके हैं, मुस्तकबिल में आयेंगें और हर हाल में मौजूद हैं। उन्ही मकबूल तरीन शख्सियतों में एक नाम ऐसा भी है जिनकों दुनिया
हज़रत ख्वाजा मोहम्मद नबी रज़ा शाह (दादा मियाँ) के नाम से याद करती हैं। आप 25 रबीउल अव्वल शरीफ 1284हि0 मुताबिक़1867ई0 दिन सोमवार कस्बा भैंसोंड़ी शरीफ मिलक रामपुर, यू0पी0 में एक आलिमी व नूरानी घराने में पैदा हुये। तालीम पूरी करने के बाद 1886ई0 में फौज में मुलाज़िम हो गये, उसी दौरान बंगाल में 1895ई0 में हज़रत सय्यदना मौलाना अब्दुल हई चाटगामी र0अ0 के मुरीद हो गये। फिर खिलाफत व इजाज़त के बाद 1904ई0 में लखनऊ में तशरीफ लाये और मोहल्ला सदर बाजा़र में क़्याम किया। और बेपनाह लोंगों को अपने दामने करम से लिपटा कर रहनुमा व पेशवा बना दिया। आपके मुरीदीन व खुल्फा मुल्क के हर हिस्से में फैले हुये हैं। आपकी बड़ी निराली शान थी, आपका दरबार हर एक के लिए खुला रहता था आपकी बारगाह सबके लिए यक्सा थी, आपका विसाल शरीफ 24 रबीउल अव्वल 1329हि0 मुताबिक 1911ई0 बरोज़ इतवार लखनऊ में हुआ। और इस्लामिया कब्रिस्तान माॅल ऐवेन्यू में अपनी पसन्द की हुई जगह पर आराम फरमा हुये।
आपका सिलसिला सिलसिला-ए-जहाँगीरीया है। जो सिलसिला-ए-क़ादिरीया चिश्तिया,सोहरवर्दीया, फिरदौसिया, नक्शबन्दीया, अबुलउलाईया, के मज़मूआ का नाम है। आपके पहले सज्जादा नशीन आपके हक़ीकी छोटे भाई मुरीदो खलीफा हज़रत ख्वाजा अल्हाज मोहम्मद इनायत हसन शाह 1911ई0 से 1941ई0 हुये। उनके बाद हज़रत ख्वाजा मोहम्मद राहत हसन शाह 1941ई0 से 1975ई0 हुये, उनके बाद आपके साहबज़ादे हज़रत ख्वाजा अल्हाज मोहम्मद फसाहत हसन शाह 1975ई0से 2001ई0 हुये उनके बाद हज़रत किब्ला ख्वाजा मोहम्मद सबाहत हसन शाह 2001 से अब तक सज्जादा नशीन हैं।
हज़रत ख्वाजा मोहम्मद नबी रज़ा शाह (दादा मियाँ) ने इन्सानियत की एक ऐसी मिसाल पेश की जिसकी रौशनी हर तरफ बिखरी हुई हैं दादा मियँा ने अपने मुर्शिद की तालीमात पर बहुत सख्ती से अमल किया। और अपनी छोटी सी जिन्दगी में इतना बड़ा काम कर दिखाया जिसकी मिसाल आज के जमाने में मिलना मुश्किल ही नही ंना मुमकिन है। और इसका जीता जागता नमूना है, दादा मियाँ के करोड़ो चाहने वाले, जो पूरी दुनिया में फैले हुये हैं। बुजुर्गाने दीन का उर्स इसी लिए मनाया जाता है जिससे लोग उनकी तालीमात से रूबरू हो सकें, और खानक़ाही मिजाज़ को समझ सकें, और उनकी तालीमात को अपनी जिन्दगी का हिस्सा बनाकर अपनी मुश्किल भरी जिन्दगी को आसान बना सकें।
हज़रत ख्वाजा मोहम्मद नबी रज़ा शाह दादा मियाँ का हर साल पाँच रोज़ा उर्स बड़ी शानों शौक़त के साथ हुआ करता है। इम्साल ये उर्से पाक 11 से 15 दिसम्बर 2017 बारोज़ पीर से जुमा आस्ताना दादा मियाँ माॅल ऐवेन्यू में होगा, जिसमें जिक्र, मीलाद शरीफ तरही मुशायरा, चादर पोशी, हल्का ए जिक्र महफिले स़मा, रंगे महफिल, गुस्ल व संदल शरीफ का प्रोग्राम होगा, जिसमें शरीक होने के लिए मुल्क भर से लाखों लोग तशरीफ लायेंगें,और अपनी मुरादें हासिल करेंगें,उर्स में आये हुये लोेंगों की तालीम का ख़ास ख्याल रखा जाता है।
इसी के उपलक्ष्य में एक आल इण्डिया सेमिनार का प्रोग्राम भी होगा, जिसका उनवान मुन्कसिराना जिन्दगी और शाहे रज़ा (शाहे रज़ा की मिस्कीन परवरी ) होगा, जिसके जरिये दादा मियँा की तालीम को लोंगों के सामने लाया जाएगा। जिसमे मशहूर ओ मारूफ इस्लामिक स्कालर तशरीफ ला रहें हैं। हज़रत मौलाना सय्यद सबाउददीन मुनअमी साहब ख़ानक़ाहे मुनअमिया,गया,बिहार शरीफ हज़रत मौलाना जाफर सादिक साहब इसके अलावा लखनऊ व आस पास के जिले के उलमाए किराम तशरीफ ला रहें हैं। सेमिनार के ज़रीये दादा मियाँ की तरह जिन्दगी गुज़ारने का तरीका़ बताया व सिखाया जाता है।
लोगों के दिलो दिमाग को ज़िक्र के ज़रिये पाक ओ साफ किया जाता है और उनकी रूहानी प्यास को महफिले स़मा के ज़रिये बुझाया जाता है। उनसे खुदा और खुदा के नबियों की याद दहानी भी कराई जाती है, जो समाज की भलाई के लिए निहायत ही जरूरी है। इसमें आपसी भाईचारे, क़ौमी यक्जहती अमनो अमान का भी दर्स दिया जाता है। और उन्हें वतन से मोहब्बत करने का जौ़क ओ शौ़क़ भी दिलाया जाता है, ताकि जब वह अपने अपने घरों को वापस जाये ंतो एक बेहतर समाज की बुनियाद रख सकें, जो कि उर्स के अहतमाम का असल मक़सद और पैगा़म हुआ करता है।
बुजुर्गो ने अपनी खानक़ाहों से हमेशा अमन का पैगा़म दिया है,जिसका सिलसिला आज भी जारी है। खानक़ाहो के दरवाजे हर आम ओ खास के लिए खुले हुये होते हैं जिसमें हर मजहब ओ मिल्ल्त के मानने वाले आते है। और बुजुर्गाें की दुआओं से मालामाल होते हैं।खानक़ाहें कौमी यक्जहती (राष्ट्रीय एकता व अखण्डता )की एक ऐसी मिसाल हैं जिनकी जरूरत हर वक्त में काम आई है। खा़स तौर से हिन्दुस्तान में खानक़ाहों का बहुत अहम किरदार रहा है। मुल्क के रहनुमा हमेशा खानक़ाहों से जुड़े रहें हैं। जब हिन्दुस्तान का बटबारा हुआ था तो उस वक्त के गृह मन्त्री जनाब सरदार वल्लभ भाई पटेल हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की खानक़ाह पर गये थे और उनकी दरगाह पर जाकर हाज़िरी की और मुल्क में अमन ओ शान्ति की दुआ मंागी। ऐसे बहुत सारे वाक्यात हैं।तो इससे यह साफ ज़ाहिर है कि समाज को बनाने में खानक़ाहों के किरदार को भुलाया नहीं जा सकता, समाज को हमेशा खानक़ाहों व दरगाहों की जरूरत पेश आई है। दौरे हाज़िर में अगर फिरका परस्ती और ना इत्तेफाक़ी को दूर करना है और साम्प्रदायकता और इन्सानियत को जिन्दा र,खना है तो हमेें अपने आपको ,खानक़ाहों से जुड़ा रखना होगा। जिससे हमारी आने वाली नस्लों को दुस्वारीयों का सामना न करना पड़े। और सच पूछिये तो खानक़ाही मिज़ाज वक्त की अहम जरूरत है।