चुनावी मौसम में बिगड़ते नेताओं के बोल
तारकेश्वर मिश्र
हमारे देश में नेताओं की बदजुबानी तो आम बात है। चुनाव आते ही नेताओं की फौज जनता का रुख करती है। इस दौरान अपने भाषणों में कब उनके बोल बिगड़ जाएं इसकी कोइ गारंटी नहीं होती। वर्तमान में ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानों अमर्यादित बयानों की एक बाढ़ सी आ गई हो। अनैतिक भाषा का प्रयोग करके हर पार्टी अपने-अपने स्तर पर इसमें योगदान दे रही है। अगर किसी को याद होगा तो वह इस तथ्य से भलीभांति परिचित होगा कि असहमतियां और विरोध शुरू से राजनीति का अभिन्न अंग रहे हैं। कई कद्दावर नेता ठोस तर्को के आधार पर विभिन्न विषयों पर जोरदार ढंग से अपना विरोध जताते रहे हैं।
भारत का दुर्भाग्य यह कि विरोध और असहमतियां जताने का जो अप्रतिष्ठाजनक रूप हमें आज देखने को मिल रहा है, शायद ही किसी दौर में मिला हो। कुछ दिनों पहले जब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने कार्यकर्ताओं को नसीहत देते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री के खिलाफ हल्की भाषा का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उन पर व्यक्तिगत प्रहार भी ठीक नहीं है। मोदी जी देश के प्रधानमंत्री हैं, उनकी गरिमा का ख्याल रखना चाहिए। तब लगा था कि शायद राजनीति में भाषा की गरिमा लौट आए। इस बात को कांग्रेसियों ने भले ही आत्मसात कर लिया है, पर दूसरे दलों को अभी नसीहत की और घुट्टी पिलाने की जरूरत है।
लालू प्रसाद यादव की बदजुबानी किसी से छिपी नहीं है लेकिन उनके बेटे तेजप्रताप ने गत दिवस प्रधानमन्त्री की खाल उधड़वाने जैसा बयान देकर दिखा दिया कि लालू का बेटा बेहूदगी में उनसे एक दो नहीं अपितु सौ कदम आगे है। पिता की जेड श्रेणी सुरक्षा में कटौती से भन्नाए तेजप्रताप बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी को घर में घुसकर मारने जैसी धमकी भी दे चुके हैं। सत्ता से उतरने के बाद भ्रष्टाचार की जांच रूपी तलवार सिर पर लटकने से लालू का पूरा कुनबा भयभीत होने के साथ ही मानसिक संतुलन खोता दिखाई दे रहा है प्रधानमंत्री पर दोयम दर्जे की टिप्पणियां करना तो जैसे लालू का नित्यकर्म बन गया है लेकिन तेजप्रताप ने गत दिवस जो भी कहा वह मर्यादाओं की सारी सीमाएं लांघ गया।
प्रधानमंत्री की खाल उधड़वाने जैसा बयान तो शत्रु राष्ट्र से भी अपेक्षित नहीं होता। सरकार उनके विरुद्ध क्या कार्रवाई करती है तो ये वही जाने लेकिन राजनीतिक बिरादरी को तेजप्रताप की खुलकर निंदा करनी चाहिए वरना खाल उधड़वाने से बढ़कर बात और क्या-क्या उतरवाने तक पहुंचेगी ये सोचकर भी शर्म आने लगती है। बहरहाल, तेज प्रताप यादव की गिनती ऐसे नेताओं में होती है, जिन्हें राजनीति का ककहरा अभी सीखना बाकी है। उन्हें न तो कद की परिभाषा पता है और न ही पद का ज्ञान है। तेज प्रताप बिहार के स्वास्थ्य मंत्री बने जरूर थे, मगर वह पद भी पिता की बदौलत था। लेकिन फिर भी किसी व्यक्ति पर अशालीन भाषा का प्रयोग तो गलत है ही। फिर नरेंद्र मोदी तो देश के प्रधानमंत्री हैं। उनके लिए ऐसी भाषा का प्रयोग निहायत ही बेहूदा और शर्मनाक है। वैसे, अमर्यादित भाषा का ज्ञान और समझ भी तेज को उनके पिता से विरासत में ही मिली है। लालू भी अपने समय बात करते समय सामने वाली की इज्जत का ख्याल नहीं रखते थे।
कांग्रेस के यूपी चीफ राज बब्बर और जन अधिकार पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पप्पू यादव के साथ। दोनों ही नेता बोलते-बोलते क्या बाले गए इन्हें खुद को भी एहसास नहीं था। जहां राज बब्बर ने अलीगढ़ में कार्यकर्ताओं के सामने तलवार चलाने की बात कही, तो वहीं पप्पू यादव ने एक अपराधी के सिर पर इनाम की घोषणा कर दी। कौन भूल सकता है सोनिया गांधी का वो बयान, जिसने वास्तव में गुजरात की जनता को झकझोर कर रख दिया था। तब सोनिया ने गुजरात के तत्कालीन और बेहद लोकप्रिय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ बताया था। 31 मई, 2007 को नवसारी में चुनावी रैली को संबोधित करते हुए सोनिया ने कहा था-“गुजरात की सरकार चलाने वाले झूठे, बेईमान, मौत के सौदागर हैं।“ ऐसा नहीं है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान इमरान मसूद को नरेन्द्र मोदी की बोटी-बोटी काट देने का बयान देने का सपना आ गया हो। इसी लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस का आलाकमान मोदी के खिलाफ जो विषवमन कर रहा था, उसी को आगे बढ़ा रहा था इमरान मसूद।
याद कीजिए सोनिया गांधी का वो बयान, जो 1 फरवरी, 2014 को उन्होंने कर्नाटक के गुलबर्ग में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ दिया था। सोनिया ने कहा था, “मेरा पूरा भरोसा है कि आप ऐसे लोगों को मंजूर नहीं करेंगे जो जहर का बीज बोते हैं।“ ‘मौत का सौदागर’ के बाद ‘जहर की खेती’ के इस बयान ने इस बार गुजरात ही नहीं देश की जनता की भावना को जगा दिया। बात 6 अक्टूबर, 2016 की है जब देश सर्जिकल स्ट्राइक पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जय-जयकार कर रहा था। विरोधी भी चुप रहने को मजबूर थे। हां, केजरीवाल जरूर सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांग रहे थे। तभी यूपी चुनाव की तैयारी कर रहे राहुल गांधी किसान यात्रा से लौटने के बाद आत्मघाती हमला कर बैठे। उस सर्जिकल स्ट्राइक पर, जिसमें पहली बार पाकिस्तान में घुसकर हिन्दुस्तान ने आतंकी ठिकानों को नष्ट किया था, जिसकी दुनिया में सबने सराहना की, पाकिस्तान उफ तक नहीं कर पायाय राहुल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर ‘खून की दलाली’ करने का आरोप लगा डाला।
राहुल ने कहा- ‘हमारे जवानों ने जम्मू-कश्मीर में अपना खून दिया, जिन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक किया, आप उनके खून के पीछे छिपे हुए हो। आप उनकी दलाली कर रहे हो।‘नोटबंदी को लेकर जहां पूरा देश नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा है। कालाधन और भ्रष्टाचार पर ऐसी चोट कभी नहीं पड़ी थी। पर, विपक्ष को काले कारोबारियों के साथ खड़ा होने में जरा भी शर्म नहीं आई। विपक्ष ने दुनिया के कुख्यात रहे तानाशाह हिटलर, मुसोलिनी, कर्नल गद्दाफी से प्रधानमंत्री की तुलना कर डाली। राज्यसभा में प्रमोद तिवारी ने ये शर्मनाक बयान दिया जिस पर खूब हंगामा मचा।
हरियाणा के मंत्री अनिल विज विवादित बयानों की वजह से अक्सर चर्चा में बने रहते हैं। उन्होंने गुजरात चुनाव पर सभी विपक्षियों के एक होने पर कहा था कि 100 कुत्ते मिलकर भी एक शेर का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। विज के बयान से खूब हंगामा मचा। वहीं भाजपा के सांसद साक्षी महाराज, नेता कैलाश विजयवर्गीय, संगीत सोम समेत ऐसे कई नाम हैं जो समय-समय पर विवादित बोल बोलने से परहेज नहीं करते।
चुनावी भाषणों में नेताओं के बिगड़ते बोल अहसास कराते हैं कि उनकी पार्टी का अन्दरुनी हाल क्या है? जब गम्भीर मुद्दों को व्यक्तिगत छींटाकशी से निपटाया जाए तो समझिए कि ऐसा करने वाला नेता अपनी खीज मिटाने के लिए परेशान है। मसलन, यदि कोई नोटबन्दी पर जनता को हुई परेशानियों का जिक्र करे और जवाब में दूसरा ये चर्चा नहीं करे कि परेशानी वास्तव में है भी या नहीं? है तो कैसी, कितनी और क्यों है? बल्कि मुद्दे को भटकाने के लिए कहा जाए कि नोटबन्दी की आलोचना करने वाले खुद की तकलीफ का रोना रो रहे हैं। क्योंकि वो खुद परिवारवाद और भ्रष्टाचार के पोषक हैं।
सच तो ये है कि तमाम नेतागण वही बोल रहे हैं जैसा वो बुनियादी तौर पर सोचते और समझते हैं तथा बोलना चाहते हैं। आप ये भी गांठ बांध सकते हैं कि किसी भी पार्टी के बड़े नेता या स्टार प्रचारक की जुबान कभी नहीं फिसलती! दरअसल, नेता बनता ही वही है, और माना ही उसे जाता है जिसका उसकी वाणी पर संयम हो। इस लिहाज से कोई भी नेता अपरिपक्व या परिपक्व नहीं होता! सभी अपनी सियासी सहूलियत के मुताबिक ‘बुरा न मानो होली है’ की तर्ज पर असंख्य सच-झूठ गढ़ते एक-दूसरे का तियापाँचा करते हैं। इसीलिए चुनावी मौसम में नेताओं के बेसुरे राग वैसे ही स्वाभाविक बन जाते हैं, जैसे बरसात में मेढ़कों की टर्रटर्र!
बहरहाल, भारतीय राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गई। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। यह ऐसा समय है जब शब्द सहमे हुए हैं, क्योंकि उनके दुरूपयोग की घटनाएं जारी हैं। एक दौर में हमारे राजनेताओं का आचरण शालीन और विनम्र होता था, तब से लेकर गंगा में काफी पानी बह चुका है। आज के दौर में गिने-चुने राजनेता ही ऐसे रह गए हैं, जो अपने बोलचाल में मर्यादित भाषा का उपयोग करते हैं। पहले से ही देश में नेताओं के कटुतापूर्ण व्यवहार और अशालीन भाषा के उपयोग के कारण बेचैनी भरा माहौल बना हुआ है, अब नई फौज के नेताओं ने भी उसी राह को पकड़ लिया है। कम से कम अब तो हम भाषा की मर्यादा के प्रति गंभीर हो जाएं।