गुजरात ले रहा मोदी की कड़ा इम्तिहान
तारकेश्वर मिश्र
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस समय गुजरात के चुनावी भंवर में फंसे दिखाई देते हैं। सत्ता और सियासत के गलियारों में चर्चाएं सुनें, तो लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी इस समय घबराहट और परेशानी की मनोदशा में हैं। स्थितियां उनके हाथ से फिसल रही हैं। जनता की नाराजगी (मोहभंग नहीं) उन्हें महसूस हो रही है। 2019 के आम चुनावों की हार उन्हें अभी से आशंकित कर रही है। प्रधानमंत्री मोदी के पास समय बहुत कम है और काम असंख्य हैं। कुछ संवेदनशील वादों के पूरा न कर पाने के मद्देनजर प्रधानमंत्री चिंतित नहीं हैं।
इन सबके बीच गुजरात भी चिंता का सबब बना है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वह कांग्रेस और राहुल गांधी को आसान राजनीतिक वॉकओवर दे देंगे। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दोनों ही नौसीखिए नहीं हैं कि तीन युवा नेताओं-अल्पेश ठाकोर, हार्दिक पटेल और जिग्नेश के कांग्रेस को समर्थन देने पर ही भाजपा की पराजय स्वीकार कर लेंगे। वे आखिरी पलों तक तोड़-फोड़ करेंगे और पाटीदार आंदोलन में उन्होंने महत्त्वपूर्ण सेंध लगाकर उसे विभाजित भी कर दिया है। प्रधानमंत्री की चिंता इससे स्पष्ट है कि बीते 37 दिनों में उन्होंने गुजरात के पांच दौरे किए हैं, लेकिन वह हर बार कोशिशें करते दिखे हैं कि औसत गुजराती की नाराजगी कम हो।
गुजरात पीएम नरेंद्र मोदी का गृह प्रदेश है। वो इस सूबे के 13 साल तक लोकप्रिय मुख्यमंत्री रहे हैं। गुजरात के विकास मॉडल के सहारे ही वो देश की सत्ता के शिखर पर पहुंचे हैं। इसलिए यहां के चुनाव नतीजे सीधे तौर पर उनके सियासी कद का इम्तिहान है। प्रधानमंत्री बनने के बाद से लगातार जीत रहे मोदी के सामने ये सिलसिला बरकरार रखने की चुनौती है। अगर वो चुनाव जीतते हैं तो उनका और उनकी सरकार का इकबाल बुलंद होगा। जनता में उनकी पैठ और गहरी होगी। उनके विकास के मॉडल पर मुहर लगेगी। हारते हैं तो उनकी राह मुश्किल होगी, क्योंकि सरकार नोटबंदी और जीएसटी को लेकर बैकफुट पर है।
ऐसे तीन अहम मुद्दे हैं जहां मोदी और बीजेपी को पास होना है। पहली बात ये कि इस चुनाव मोदी लहर का टेस्ट कहा जा रहा है। अब 2019 के चुनाव में डेढ़ साल से भी कम वक्त रह गया है। गुजरात बीजेपी का गढ़ है इसलिए ये इसे 2019 का सेमीफाइनल और मोदी लहर का टेस्ट माना जा रहा है। अब तक मोदी लहर बिहार छोड़कर हर राज्य में दिखा है। अगर गुजरात के नतीजे भी उनकी उम्मीदों के एन मुताबिक आते हैं तो मोदी के लिए इससे बड़ी खुशखबरी नहीं हो सकती।
दूसरा सवाल कि मोदी के बगैर गुजरात में बीजेपी की हैसियत क्या है। विधानसभा के बीते चार विधानसभा चुनाव में ये पहला चुनाव है, जो मोदी के नेतृत्व में नहीं लड़ा जा रहा है। अब सीएम की कुर्सी पर विजय रुपाणी हैं। मोदी ने अपने नेतृत्व में तीनों चुनाव में बीजेपी को जीत दिलाई और बड़ी जीत दिलाई। अगर मोदी बतौर पीएम गुजरात में फ्लॉप होते हैं ये कहा जाएगा कि उनके विकास का मॉडल नकली साबित हुआ है।
नोटबंदी और जीएसटी पर एक कारोबारी राज्य का फैसला क्या रहता है। नोटबंदी के बाद बीजेपी यूपी का चुनाव जीत चुकी है। लेकिन जीएसटी लागू किए जाने के बाद ये पहला विधानसभा चुनाव है। खासकर इसे लेकर व्यापारियों और कारोबारियों में खासी नाराजगी पाई जाती है। दूसरी तरफ हाल के दिनों में नोटबंदी को लेकर भी सवाल खड़े किए गए हैं। इसलिए इस चुनाव में बीजेपी हारती है तो ये कहा जाएगा कि ये हार नोटबंदी और जीएसटी की वजह से हुई है।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने प्रवासों के दौरान करोड़ों-अरबों की परियोजनाओं के उद्घाटन और शिलान्यास किए हैं। यानी विकास की एक निरंतरता बनी रही है। बेशक जीएसटी और नोटबंदी ने व्यापारियों को बहुत नुकसान पहुंचाया है। करीब 40 फीसदी कारोबार ठप हुआ है। प्रधानमंत्री ने जीएसटी में संशोधन करा व्यापारियों के सवालों को संबोधित किया है। बेशक गुजरात में भाजपा 1995 से लगातार सत्तारूढ़ है, लिहाजा सत्ता विरोधी मूड और लहर स्वाभाविक है, लेकिन जनता का मूड कांग्रेस के पक्ष में है, ऐसा मानना भी बेवकूफी होगी। रही बात तीन युवा नेताओं के कांग्रेस को समर्थन देने की, तो दलित नेता जिग्नेश साफ कर चुके हैं कि वह कांग्रेस में शामिल नहीं होंगे। ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर पहले भी कांग्रेस में थे और उसके टिकट पर चुनाव हार चुके हैं। उनकी घर वापसी हो रही है, तो कोई हैरत की बात नहीं है। पाटीदार नेता हार्दिक पटेल ने ‘अहंकारी’ भाजपा को हराने के मद्देनजर कांग्रेस का समर्थन करने का बयान दिया है।
पाटीदार आंदोलन के ही वरुण, रेशमा, नरेंद्र पटेल आदि 15 महत्त्वपूर्ण समर्थकों और सहयोगियों समेत करीब 70 युवा चेहरे भाजपा के पाले में आ चुके हैं और यह सिलसिला अभी जारी है। वे पाटीदार आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता भी रहे हैं और बुनियादी तौर पर जनता भी हैं। अकेले हार्दिक क्या भाड़ फोड़ लेंगे? जिन तीन बिरादरियों के कांग्रेस को समर्थन देने का दावा किया जा रहा है, वह भी बुनियादी तौर पर गलत है। हकीकत यह है कि तीनों युवा नेताओं का अपनी-अपनी बिरादरी के एक हिस्से पर ही असर है।
पाटीदार समिति तो विभाजित है। किसके आह्वान पर कितनी बिरादरी भाजपा के खिलाफ वोट देगी, अभी निश्चित नहीं है। उसका भी एक विशेष कारण है। दरअसल गुजरात में पटेल समुदाय बुनियादी तौर पर व्यापारी है और हिंदुत्व को लेकर भी बेहद प्रतिबद्ध है। इस तरह पाटीदार भाजपा के साथ जुड़े रहे हैं। इस बार कुछ सेंध तो लगेगी, लेकिन कांग्रेस को गुजराती लोग ‘मुस्लिमवादी पार्टी’ मानते रहे हैं, लिहाजा कांग्रेस पूरी तरह भाजपा के विकल्प में आज भी मौजूद नहीं है। गुजरात में कांग्रेस का संगठन चरमराया हुआ है, यह खुद राहुल गांधी मानते रहे हैं, जबकि भाजपा प्रत्येक बूथ पर कार्यकर्ताओं की फौज के साथ मौजूद है।
वहीं राहुल गांधी के लिए ये बहुत बड़ा है जिससे वो साबित कर पाएंगे कि उनमें नेतृत्व क्षमता है। राहुल गांधी को पार्टी की कमान देने की चर्चा है। ऐसे में अगर वो यहां कांग्रेस की जीत दर्ज करा देते हैं तो पार्टी में एक नयी उर्जा और उत्साह का संचार होगा। लगातार चुनाव हारने के कारण मायूस कांग्रेस कार्यकर्ताओं में अपने नए नेतृत्व के प्रति भरोसा बढ़ेगा। राहुल गांधी के लिए गुजरात जीतना इसलिए भी जरूर है क्योंकि पार्टी के अंदर से भी उनके नेतृत्व को लेकर आवाजें उठती रही हैं। गुजरात में मोदी की होम पिच पर उन्हें मात दे राहुल उन आवाजों को चुप करा सकते हैं। उनकी लीडरशिप पर संदेह है वो चुप होंगे और पार्टी के अंदर उनकी चुनाव हराने वाली छवि भी खत्म होगी।
राहुल के लिए ये चुनाव इसलिए भी एक मौका बताया रहा है क्योंकि वो एक ऐसे राज्य के चुनाव मैदान में जहां बीजेपी काफी दिनों से सत्ता में है और सरकार विरोधी लहरें भी मुखर हैं। पटेलों की नाराजगी जगजाहिर है। अगर ऐसे मौके को राहुल गंवा देते हैं तो उनके नेतृत्व क्षमता पर गहरे सवाल खड़े हो जाएंगे। मुमकिन है कि कुछ ऐसी आवाजें सुनाई पड़े जो राहुल के लिए सहज नहीं हो।
गुजरात में अगर राहुल स्थानीय युवा नेताओं को अपने पाले में कर बीजेपी को मात देते हैं तो फिर उनपर दूसरे क्षेत्रीय पार्टियों और नेताओं का भी भरोसा बढ़ेगा. राहुल गांधी के नेतृत्व में एक नये गठजोड़ की संभावनाएं बनेगी जहां युवा नेतृत्व 2019 के लिए चुनौती के तौर पर खड़े होते दिखेगा.कांग्रेस में मुख्यमंत्री स्तर का कोई चेहरा भी नहीं है। हालांकि भाजपा भी प्रधानमंत्री मोदी के भरोसे ही है, लेकिन मुख्यमंत्री कोई भी हो, काम तो प्रधानमंत्री मोदी को करने हैं। वह लगातार गुजरात को कुछ न कुछ देते दिख रहे हैं, यह सच भी भाजपा के पक्ष में जाता है। फिलहाल अहम सवाल तो यह पूछा जा रहा है कि अल्पेश और हार्दिक एक साझा मंच पर राजनीति कैसे कर सकते हैं? आरक्षण दोनों का अहम मुद्दा है और कांग्रेस ने कोई आश्वासन नहीं दिया है। सरकार किसके हिस्से में से आरक्षण देगी? ओबीसी करीब 35 फीसदी हैं, जबकि पाटीदार उससे आधे करीब 18 फीसदी हैं।
सवाल यह भी है कि प्रधानमंत्री खुद ओबीसी हैं, उनसे बड़ा ओबीसी नेता कौन हो सकता है? बहरहाल प्रधानमंत्री चिंतित इसलिए हैं कि यदि गुजरात में चुनाव परिणाम उम्मीदों के अनुरूप नहीं रहा, तो 2019 का मिशन गड़बड़ा सकता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में सभी 26 सीटें भाजपा की झोली में आई थीं, लिहाजा नतीजे उसके आसपास ही रहने चाहिएं। अभी तो हवा की गति बेहद मद्धिम है, उसने गति पकड़नी है। हवा का रुख आने वाले दिनों में और भी साफ होगा।