लोकतंत्र के मूल्यों को सींचेगे वेंकैया नायडू
तारकेश्वर मिश्र
आजादी के बाद यह पहला अवसर है जब राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष इन चारों शीर्ष संवैधानिक पदों पर पहली बार भाजपा-संघ के चेहरे विराजमान हैं। यह एक विलक्षण सफलता और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। वेंकैया नायडू का अतीत या राजनीतिक विचारधारा भले ही कुछ भी रही हो, आज उनका निर्वाचन संवैधानिक पद पर हुआ है। विपक्ष और सोशल मीडिया पर वेंकैया नायडू को भाजपा का उपराष्ट्रपति प्रचारित किया गया। वेंकैया संघर्ष के नेता हैं। छात्र जीवन से ही जनसरोकार की लड़ाई उन्हांेने लड़ी है। उन्होंने गरीबी, अभाव और कष्ट को महूसस और भोगा है। राजनीति की लंबी पारी उन्होंने ख्ेाली है। ऐसे में उन्हें किसी दल या विचारधारा से जोड़ना किसी दृष्टि से उचित नहीं है।
आज देश के चार महत्वपूर्ण पदों पर संध के कार्यकर्ता विराजमान है। इसका अर्थ यह है कि देश ने संघ परिवार को स्वीकृति दी है। अब संघ को ‘अछूत’ मानने वालों को खामोश होना होगा, लेकिन यह सफलता और उपलब्धि एक गंभीर संवैधानिक दायित्व का एहसास भी कराती है। इस एहसास के मायने वर्चस्ववादी मानस से नहीं है। संघ-भाजपा को लचीला होना होगा और विकेंद्रीकरण के सिद्धांत को लागू करना होगा। बेशक इस दौरान में पीएम मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह सफलता के रथ पर सवार हैं। बुनियादी तौर पर दोनों ही सरकार और पार्टी के ‘सारथी’ हैं। यदि जदयू सरीखा राजनीतिक दल और तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक जैसी पार्टी के दोनों गुट, अंततः भाजपा के साथ एनडीए में शामिल होते हैं, तो यह भाजपा की व्यापक स्वीकृति है। जनाधार और जनादेश के आधार पर अभी स्वीकृति शेष है।
वर्तमान भारतीय राजनीति पर नजर डालें तो स्थिति ऐसी है कि विपक्ष के पास एक भी सर्वसम्मत चेहरा नहीं है। एक भी नेता ऐसा नहीं है, जिसका प्रभाव एक बड़े राज्य के साथ दो-तीन छोटे राज्यों में भी हो। राजनीतिक संगठन और विस्तार भी हो। कुछ सीमा तक कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का नाम लिया जा सकता है। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी और व्यापक पार्टी है। 1984-85 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दौर में कांग्रेस का भी विस्तार ऐसा ही था, जैसा आज भाजपा का है। देश के 17-18 राज्यों में सरकारें थीं और चारों शीर्ष संवैधानिक पदों पर कांग्रेस के ही नेता विराजमान थे। समय बदला और कांग्रेस के प्रति मोहभंग गहरा होता गया। नतीजतन आज की स्थिति देश के सामने है। देश राहुल गांधी को वैकल्पिक नेता के तौर पर स्वीकारने को तैयार ही नहीं हो पा रहा है। पीएम मोदी को फिलहाल चुनौती देने में राहुल सक्षम नहीं हैं। आखिर क्यों, इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकता, क्योंकि देश को फिलहाल पीएम मोदी के नेतृत्व में विश्वास है। राहुल के अलावा, मायावती, अखिलेश यादव, शरद यादव, ममता बनर्जी, लालू यादव विपक्ष के ऐसे चेहरे हैं, जो अपने राज्यों में ताकतवर हैं।
मायावती और अखिलेश के दल उत्तर प्रदेश में बुरी तरह पराजित हुए हैं। लालू एक दागी नेता हैं। उनके पूरे परिवार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। उनके परिजनों को जेल भी जाना पड़ सकता है, लिहाजा वह चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित किए जा सकते हैं। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों में विपक्षी एकता का पाखंड और दिवालियापन भी बेनकाब हुए हैं। कुल मिलाकर पीएम मोदी और अमित शाह के लिए कोई भी गंभीर चुनावी चुनौती नहीं है, लेकिन संघ और भाजपा में एक तबका ऐसा है, जो इस वर्चस्ववादी राजनीति का पक्षधर नहीं है। उसका सवाल है कि स्थितियां विपरीत होने लगीं और काडर भी नाराज हुआ, तो मोदी-शाह की सियासत का परिणति क्या होगी?
बेशक एनडीए के व्यापक होने और भाजपा की स्वीकृति बढ़ने से 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मोदी-शाह के लिए कोई बड़ी दिक्कत नहीं होनी चाहिए, लेकिन मुद्दा यह है कि सरकार और पार्टी विकेंद्रीकरण की भावना से चलती महसूस होनी चाहिए। लिहाजा हम एक संवैधानिक दायित्व की बात कर रहे हैं। अब तो राज्यसभा में भी भाजपा सबसे बड़ी पार्टी हो गई है और उपराष्ट्रपति के तौर पर राज्यसभा के सभापति भी भाजपा के हैं। चारों ओर सकारात्मक स्थितियां हैं, लिहाजा मोदी-शाह को भविष्य की राजनीति पर भी विमर्श करते रहना चाहिए।
वेंकैया को भी इस बात का इलहाम हैं कि उनका निर्वाचना संवैधानिक पद पर हुआ है। इसकी झलक उप राष्ट्रपति चुनाव की वोटिंग से एक दिन पूर्व वेंकैया ने कहा वे अब किसी राजनीतिक पार्टी में नहीं हैं, वे भारतीय जनता पार्टी से इस्तीफा देकर देश की पार्टी में आ चुके हैं, मतलब अब उनका काम देश और संविधान की रक्षा करना है, अब वे किसी पार्टी का पक्ष नहीं लेंगे और सबको सामान नजरों से देखेंगे। अपने प्रतिद्वंदी यूपीए के उम्मीदवार गोपाल कृष्ण गांधी के बारे में बोलते हुए कहा कि वे भी अच्छे व्यक्ति हैं और मेरा किसी को हारने का मकसद नहीं है, लोकतंत्र में सभी को चुनाव लड़ने का हक है, जिसे लोग चुनेंगे वो उप-राष्ट्रपति बनेगा। अगर मैं बना तो मैं राज्यसभा को पूरी निष्ठा और ईमानदारी से चलाऊंगा। मतलब साफ है कि वेंकैया को अपनी आगामी भूमिका की जिम्मेदारी का एहसास है। और वो संविधान के अुनसार बिना किसी पूर्वाग्र्रह या पूर्वधारणा के अपने कार्याें को अंजाम दंेगे।
एक दशक तक उपराष्ट्रपति के रूप में यादगार पारी खेलने वाले हामिद अंसारी जाते-जाते अपने उत्तराधिकारी के लिये लक्ष्मण रेखा खींच गए। आमतौर पर उपराष्ट्रपति की भूमिका राज्यसभा के सुव्यवस्थित संचालन के रूप में देखी जाती है। मगर हामिद अंसारी ने सार्वजनिक जीवन में सक्रियता के नये मानक स्थापित किये, जो भारतीय लोकतंत्र के लिये नीति-निर्देशकों के समरूप कहे जा सकते हैं। बीते रविवार को नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी के पच्चीसवें दीक्षांत समारोह में अपने उद्बोधन में उन्होंने जो कहा, वह भारतीय लोकतंत्र के गरिमामय मूल्यों का ही परिचायक है। उपराष्ट्रपति की पारी के अंतिम दिनों में हामिद अंसारी का यह उद्बोधन जहां भारतीय लोकतंत्र की समकालीन चिंताओं का चिंतन करता है, वहीं सत्ताधीशों को उनके दायित्वों का बोध भी कराता है। अब जब ग्यारह अगस्त को वेंकैया नायडू उपराष्ट्रपति के रूप में शपथ लेंगे तो उन्हें पूर्ववर्ती द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा का भान होगा।
एक जिम्मेदारी व जवाबदेही का एहसास होगा कि गंगा-जमुनी संस्कृति के इस देश में संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्ति से कैसे दायित्वों की उम्मीद की जाती है। उन्हें उन व्यावहारिक सूत्रों को तलाशने की जरूरत होगी जो विभिन्न धर्मों व राजनीतिक विचारधाराओं में सुगमता से साम्य स्थापित कर पाये। इसके लिये जरूरी है कि सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ा जाये। समाज की वास्तविकताओं का एहसास करते हुए स्वीकार्यता बोध को संबल प्रदान किया जाये। इसमें दो राय नहीं कि वेंकैया नायडू के पास लंबे राजनीतिक जीवन का अनुभव है और वे संसदीय मामलों के जानकार हैं। उपराष्ट्रपति पद पर आसीन होने के बाद आशा की जा सकती है कि वे राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से इतर भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों को सींचने का कार्य करेंगे। भारत की शक्ति उसका लोकतंत्र में विश्वास और आस्था ही है। इसी लोकतांत्रिक शक्ति और प्रेरणा से ही हजारों हिचकोले खाने और विविधताओं के बावजूद यह देश प्र्रगति के मार्गपर अग्रसर है। आशा है नये उपराष्ट्रपति संवैधानिक मूल्यों को मजबूत करने में महती भूमिका निभाएंगे। वही विपक्ष को भी संवैधानिक पदों पर विराजित महानुभावों को किसी दल का कार्यकर्ता, किसी विचारधारा का पोषण करने वाला या नेता मानने की बजाय उन्हें निष्पक्ष, लोकतांत्रिक और संवैधानिक दृष्टि से देखना चाहिए।
लेखक राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।