चंद्रशेखर आजाद : जीवन की अंतिम सांस तक आजाद रहने वाले क्रांतिकारी
मृत्युंजय दीक्षित
क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम व ऐतिहासिक योद्धा थे। उनका जन्म 23 जुलाई 1906 को भाबरा गांव में हुआ था। उनके पूर्वज उन्नाव जिले के वासी थे। आजाद के पिता का नाम सीताराम तिवारी तथा माता का नाम जगरानी देवी था। उनका प्रारम्भिक जीवन मप्र के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र स्थित भाबरा गांव में बीता था अतः उन्हांेने भील बालकोेेें के साथ खूब धनुष बाण चलाये। उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी। बालक चंद्रशेखर आजाद का मन अब देश को आजाद कराने के अहिंसात्म उपायों से हटकर सशस्त्ऱ क्रांति की ओर मुड़ गया था। इसके लिए वह तत्कालीन बनारस आ गये और उस समय वह क्रांतिकारियों का गढ़ था। मन्मनाथ गुप्ता व प्रणवेश चटर्जी के साथ सम्पर्क मंे आने के बाद हिंदुस्तान प्रजातंत्र दल के सदस्य बन गये।
आजाद प्रखर देशभक्त थे। काकोरी कांड में फरार होने के बाद से ही उन्होंने छिपने के लिये साधु का वेश बनाकर उसका उपयोग करना चालू कर दिया था। 1919 में अमृतसर के जलियावाला बाग नरसंहार ने युवाओं को आक्रोशित कर दिया। जब गांधी जी ने सन 1921 में असहयोग आंदोलन का फैसला किया तो वह ज्वालामुखी की तरह पूरे देश मै फैल गया। देशभर के छात्रांे की तरह आजाद भी इस आंदोलन मंे शामिल हुए। अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ आंदोंलन मे भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ्तार हुए असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें 15 बेंत की सजा सुनायी गयी। हर बेंत के साथ आजाद के मुंह से भारत मात की जय ही निकलता था। जब गांधी जी ने चैरी चैरा की घटना के बाद फरवीर 1922 मंे अपना आंदोलन वापस ले लिया इससे युवा वर्ग नाराज हो गया और बहुत से लोगों ने गांधी जी व कांग्रेस से अपना मुंह मोड़ लिया था। जिसके बाद रामप्रसाद बिस्मिल, शचींद्र नाथ सान्याल सहित कई अन्य साथियांे ने मिलकर 1924 में हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ का गठन किया। इसमंे आजाद भी शामिल हो गये। संगठन ने हथियारें के लिए डकैती डाली ,फिरौती मांगी लेकिन किसी गरीब, असयाह व महिला वर्ग को नहीं हाथ लगाया।
1 जनवरी 1925 को दल ने सम्पूर्ण देश में अपना बहुर्चिर्चत पर्चा द रिवोल्यूशनरी बांटा । जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था। इसमें सशस्त्र क्रांति की चर्चा की गयी थी। तजब शचींद्र नाथ सान्याल बंगाल मंे इस पर्चे को बांट रहे थे तभी बंगाल पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और जेल भेज दिया। संघ की नीतियों के अनसुार 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया गया। जिसमें शामिल अधिकांश लोग पकड़ लिये गये लेकिन आजाद को उनके जीते जी पुलिस नहीं पकड़ सकीं। काकोरी कांड में चार क्रांतिकारियों को फांसी और 16 को कड़ी कैद की सजा के बाद आजाद ने उत्तर भारत के सभी क्रातिकरियांे को एकत्र करके 8 सितम्बर 1928 को दिल्ली में एक गुप्त सभा का आयोजन किया इसी सभा मंे भगत सिंह को प्रचार प्रमुख बनाया गया। इस सभा में पुराने दल का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रखा गया। चंद्रशेखर आजाद ने सेना प्रमुख का पद संभाला। जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इसे फांसीवादी प्रवत्ति का नाम दिया जिसकी आलोचना मन्मनाथ गुप्ता ने अपने लेखन में की है। दल के एक सदस्य भगत सिंह बहुत आक्रामक हो गये थे तथा एसेम्बली में बम फेंकने से लेकर वायसराय की गाड़ी पर फेकने के कारण आजाद भगत सिंह से नाराज तो हो गये थे लेकिन आजाद ने कभी उन्हें केल नहीे छोड़ा। आजाद ने उनकी फांसी रूकवाने के लि पूरी एड़़ी चोटी का जोर लगा दिया था। आजाद ने दुर्गा भाभी को गांधी जी के पास भेजा लेकिन गांधी जी ने साफ मना कर दिया। आजाद ने अपने बलबूते झंासी और कानपुर में अडडे बना लिये थे। सांडर्स वध में सजा पाये भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरू की फांसी रूकवाने के लिए नेहरू से उनके निवास पर भेंट की लेकिन नेहरू जी ने आजाद की कोई बात नहीं तथ उनके साथ जोरदार बहस भी हुई तब उनसे नाराज होकर अपनी साइकिल में बैठकर अल्फ्रेड पार्क मंे अपने साथी सुखदेव राज के साथ मंत्रणा कर रहे थे कि तभी एसएसपी नाट बाबर जीप से वहां आ पहंुचा। पीछे से भारी संख्या में पुलिस बल भी आ गया। दोनां ओ रसे इि भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई। यहां पर यह भी चर्चा होती है कि नेहरू जी ने आजाद के साथ गद्दारी की थी तथा उनके पार्क मंे होने की जानकारी उन्होंने ही अंग्रेज पुलिस को दी थी।
उनके बलिदान की खबर जंगल में आग की तरह फैल गयी आरै भरी संख्या में भीड़ एकत्र हो गयी। नेहरू जी की पत्नी कमला नेहरू ने उनके बलिदान की जानकारी अन्य कांग्रेसी नेताओं दी थी । आजाद की अस्थियंा चुनकर एक जुलूस निकाला गया इलाहाबाद में उनके अतिंम जूलूस में भारी भीड़ एकत्र हो गयी थी।