मायावती का इस्तीफा: दलित हित में या कुछ और?
एस.आर.दारापुरी आई.पी.एस. (से.नि.) एवं संयोजक, जन मंच
कल मायावती ने राज्यसभा में दलित मुद्दों पर ब्यान देने के लिए अधिक समय न दिए जाने पर सदन से इस्तीफा दे दिया है जो कि उप राष्ट्रपति जी के विचाराधीन है. मायावती ने बाद में अपने ब्यान में कहा है कि उसे सदन में दलित उत्पीड़न खास करके सहारनपुर दलित उत्पीड़न काण्ड पर पूरा नहीं बोलने दिया गया जिससे दुखी होकर उसने इस्तीफा दिया है. मायावती के इस तरह नाटकीय ढंग से इस्तीफे देने के कई निहितार्थ हैं जिन पर विस्तार से चर्चा करने तथा यह देखने की ज़रुरत है कि मायावती ने क्या वास्तव में दलित हित में इस्तीफा दिया है या उसके पीछे कोई दूसरे कारण हैं.
यह तथ्य उल्लेखनीय है कि मायावती की राज्य सभा की सदस्यता 9 माह बाद वैसे ही समाप्त हो रही है और उसके दोबारा चुने जाने की कोई सम्भावना नहीं है क्योंकि वर्तमान में उसकी पार्टी का कोई भी सदस्य लोक सभा में नहीं है और उत्तर प्रदेश विधान सभा में उसके केवल 19 सदस्य हैं जो कि राज्य सभा का सदस्य चुनने के लिए काफी नहीं है. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि मायावती ने केवल दलित वोटरों को प्रभावित करने के लिए दलित मुद्दों का बहाना बना कर इस्तीफा दिया है. वह भली प्रकार जानती है कि दलित हितों की उपेक्षा के कारण उसका दलित वोट बैंक बुरी तरह से खिसक चुका है जैसा कि 2012 से ले कर 2017 तक के चुनाव परिणामों से स्पष्ट है. अतः मायावती का इस नाटकीय ढंग से इस्तीफा देना उसकी हताशा का भी प्रतीक है.
अब सबसे पहले यह देखना ज़रूरी है कि क्या मायावती दलित उत्पीड़न या दलित हितों के प्रति इतनी संवेदनशील रही है जैसा कि वह इस समय दिखाने की कोशिश कर रही है. आइए सबसे पहले मायावती के मुख्य मंत्री के तौर पर दलित उत्पीड़न के प्रति संवेदनशीलता को ही देखें. क्या यह एक चिंताजनक एतहासिक परिघटना नहीं है मायावती ने दलित उत्पीड़न से सम्बंधित एस.सी/एस.टी एक्ट को लागू करने पर 2001 में रोक लगा दी थी जो कि 2002 में इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा रद्द होने पर ही रुक सकी. क्या कोई ऐसी रोक लगाने की उम्मीद किसी दलित मुख्य मंत्री से कर सकता है? परन्तु मायावती ने ऐसा किया. इस रोक का दलितों को बहुत भारी खामियाजा भुगतना पड़ा. इससे एक तो दलित उत्पीड़न के मामले इस एक्ट के अंतर्गत दर्ज नहीं हो सके और दूसरे दलितों को इस एक्ट के अंतर्गत मिलने वाला मुयाव्ज़ा नहीं मिल सका. इस प्रकार मायावती के इस कुकृत्य से दलितों को दोहरी मार का शिकार होना पड़ा.
इसके अतिरिक्त अपने मुख्य मंत्री काल में मायावती अपराध के आंकड़े कम रहने पर बहुत जोर देती थी और उनके बढ़ जाने पर अधिकारियों को सस्पेंड अथवा स्थानांतरित कर देती थी. इसका खामियाजा भी दलितों को ही भुगतना पढ़ा क्योंकि अपराध के आंकड़े कम रखने के लिए पुलिस दलितों के अपराध की प्रथम सूचना ही दर्ज नहीं करती थी. इसके इलावा मायावती की बदनामी बचाने के लिए बसपा कार्यकर्त्ता भी अपराध दर्ज न करने पर जोर देते थे. एक अध्ययन के अनुसार 2007 में समाचार पत्रों से उपलब्ध सूचना के अनुसार उस वर्ष दलित उत्पीड़न के 60% अपराध दर्ज ही नहीं किये गए थे. इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मुख्य मंत्री के तौर पर मायावती दलित उत्पीड़न के प्रति कितनी संवेदनशील रही है.
अब अगर पिछले कुछ वर्षों में दलित उत्पीड़न के कुछ बड़े मामलों को देखा जाये तो पाया जायेगा कि इन मामलों में मायावती की प्रतिक्रिया बहुत मामूली सी ही रही है. हैदराबाद में रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या को लेकर मायावती हैदराबाद नहीं गयी और उसने केवल राज्य सभा में उसके बारे में ब्यान देकर रस्मादयगी कर दी. इसी तरह ऊना दलित उत्पीड़न के मामले में वह वहां पर गयी तो सही परन्तु उसकी प्रतिक्रिया बहुत हलकी फुलकी रही. सहारनपुर के दलित उत्पीड़न के मामले में वह घटना के 18 दिन बाद 23 मई को शब्बीरपुर गयी जब उसे 21 मई को जन्तर मंतर पर भीम सेना के पक्ष में उमड़ी भीड़ से लगा कि उसका वोट बैंक और खिसक गया है. वहां पर भी मायावती केवल समरसता बनाये रखने का उपदेश दे कर चली आई. इतना ही नहीं उसने लखनऊ आ कर सहारनपुर के दलितों को न्याय दिलाने के लिए लड़ने वाली भीम सेना के विरोध में ब्यान दिया और उसे भाजपा की उपज कहा. इतना ही नहीं उसने भीम आर्मी पर बसपा के नाम पर चंदा इकठ्ठा करने का आरोप भी लगाया. इससे भी आप मायावाती के दलित प्रेम का अंदाज़ा लगा सकते हैं.
मायावती के चार बार के मुख्य मंत्री काल के उसके दलित प्रेम के कुछ उदहारण निचे दिए जा रहे हैं:
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मायावती भी तो आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की वकालत करती रही है जिस से दलितों और पिछड़ों के जाति आधारित आरक्षण पर उँगलियाँ उठती रही हैं.
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मायावती भी पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने की वकालत करती रही है. उसने भी इस सम्बन्ध में विधान सभा से बिल पारित करा कर केंद्र सरकार को भेजा था. यह अलग बात है कि केंद्र सरकार ने उसे रद्द कर दिया था.
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मायावती ने पांच साल (2007-12) में मुख्य मंत्री रहते हुए अनुसूचित जातियों के पदोन्नति में आरक्षण की बहाली हेतु इलाहबाद हाई कोर्ट में वांछित आंकड़े प्रस्तुत नहीं किये और कोर्ट में मामले की उचित पैरवी नहीं की जिस के फलस्वरूप हजारों दलित अधिकारियों को पदावनत होना पड़ा. इस त्रासदी के लिए मायावती पूर्णतया उत्तरदायी है.
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मायावती ने ही कांशी राम जी के प्रयासों से बनायीं गयी फिल्म "तीसरी आज़ादी" तथा रामास्वामी नायकर द्वारा लिखी पुस्तक "सच्ची रामायण" को प्रतिबंधित कर दिया था जो आज तक जारी है.
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मायावती ने ही स्पोर्ट्स कालेज में दलितों के आरक्षण का कुछ सवर्णों द्वारा विरोध करने पर उसे रद्द कर दिया था.
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मायावती ने ही सरकारी विद्यालयों में कुछ विद्यार्थियों द्वारा कुछ दलित रसोईयों द्वारा बनाये गए मध्यान्ह भोजन का बहिष्कार करने पर दोषियों को दण्डित करने की बजाये दलित रसोईयों की नियुक्ति सम्बन्धी आदेश को ही रद्द कर दिया था जो कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना थी. इससे विद्यालयों में दलित रसोईयों की नियुक्तियां बंद हो गयीं और सरकारी सकूलों में छुआछूत को बढ़ावा मिला.
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मायावती ने ही दलितों के आवास की भूमि को उनके पक्ष में नियमित किये जाने के आदेश का सवर्णों द्वारा विरोध करने पर यह कह कर रद्द कर दिया था कि सम्बंधित दलित अधिकारी ने उससे धोखे से दस्तखत करवा लिए थे।
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मायावती ने ही 2007 में उत्तर प्रदेश में आंबेडकर महासभा को कार्यालय हेतु 1991 में आंबेडकर रोड, लखनऊ पर आवंटित सरकारी भवन का आवंटन रद्द करके उसे अपने मंत्री को आवास हेतु आवंटित कर दिया था जिस के विरुद्ध आंबेडकर महासभा को इलाहबाद हाई कोर्ट, लखनऊ में जनहित याचिका दायर करके स्टे लेना पड़ा था. इस प्रकार उसने उत्तर प्रदेश में दलितों की एक मात्र संस्था को ही ख़त्म करने की कोशिश की.
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मायावती ने 1995 के मुख्य मंत्री काल के छोटे समय को छोड़ कर शेष समय में भूमिहीन दलितों को कोई भी भूमि आबंटन नहीं किया जबकि उस दौरान प्रदेश में पर्याप्त मात्रा में आबंटन हेतु भूमि उपलब्ध थी. इसके दुष्परिणाम स्वरूप आज भी अधिकतर दलित भूमिहीन हैं और शोषण और सामंतों के अत्याचार का शिकार हो रहे हैं.
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मायावती ने ही 2008 में लागू हुए वनाधिकार कानून के अंतर्गत वनवासियों और आदिवासियों को भूमि का मालिकाना अधिकार देने की बजाए उनके 81% दावों को रद्द कर दिया था जिस कारण उन्हें अपने कब्ज़े की ज़मीन का मालिकाना हक नहीं मिल सका। विवश हो कर आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट को इलाहाबाद हाई कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर आदेश प्राप्त करना पड़ा था.
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मायावती ने ही उत्तर प्रदेश के 2% आदिवासियों के लिए विधान सभा की दो सीटें आरक्षित करने संबंधी बिल का विरोध किया था जिस कारण उन्हें 2012 के विधान सभा चुनाव में कोई भी सीट नहीं मिल सकी थी. अब आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की सुप्रीम कोर्ट में पैरवी के कारण इस चुनाव में उनके लिए दो सीटें आरक्षित हो सकी हैं.
उपरोक्त दिए गए कुछ तथ्यों से स्पष्ट है कि मायवती ने अपने चार बार के मुख्य मंत्री काल में दलित उत्पीड़न और दलित हितों की घोर उपेक्षा की जिससे कुछ दलितों का भावनात्मक तुष्टिकरण तो हुआ परन्तु उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हो सका. इसके विपरीत मायावती के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के कारण दलित सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से भी केवल आंशिक तौर पर ही लाभावित हो सके. इसी का दुष्परिणाम है कि आज उत्तर प्रदेश के दलित सरकारी आंकड़ों के अनुसार विकास के मापदंडों पर बिहार, ओड़िसा और मध्य प्रदेश के दलितों को छोड़ कर शेष सभी राज्यों के दलितों से पिछड़े हुए हैं.
अब नाटकीय ढंग से इस्तीफा दे कर मायावती दलित हितैषी होने का जो स्वांग कर रही है उसे सभी दलित बहुत अच्छी तरह से समझ रहे हैं. मायावती के दलित उपेक्षा के पूर्व आचरण को देख कर अब वे उसके झांसे में आने वाले नहीं हैं. अब दलित जाति की राजनीति से बाहर निकल कर अपने सम्मान, भूमि, रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य और उत्पीड़न से मुक्ति की लड़ाई सड़क पर स्वयम लड़ने के लिए आगे आ रहे हैं. इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात से हो चुकी है. उत्तर प्रदेश में भी पूर्वांचल के दलित स्वराज अभियान के बैनर तले वनाधिकार के अंतर्गत भूमि संघर्ष के लिए लामबंद हो चुके हैं. अब यह तय है कि दलितों के नाम पर जातिवादी, अवसरवादी, व्यक्तिवादी, स्वार्थपरता और भ्रष्टाचार की राजनीति के दोबारा पनपने की कोई उम्मीद नहीं है. दलित अब पूरी तरह से समझ रहे हैं कि मायावती का इस्तीफा किसी भी तरह से दलित हित में नहीं बल्कि दलितों को पुनः अपने मायाजाल में फंसाने का प्रयास मात्र है.