तलाक़, हलाला और खुला पर इस्लाम का कानून और मुसलमानों का अमल
सय्यद आलम शाज़ली फतेहपुरी
तलाक़, हलाला और खुला कोई अच्छी चीज़ नहीं सभी लोग इसको बुरा समझते है और इस्लाम में भी इसको बुरा ही माना गया है | जबकि हम बात करते है इस्लाम की तो इस्लाम एक ऐसा मज़हब है जिसमें इंसान की पैदाइश से लेकर क़ब्रिस्तान में पहुंचने तक के सफर के बारे में एक एक बात को वाज़ेह तौर पर समझाया है| शिक्षा और प्रशिक्षण का चरण हो, शादी ब्याह का मामला हो, सामाजिक निर्माण का मामला हो, राष्ट्रीय एकता और अखण्डता का मामला हो, इन सभी कठिन अवसरों पर भी इस्लामी प्रणाली की रोशनी में एक ऐसी जीवन गुजर-बसर की जा सकती है जिसकी जरूरत कमोबेश आज हर इंसान को है, लेकिन एक सवाल पैदा होता है कि जब इस्लामी प्रणाली अपने अंदर इस कदर खूबियां और विस्तार और सार्वभौमिकता रखता है तो उसके कुछ प्रणाली पर लोग उंगली क्यों उठाते हैं? जब इस्लामी प्रणाली पूरी मानवता के लिए मार्गदर्शन का सबसे अच्छा स्रोत है फिर कुछ कुछ वो लोग जो इस्लामी नेजाम के अनुसार अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, इस प्रणाली के बाद इसके कुछ भाग से संतुष्ट क्यों नहीं हैं? क्यों उन्हें लगता है कि इस पर कुछ विचार करने की जरूरत है? तो इस संबंध में सबसे पहले अर्ज़ है कि हम यह कह कर अपना हाथ नहीं उठा सकते हैं कि ऐसा करने वाले उदारवादी लोग हैं, या इस्लाम दुश्मन हैं, बल्कि तथ्य यह है कि उनमें कुछ लोग बड़े ज्ञानवान, चेतना और धार्मिक आधार पर जीवन जीने में विश्वास भी रखते हैं, फिर भी वे जीवन के किसी न किसी मोड़ पर बड़े असमंजस में पड़ जाते हैं और यह तय नहीं कर पाते कि वे क्या करें और क्या नहीं। ऐसे अवसरों पर कुछ व्यक्तिय किसी प्रकार गुंजाइश निकाल लेते हैं, लेकिन कुछ लोग गुंजाइश निकालने की शक्ति नहीं रख पाते और ज़लालत व बे दीनी के दलदल में फंसते चले जाते हैं, जिसके पर्दे में इस्लाम दुश्मन ताकतें उन्हें अपना मोहरा बना लेती हैं और इस्लाम के प्रणाली पर सवाल खड़ा कर देती हैं। इसलिए आज इसके उदाहरण समान नागरिक संहिता, तीन तलाक, हलाला आदि पर आपत्ति की स्थिति में हमारे सामने मौजूद हैं।
इससे पहले की मैं कोई गुफ्तुगू शुरू करूँ, यह समझना बहुत ज़रूरी है की तलाक़, हलाला और खुला की जड़/ शुरुआत कहाँ से होती है | इन सब की शुरुआत निकाह से होती है और निकाह करने से पहले उसकी अपनी कुछ शराइत हैं| क्यूंकि अगर कोई मुसलमान उन बुनियादी शराइत की पैरवी नहीं करता और दुनियावी हालत के एतबार से या अपनी मर्ज़ी से शादी करता है तभी ज़्यादातर तलाक़ का मसला हमारे सामने खड़ा होता है |
निकाह :
निकाह के बारे में क़ुरआन शरीफ में बहुत सी आयात और हदीस शरीफ मौजूद हैं इसमें से कुछ मैं हवाले के तौर पर कोट कर रहा हूँ :
وَأَنْكِحُوا الْأَيَامَىٰ مِنْكُمْ وَالصَّالِحِينَ مِنْ عِبَادِكُمْ وَإِمَائِكُمْ ۚ إِنْ يَكُونُوا فُقَرَاءَ يُغْنِهِمُ اللَّهُ مِنْ فَضْلِهِ ۗ وَاللَّهُ وَاسِعٌ عَلِيمٌ
(Surah 24, Verse 32)
अल्लाह (सुब्हानहु ताला) हमें (निकाह को वाजिब क़रार होते हुए ) आदेश देता है कि हममें से हर एक , मुस्लिम पुरुष / महिला से विवाह करें। अल्लाह (सुब्हानहु ताला) हमें यह भी गारंटी देता है कि अगर हम गरीब हैं या उचित धन की कमी है, तो भी हमें विवाह को विलंब नहीं करना चाहिए क्योंकि अल्लाह ताला अपनी क़ुदरत से शादी शुदा जोड़े का ध्यान रखेगा और उनकी शादी शुदा ज़िन्दगी में रिज़्क़ अत करेगा!
वहीँ दूसरी जगह अल्लाह टाला क़ुरआन शरीफ में इरशाद फरमाता है की :
هُنَّ لِبَاسٌ لَكُمْ وَأَنْتُمْ لِبَاسٌ لَهُنَّ
(Surah 2, Verse187)
अल्लाह ताला फरमाता है की आपकी बीवियां आपके लिए कवर (कपडे) और आप अपनी बीवियों के लिए कवर(कपडे) है |
यह बात ठीक उसी तरह से है जैसे हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में, हम कपड़ों के कई उपयोग देखते है । न केवल हमारे कपडे खुद के लिए सौंदर्यीकरण के रूप में कार्य करते है, बल्कि यह किसी भी दोष को भी छुपता है जो हमारे शारीरिक शरीर पर हो सकते हैं – इस प्रकार, अगर किसी व्यक्ति के शरीर पर कोई निशान या जला निशान होता है, तो कपड़ों के ज़रिये वह चुप जाता है इसी तरह से हम समाज में लोगों के दरमियान उठते बैठते है और दुसरे लोग नहीं जानते कि हमारे शरीर में भी एक शारीरिक दोष है।
पति और पत्नी एक दूसरे के संबंध में एक समान भूमिका निभाने के लिए हैं। यदि पत्नी को आध्यात्मिक दोष या उसके चरित्र में कुछ अभाव है, तो पति को इन्हें कवर करना चाहिए और उसकी कमियों को दूसरों तक नहीं दिखाया जाना चाहिए पत्नी को भी पति की कमियों और कमजोरियों को छिपाना पड़ेगा और अपने साथी की रक्षा करनी होगी। न केवल अल्लाह ताला ने इन शहदी शुदा जोड़ों को आज्ञा दी है बल्कि हुक्म दिया है की एक दूसरे का मज़ाक न करें और आपसे में एक-दूसरे के सम्मान और अखंडता की रक्षा भी करें।
हदीथ शरीफ है की अल्लाह के रसूल सल्ला अल्लाहु अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया :
قالَ رَسُولُ اللهِ (صَلَّى اللهُ عَلَيهِ وَآلِهِ وَسَلّمَ): مِنْ سُنَّتِي أَلتَّزْوِيجُ فَمَنْ رَغِبَ عَنْ سُنَّتِي فَلَيْسَ مِنِّي
शादी करना मेरी सुन्नत है , और जो मेरी सुन्नत पे अमल न करे( शादी न करे) वह मुझसे नहीं है |
एक बात तो वजह हो गई की क़ुरआन और हदीथ में निकाह की कितनी अहमियत और अल्लाह के रसूल साला अल्लाहु अलैहे वसालाम ने कितना ज़ोर दिया है|
अब निकाह की इस्लाम में कुछ शराएत भी है :
प्रथम : संकेत से, या नाम लेकर, या गुणविशेषण आदि के द्वारा पति और पत्नी में से प्रत्येक को निर्धारित करना।
दूसरी : पति और पत्नी में से प्र्रत्येक का दूसरे से सहमत होना क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : ‘‘बिना पति वाली औरत (मृत्यु या तलाक़ की वजह से जिसका पति न रह गया हो) की शादी न की जाय यहाँ तक कि उससे परामर्श कर लिया जाय (अर्थात उसका आदेश ले लिया जाय, चुनाँचे उसका स्पष्टीकारण करना ज़रूरी है) तथा कुंवारी औरत की शादी न की जाय यहाँ तक कि उसकी अनुमति ले ली जाय (अर्थात यहाँ तक कि वह शब्दों के द्वारा या मौन धारण करके सहमति व्यक्त कर दे), लोगों ने कहा : ऐ अल्लाह के पैगंबर! उसकी अनुमति कैसे होगी (क्योंकि वह शरमाती है) आप ने फरमाया : वह खामोश रहे।” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 4741) ने रिवायत किया है।
तीसरी : महिला का निकाह उसका वली (सरपरस्त, अभि भावक) कराए क्योंकि अल्लाह तआला ने वलियों को निकाह कराने के लिए संबोधित किया है, चुनाँचे फरमाया :
﴿وَأَنْكِحُوا الْأَيَامَى مِنْكُمْ ﴾ [ سورة النور : 32]
“और तुम अपने में से अविवाहितो का विवाह कर दो।” (सूरतुन्नूरः 32).
तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
“जिस औरत ने भी अपने वली की अनुमति के बिना निकाह किया तो उसका निकाह बातिल है, तो उसका निकाह बातिल है, तो उसका निकाह बातिल है।” इसे तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 1021) वगैरह ने रिवायत किया है और यह एक सहीह हदीस है।
चौथी : निकाह के अनुबंध पर गवाही रखना, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “एक वली और दो गवाहों के बिना निकाह नहीं है।” इसे तबरानी ने रिवायत किया है और वह सहीहुल जामे (हदीस संख्या : 7558) में है।
तथा निकाह की घोषणा और प्रचार करना निश्चित है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरामन है : “निकाह का एलान करो।” इसे इमाम अहमद ने रिवायत किया है और उसे सहीहुल जामे (हदीस संख्या : 1072) में हसन करार दिया है।
जहाँ तक वली की बात है तो उसके अंदर निम्नलिखित चीज़ों की शर्त लगाई जाती है :
1- बुद्धि का होना।
2- व्यस्क (बालिग) होना।
3- आज़ादी।
4- धर्म की एकता (अर्थात दोनों का धर्म एक हो), चुनाँचे एक नास्तिक को किसी मुसलमान पुरूष या मुसलमान महिला के ऊपर सरपरस्ती का अधिकार नहीं है, इसी तरह किसी मुसलमान को किसी नास्तिक पुरूष या नास्तिक महिला पर सरपरस्ती हासिल नहीं है, जबकि नास्तिक को एक नास्तिक महिला के ऊपर शादी कराने की सरपरस्ती प्राप्त है भले ही दोनों का धर्म अलग-अलग हो, तथ मुर्तद्द (धर्म से फिर जानेवाले) आदमी को किसी पर सरपरस्ती का अधिकार नहीं है।
5- सत्यवाद व न्यायप्रियताः जो दुराचार के विपरीत हो, यह कुछ विद्धानों के निकट शर्त है, जबकि कुछ लोगों ने केवल ज़ाहिरी सत्यवाद व न्याय प्रियता पर बस किया है, तथा कुछ लोगों ने कहा है कि इतनी बात काफी है कि वह जिसकी शादी के मामले की सरपरस्ती कर रहा है उसके हित के बारे में चिंतन करने वाला हो।
6- पुरूषत्व : अर्थात पुरूष होना क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “कोई महिला किसी महिला की शदी न करे, और न ही कोई महिला अपनी शादी स्वयं करे। क्योंकि व्यभिचारणी महिला ही अपनी शादी स्वयं करती है।” इसे इब्ने माजा (हदीस संख्या : 782) ने रिवायत यिका है और यह हदीस सहीहुल जामे (7298) में है।
7- विवेक व समझ बूझ : अर्थात कुशल व योग्य व्यक्ति और निकाह के हितों की पहचान करने पर सक्षमता का होना।
फुक़हा के यहाँ वलियों का एक क्रम (तर्तीब) है चुनाँचे निकटतम वली को छोड़कर दूसरे का चयन उसी समय किया जायेगा जब वह मौजूद न हो या वह वली की शर्तों पर न उतरता हो। महिला का वली (सरपरस्त) उसका पिता, फिर उसका वसीयत किया हुआ आदमी, फिर बाप की तरफ से उसका दादा अगरचे ऊपर तक चला जाए, फिर उस महिला का बेटा, फिर उसके बेटे अगरचे नीचे तक चले जाएँ, फिर उसका सगा भाई, फिर बाप की तरफ से भाई फिर उन दोनों के बेटे, फिर उस महिला का सगा चाचा फिर उसका अल्लाती चाचा फिर उन दोनों के बेटे, फिर असबह में से नसब के एतिबार से निकटतम रिश्तेदार, तथा मुसलमान बादशाह (और उसका प्रतिनिधित्व करने वाला जैसे क़ाज़ी) उस का वली (सरपरस्त) है जिसका कोई सरपरस्त नहीं है। और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।
तलाक़:
निकाह एक मुक़द्दस इस्लामी रिश्ता है जिससे एक मुसलमान मर्द के लिए अजनबी मुसलमान औरत हलाल हो जाती है और अब शौहर और औरत दोनों को जाएज़ तरीके से अपनी ख्वाहिशात को पूरा करने का हक़ मिल जाता है| निकाह की ज़रिये औरत शौहर की और शौहर औरत का पाबंद होता है इस पाबन्दी के ख़तम होने का नाम तलाक़/खुला है |
आम तौर पर तलाक़ कहते है पति पत्नी में अगर किसी तरह भी निबाह नहीं हो पा रहा है तो अपनी ज़िदगी जहन्नम बनाने से बहतर है कि वो अलग हो कर अपनी ज़िन्दगी का सफ़र अपनी मर्ज़ी से पूरा करें जो कि इंसान होने के नाते उनका हक है, इसी लिए दुनियां भर के कानून में तलाक़ की गुंजाइश मौजूद है.
तलाक़ के बारे में क़ुरआन में अल्लाह ताला फरमाता है :
ऐ नबी (सल्ला अल्लाहु अलैहे वसल्लम) जब तुम अपनी पत्नियों को तलाक़ दो तो उनके इद्दत के दिन पर न दो , अपने रब से डरो और इद्दत के दिनों में अपनी औरतों को उनके घर से न निकालो और न वह खुद अपने घरों से निकलें , जिससे की वह खुले तौर पर बेहयाई न करें ,और यह अल्लाह ताला की हदें है और जो अल्लाह ताला की हद के खिलाफ तजवीद करेगा वह अपने आप ज़ुल्म करेगा क्यूंकि वह नहीं जनता की अल्लाह ताला कोनसी सुरते हाल पैदा कर दे और वह दोनों फिर से एक हो जाएँ|
समझने के मतलब यह है की अगर शोहर और बीवी दोनों या दोनों में से किसी एक ने तलाक का फैसला कर ही लिया है तो शोहर बीवी के खास दिनों (Menstruation) के आने का इन्तिज़ार करे, और खास दिनों के गुज़र जाने के बाद जब बीवी पाक़ हो जाए तो बिना हम बिस्तर हुए कम से कम दो जुम्मेदार लोगों को गवाह बना कर उनके सामने बीवी को एक तलाक दे, यानि शोहर बीवी से सिर्फ इतना कहे कि ”मैं तुम्हे तलाक देता हूँ”.|
तलाक हर हाल में एक ही दी जाएगी दो या तीन या सौ नहीं, जो लोग जिहालत की हदें पार करते हुए दो तीन या हज़ार तलाक बोल देते हैं यह इस्लाम के बिल्कुल खिलाफ अमल है और बहुत बड़ा गुनाह है अल्लाह के रसूल (सल्लाहू अलैहि वसल्लम) के फरमान के मुताबिक जो ऐसा बोलता है वो इस्लामी शर्यत और कुरआन का मज़ाक उड़ा रहा होता है.
इस एक तलाक के बाद बीवी 3 महीने यानि 3 तीन हैज़ (जिन्हें इद्दत कहा जाता है और अगर वो प्रेग्नेंट है तो बच्चा होने) तक शोहर ही के घर रहेगी और उसका खर्च भी शोहर ही के जुम्मे रहेगा लेकिन उनके बिस्तर अलग रहेंगे, कुरआन ने सूरेह तलाक में हुक्म फ़रमाया है कि इद्दत पूरी होने से पहले ना तो बीवी को ससुराल से निकाला जाए और ना ही वो खुद निकले, इसकी वजह कुरआन ने यह बतलाई है कि इससे उम्मीद है कि इद्दत के दौरान शोहर बीवी में सुलह हो जाए और वो तलाक का फैसला वापस लेने को तैयार हो जाएं.
अक्ल की रौशनी से अगर इस हुक्म पर गोर किया जाए तो मालूम होगा कि इसमें बड़ी अच्छी हिकमत है, हर मआशरे(समाज) में बीच में आज भड़काने वाले लोग मौजूद होते ही हैं, अगर बीवी तलाक मिलते ही अपनी माँ के घर चली जाए तो ऐसे लोगों को दोनों तरफ कान भरने का मौका मिल जाएगा, इसलिए यह ज़रूरी है कि बीवी इद्दत का वक़्त शोहर ही के घर गुज़ारे.
फिर अगर शोहर बीवी में इद्दत के दौरान सुलह हो जाए तो फिरसे वो दोनों बिना कुछ किये शोहर और बीवी की हेस्यत से रह सकते हैं इसके लिए उन्हें सिर्फ इतना करना होगा कि जिन गवाहों के सामने तलाक दी थी उनको खबर करदें कि हम ने अपना फैसला बदल लिया है, कानून में इसे ही ”रुजू” करना कहते हैं और यह ज़िन्दगी में दो बार किया जा सकता है इससे ज्यादा नहीं.(सूरेह बक्राह-229)
शोहर रुजू ना करे तो इद्दत के पूरा होने पर शोहर बीवी का रिश्ता ख़त्म हो जाएगा, लिहाज़ा कुरआन ने यह हिदायत फरमाई है कि इद्दत अगर पूरी होने वाली है तो शोहर को यह फैसला कर लेना चाहिए कि उसे बीवी को रोकना है या रुखसत करना है, दोनों ही सूरतों में अल्लाह का हुक्म है कि मामला भले तरीके से किया जाए, सूरेह बक्राह में हिदायत फरमाई है कि अगर बीवी को रोकने का फैसला किया है तो यह रोकना वीबी को परेशान करने के लिए हरगिज़ नहीं होना चाहिए बल्कि सिर्फ भलाई के लिए ही रोका जाए.
अब फ़र्ज़ करें कि दूसरी बार भी तलाक के बाद वो दोनों आपस में शादी करना चाहें तो शरयत में तीसरी बार भी उन्हें निकाह करने की इजाज़त है.
लेकिन अब अगर उनको तलाक हुई तो यह तीसरी तलाक होगी जिस के बाद ना तो रुजू कर सकते हैं और ना ही आपस में निकाह किया जा सकता है.
हलाला:
अब चौथी बार उनकी आपस में निकाह करने की कोई गुंजाइश नहीं लेकिन सिर्फ ऐसे कि अपनी आज़ाद मर्ज़ी से वो औरत किसी दुसरे मर्द से शादी करे और इत्तिफाक़ से उनका भी निभा ना हो सके और वो दूसरा शोहर भी उसे तलाक देदे या मर जाए तो ही वो औरत पहले मर्द से निकाह कर सकती है, इसी को कानून में ”हलाला” कहते हैं.
लेकिन याद रहे यह इत्तिफ़ाक से हो तो जायज़ है जान बूझ कर या प्लान बना कर किसी और मर्द से शादी करना और फिर उससे सिर्फ इस लिए तलाक लेना ताकि पहले शोहर से निकाह जायज़ हो सके यह साजिश सरासर नाजायज़ है और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसी साजिश करने वालों पर लानत फरमाई है.
खुला:
*अगर सिर्फ बीवी तलाक चाहे तो उसे शोहर से तलाक मांगना होगी, अगर शोहर नेक इंसान होगा तो ज़ाहिर है वो बीवी को समझाने की कोशिश करेगा और फिर उसे एक तलाक दे देगा, लेकिन अगर शोहर मांगने के बावजूद भी तलाक नहीं देता तो बीवी के लिए इस्लाम में यह आसानी रखी गई है कि वो शहर काज़ी (जज) के पास जाए और उससे शोहर से तलाक दिलवाने के लिए कहे, इस्लाम ने काज़ी को यह हक़ दे रखा है कि वो उनका रिश्ता ख़त्म करने का ऐलान कर दे, जिससे उनकी तलाक हो जाएगी, कानून में इसे ”खुला” कहा जाता है.
यही तलाक का सही तरीका है लेकिन अफ़सोस की बात है कि हमारे यहाँ इस तरीके की खिलाफ वर्जी भी होती है और कुछ लोग बिना सोचे समझे इस्लाम के खिलाफ तरीके से तलाक देते हैं जिससे खुद भी परेशानी उठाते हैं और इस्लाम की भी बदनामी होती है|
मेरी सभी मुस्लिम बहनों से इल्तेजा है जो कोर्ट में तीन तलाक़ का मामला लेकर गई हैं , क्या उन्होंने यक़ीनन इस्लामिक नुक़्ता ए नज़र से निकाह किया था ? क्या उन्होंने लड़के में दीनदारी देखि थी ? क्या उन्होंने लड़के के हसाब नसब को देखा था ? यक़ीनन उनका जवाब नहीं में होगा | इस्लाम ने सिर्फ तलाक़ का ही प्रावधान नहीं रखा इसमें खुला का भी प्रावधान है | इस्लाम ने मर्द और औरत दोनों को बराबर का अधिकार दिया है | इसलिए वह लडकियां या वह समाज जो इस्लाम के तलाक़ के कानून के खिलाफ है उन्हें पहले मज़हब ए इस्लाम के क़वानीन पर गौर फ़िक्र करके पढ़ें और समझना होगा|
हमारे समाज में शादी में बेफज़ूल खर्च और दहेज़ एक बड़ा मसला बनता जा रहा है इसलिए क्यूंकि यह मसाइल हमने खुद खड़े किये है | मेरी इल्तेजा है की मुस्लिम धरम गुरु और समाज के पढ़े लिखे लोग आगे बढ़ें और इन कुरित्यों को ख़तम करें तभी इस्लाम पर उठने वाली ऊँगली का मुँह तोड़ जवाब दिया सकता है |