साम्प्रदायिक फासीवादी हमले के खिलाफ लोकतान्त्रिक धर्म निरपेक्ष भारत के पक्ष में खड़े हों
मुश्ताक अली अन्सारी दिनेश कुमार
सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या शहीदे आजम भगत सिंह का राष्ट्रवाद व देश भक्ति तथा आर0एस0एस0 व बी0जे0पी0 का हिन्दू राष्ट्रवाद व देश भक्ति एक है। या एक दूसरे के विरोधी। भगत सिंह और उनकी देश भक्ति किसके हित में है? आर0एस0एस0 व बी0जे0पी0 की किसकेे हित में है?
शहीदे आजम भगत सिंह का राष्ट्रवाद व देश भक्ति ब्रिटिश साम्राज्य के जुए से देश को आजाद कराने में निहित थी वह साम्प्रदायिकता पर आधारित हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा जो विभाजनकारी ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था पर आधारित था जिसके शीर्ष पर सामन्ती ताकतें विराजमान थी पूरी तरह ब्रिटिश साम्राज्य के स्तम्भ थे के धुर विरोधी थे। उनके राष्ट्रवाद और देश भक्ति की जडे़ 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में निहित थीं। उन्होने देखा कि 1857 में देश के ब्रिटिश सेना के सिपाही जो मजदूरों व किसानों के सुपुत्र थे इस बगावत में कूद पड़े उनकी इस बगावत के साथ दलित पिछड़े सामाजिक समूह के मजदूरों, किसानों ने दिया और इस संघर्ष में देशभक्त राजा, नवाब तक शामिल हो गये। इसमें आम महिलायें तक पीछे नहीं रहीं यह देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गया। इस संघर्ष ने पहली बार अभूतपूर्व राष्ट्रीय एकता व बलिदान का परिचय दिया। जिसमें जाति और धर्म का बन्धन स्वतः ही पीछे छूट गया। इसमें न कोई हिन्दू चिन्तन था न मुस्लिम। सभी विदेशी गुलामी के जुए के खिलाफ राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए प्राण न्यौछावर कर रहे थे। जिसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार की चूलें हिला दीं। यह थी धर्म निरपेक्ष राष्ट्र की चेतना। इसी चेतना का प्रस्फुटन हुआ था शहीदे आजम भगत सिंह में। इसी लिए धर्म निरपेक्ष राष्ट्र की चेतना को पाश्चात्य चेतना कहकर खारिज करना ऐतिहासिक तथ्य को नकारना है। यह सही है कि बोलशेविक रूसी, कम्युनिस्ट क्रान्ति का हमारे देश पर और क्रान्तिकारियों पर गहरा असर पड़ा। इस असर को भगत सिंह ने आत्मसात किया था जो उनके विश्व दृष्टिकोण में दिखाई देता है।
आजादी के आन्दोलन के विरोध में एक दूसरा पहलू भी उभरा था। ब्राह्मणवादी व्यवस्था और ब्रिटिश साम्राज्य के पोषक राजाओं नवाबों, सामन्तों का एक ऐसा भी हिस्सा था जिसने आजादी के आन्दोलन को कुचलने में ब्रिटिश सरकार की पूरी मदद की। इस लिए ब्रिटिश सरकार ने उपहार के बतौर उनकी
फिर भी आजादी की भावना विलुप्त नहीं हुई। वह पुनः आगे बढ़ने लगी जैसे-जैसे आजादी का आन्दोलन आगे बढ़ा वैसे-वैसे इस आन्दोलन को विभाजित और कमजोर करने के लिए ब्रिटिश शासकों ने सामन्ती ताकतों का इस्तेमाल किया दरअसल यह वही ताकतें थी जिन्होने आजादी के संघर्ष के खिलाफ ब्रिटिश साम्राज्य का पक्ष पोषण किया था। संयोग देखिए कि 1925 में जब आजादी के आन्दोलन को गति देने के लिए कानपुर में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई तो ठीक इसी वर्ष आजादी के आन्दोलन को विभाजित करने और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा के लिए हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना हुई। जिसने अपना शत्रु देश को गुलामी की चक्की में पीसने वाली ब्रिटिश सरकार को नहीं मुसलमानों को घोषित किया इसी प्रकार मुस्लिम लीग भी बनी और बाद में ब्रिटिश शासकों के हित में धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ। आर0एस0एस0 का काम हिन्दू-मुसलमानों के बीच दंगे फैलाना और क्रान्तिकारियों के खिलाफ गवाहियाॅं देना बन गया। ये आजादी के आन्दोलन के इतने विरोधी थे कि इनके एक कार्यकर्ता नाथूराम गोडसे ने आजादी के तुरन्त बाद निहत्थे गाॅंधी जी की हत्या कर दी। आर0एस0एस0 का हिन्दू राष्ट्रवाद-साम्राज्यवाद का सेवक है। यह देश भक्त नहीं राजभक्त हैैं। अक्सर आर0एस0एस0 की तुलना हिटलर की पार्टी और मुसोलनी की पार्टी से होती है। इसे समझना जरूरी है।
इटली के मुसोलनी की पार्टी का नाम फासिस्ट पार्टी था। जबकि जर्मनी के हिटलर की पार्टी का नाम नाजी था। दोनों के उद्देश्य और कार्यक्रम एक ही थे। उनका सरकार व व्यवस्था चलाने का तरीका भी एक ही था। दोनों ही जनवादी संस्थाओं और जनवाद यानी लोकतन्त्र के घोर विरोधी थे। हिटलर ने जर्मन राष्ट्रवाद को बुलन्द करने के लिये अपने देश के अन्दर यहूदियों को निशाना बनाया। उनके खिलाफ झूठा मगर जहरीला प्रचार चलाया उन्हें देश की सारी समस्याओं की जड़ बताया और देश के बाहर ब्रिटेन और फ्रांस को जर्मन राष्ट्रवाद का शत्रु बताया उसने देश के अन्दर फासीवाद की स्थापना के लिए 60 लाख यहूदियों और 50 लाख कम्युनिस्टों व अन्य जनवादी ताकतों का नर संहार कराया एक छोटे से जर्मन देश में कुल 1 करोड़ 10 लाख लोगों का नरसंहार करके तथा फ्रांस और ब्रिटेन पर हमला करके द्वितीय विश्व युद्ध छेड़ दिया। यह एक ऐसा नस्लवादी राष्ट्रवादी नशा था जिसमें अधिकांश जर्मन हिटलर के साथ खड़े रहे। यह सब कुछ उसने अपने देश की वित्तीय पूॅंजी के हित में किया। जिसके मालिक मुट्ठी भर पूॅंजीपति थे। हिटलर का विनाश अपने आप नहीं हुआ इसका विनाश रूसी कम्यूनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में लाल सेना ने किया।
हम जब अपने देश के अन्दर देखते हैं तो पाते हैं कि हमारे देश के अन्दर हिन्दू राष्ट्रवाद का विकास आर0एस0एस0 और बी0जे0पी0 ने मुसलमानों के खिलाफ मिथ्या जहरीला प्रचार और दंगे संगठित करके किया है जिसमें हजारोें लोगों का नरसंहार हुआ है। देश के बाहर उनका निशाना पाकिस्तान है यह सब कारपोरेट पूॅंजी के हित में हुआ है। आज वह सत्ता में हैं कारपोरेट मीडिया उसी तरह मोदी व योगी का प्रचार कर रहे हैं जिस तरह जर्मन मीडिया व उनका फासीवादी संगठन हिटलर का करता था।
जब हम फासीवादी जर्मन राष्ट्रवाद की रोशनी में फासीवादी हिन्दू राष्ट्रवाद के उत्थान और उसकी गद्दी नशीनी को देखते हैं तो निश्चय ही एक भयावह भविष्य की तस्वीर हमारे सामने प्रकट होती है। तब सवाल उठता है कि आखिर इसे रोका कैसे जाये? इसे रोकने का एक उपाय पूॅंजीवादी बुद्धिजीवियों की ओर से आया है कि अगर कांग्रेस, सपा, बसपा, जदयू, राजद, तृणमूल कांग्रेस व अन्य क्षेत्रीय दलों का गठबंधन बने तो 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को पराजित किया जा सकता है। इसके लिये बिहार प्रयोग का उदाहरण दिया जा रहा है। इसे समझना चाहिये। यह सही है कि जदयू, राजद और कांग्रेस गठबंधन ने बिहार में भाजपा को प्रेदश सरकार बनाने नहीं दिया मगर अभी भी वह बिहार में बहुत शक्तिशाली है। प्रदेश की राजनीति को निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाती है। बिहार के प्रयोग को दोहराने के लिये ही उत्तर प्रदेश में कांग्रेस-सपा गठबंधन बना था मगर यह प्रयोग सफल नहीं हुआ अगर कांग्रेस, सपा और बसपा के वोटों को जोड़ दें तो लगभग बराबर की टक्कर दिखती है। कहने का अर्थ यह है गणितीय ढंग से अगर देखा जाये तो यह गठबंधन उसे हरा ही देगा इसकी कोई गारन्टी नहीं है। सच्चाई यह है कि कांगे्रस, सपा, बसपा व अन्य क्षेत्रीय दलों की सरकारों की असफलता ने ही हिन्दू राष्ट्रवाद पर आधारित आ0एस0एस0 और भाजपा को बढ़़ने का मौका दिया है। पहले मण्डल के खिलाफ कमण्डल की जो लड़ाई चली उसमें कहा गया कि कमण्डल हिन्दू वादी ताकत फासीवादी ताकत है। यह दलित पिछड़ा व मुस्लिम विरोधी है। इसे हराना आवश्यक है। यह भी कहा गया कि हिन्दुत्व जिसे ब्राह्मणवादी भी कहा जाता है इसके दो विपरीत पहलू हैं। इसका एक पहलू सवर्ण जो सामाजिक तौर पर अधिक सम्पन्न पहलू है वही सरकार व सत्ता को नियन्त्रित करता है। दूसरा पहलू शुद्र पहलू है जो सामाजिक तौर पर अधिकार विहीन पहलू है। सत्ता व सरकार से बाहर है सामाजिक अन्याय का शिकार है यह बहुमत है। यह शुद्र दलित व पिछड़े हैं। दलित पिछड़े और मुस्लिम यह तीनों हिन्दुत्व वादी ताकतों के शिकार हैं इसीलिये सामाजिक न्याय की ताकतों के आधार पर मुस्लिम गठजोड़ की नीति बनी इस गठबंधन को ही धर्मनिरपेक्ष मोर्चा कहा गया। इसी के आधार पर आर0एस0एस0 बी0जे0पी0 के हिन्दुत्व के खिलाफ मोर्चेबन्दी सामने आई। इस आधार पर किये गये विभाजन ने यू0पी0, बिहार व हरियाणा में भाजपा को सरकार बनाने से दूर रखा मगर महाराष्ट्र, पंजाब, मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस आधार पर विभाजन नहीं हुआ। यहाॅं मुख्य प्रतिद्वन्दिता भाजपा गठबन्धन और कांग्रेस में रही। जबकि उड़ीसा में बीजद सामाजिक न्याय की ताकत के बतौर उभरी। उसकी कांगेस और बी0जे0पी0 दोनों के साथ प्रतिद्वन्दिता रही और है। तमिलनाडू में द्रविड़ आन्दोलन का लम्बा इतिहास रहा यहाॅं डी0एम0के0 और ए0आई0डी0एम0के0 एक दूसरे की प्रतिद्वन्दी बनी। बी0जे0पी0 का तो कभी वहाॅं विकास नहीं हुआ था मगर कांग्रेस कमजोर हो गई। आन्ध्र प्रदेश में चन्द्र बाबू नायडू की पार्टी कांग्रेस की प्रतिद्वन्दी बनकर उभरी और कांग्रेस कमजोर बनी। हम यहाॅं अन्य क्षेत्रीय दलों और पार्टियों की चर्चा करना ज्यादा उचित नहीं समझते हैं कहने का तात्पर्य यह है कि इस सामाजिक न्याय के आधार पर हुये विभाजन से कांगे्रस व कम्यूनिस्ट आन्दोलन दोनों कमजोर बने। राज्यों की बात कौन करे केन्द्र में भी इस गठबंधन की सरकार बनी मगर आर0एस0एस0 और बी0जे0पी0 के नेतृत्व में हिन्दुत्व का मजबूत होना नहीं रूका और बाद में तो बी0जे0पी0 के नेतृत्व में सामाजिक न्याय की दावेदार ताकतों का एक हिस्सा भी एन0डी0ए0 में शामिल हो गया। इसके खिलाफ यू0पी0ए0 बना इसमें भी सामाजिक न्याय की ताकतें शामिल हो गईं कहने का तात्पर्य यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक न्याय की ताकतों का अपना गठबंधन नहीं टिक पाया स्थिति यह हो गई है कि सामाजिक न्याय की ताकतें कभी एन0डी0ए0 और कभी यू0पी0ए0 के साथ अपने पाले बदलती रहती हैं अर्थात सामाजिक न्याय की ताकतों ने अपना अवसरवादी चेहरा देश के सामने साफ कर दिया है। दो बार एन0डी0ए0 के नेतृत्व में अटल बिहारी बाजपेई प्रधानमंत्री बने मगर एक बार ही अपना कार्यकाल पूरा कर सके। सामाजिक न्याय की ताकतों के बल पर ही कांग्रेस ने केन्द्र से एन0डी0ए0 को 10 साल के लिये बेदखल कर दिया था मगर इसके बावजूद यह गठबंधन फासीवादी ताकतों की मजबूती नहीं रोक सका। आज कल लालू जी हमें समझा रहे हैं कि सामाजिक न्याय की ताकतें ही फासीवाद को रोक सकती हैं तो फिर यह क्यों नहीं बताते कि उनके पूर्व और वर्तमान के सामाजिक न्याय के योद्धा नीतिश जी ने किस आधार पर एन0डी0ए0 के सहयोगी बनकर अपनी सरकार चलाई थी। उत्तर प्रदेश के सामाजिक न्याय की योद्धा बहन मायावती जी भी उनसे पीछे नहीं रहीं। इतना ही नहीं उनकी पार्टी बहुजन से सामाजिक अन्याय की ताकतों से हाथ मिलाकर सर्वजन की पार्टी बन चुकी है। सभी जानते हैं कि मुलायम और काशीराम जी का पुराना गठबंधन कब का बिखर कर एक दूसरे का शत्रु बन चुका है। सपा में भी गहरा विभाजन है और शिवपाल सिंह यादव दूसरी पार्टी बनाने की बात कर रहे हैं। कहने का अर्थ यह है कि सामाजिक न्याय की ताकतें हिन्दुत्व का मुकाबला करने में पूरी तरह अक्षम हैं और कई तो उसकी स्थाई सहयोगी बन चुकी हैं। फासीवादी तातकों को रोकने और पराजित करने की क्षमता सिर्फ कम्युनिस्टों और वामपंथियों में है जिन्हें सामाजिक न्याय की ताकत समझा जा रहा है वे हैं क्या? इसे समझना चाहिये वे दर असल आजादी के बाद भूमि सुधार और आरक्षण के जरिये पिछड़ों और दलितों में पूॅंजीवादी जोतदार, ठेकेदार, नौकरशाह, छोट उद्योग धन्धे वाले जो उभरे थे उन्होने सरकार और सत्ता में अपने समायोजन के लिये ही सामाजिक न्याय को अपना औजार बनाया था। अब वे परिधि से केन्द्र में आ चुके हैं। दलितों और पिछड़ों में ऐसे सामाजिक समूह थे जो सत्ता व सरकार से बाहर रह गये थे जैसे कुर्मियों का अनुप्रिया पटेल गुट, अतिपिछड़े राजभरों की सुहेल देव पार्टी, दलितों के उदित राज, आर0 के0 चैधरी, अठावले आदि इसे बी0जे0पी0 ने अपने साथ समाहित कर लिया है। इसके बावजूद अतिपिछड़ों और अतिदलितों का सामाजिक न्याय का प्रश्न हल नहीं हुआ है।
जिस ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के कारण सामाजिक न्याय का आन्दोलन खड़ा हुआ और यह कहा गया कि यह विभाजन ही हिन्दुत्व को रोकने में कारगर भूमिका निभायेगा उसी का इस्तेमाल बी0जे0पी0 ने सामाजिक न्याय की ताकतों को हराने में सफलतापूर्वक किया है। बी0जे0पी0 द्वारा चुनाव में अपनाई गई रणनीति पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि एक ओर आर0एस0एस0 ने मुसलमानों का निशाना बनाया इसके जरिये हिन्दुत्व की ताकतों को गोलबन्द करने की कोशिश की दूसरी ओर आरक्षण की पुनः समीक्षा करने की मांग को उछालकर सवर्णों को अपने पक्ष में गोलबन्द कर लिया वहीं सपा में मौजूद यादव नेतृत्व को निशाना बनाकर कहा कि सपा के जरिये केवल यादवों और मुसलमानों का ही विकास हो रहा है इससे गैर यादव पिछड़ी जातियों को कोई फायदा नहीं हुआ है उनका शोषण ही हुआ है। इस तरह उन्हें अपनी ओर खींचा इस प्रकार बसपा से गैर जाटव (रविदास) को अलग किया यह कार्य तो उसने जमीनी स्तर पर किया इसके साथ ही उसने सपा के पिछड़ी जाति और बसपा की पिछड़ी जाति के चर्चित नेताओं को अपनी पार्टी में मिला लिया। यही है भाजपा की सोशल इन्जीनियरिंग इस सोशल इन्जीनियरिंग पर परदा डालने के लिये जोर-शोर से कहा जा रहा है कि अधिकांश लोगों ने जाति से ऊपर उठकर विकास को वोट दिया है। सच्चाई यह है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में सिर्फ सवर्णों व शुद्रों के बीच ही विभाजन नहीं है बल्कि शुद्रों में खासतौर से दलितों की जातियों तक में गहरा विभाजन है। इसी का इस्तेमाल भाजपा ने चुनाव में किया सच्चाई यह है कि सामाजिक न्याय अन्दोलन ने इस विभाजन को अपनी वोट बैंक की राजनीति के लिये मजबूत ही बनाया है। हम देखते हैं कि आजादी के अन्दोलन से लेकर उदारीकरण के दौर से पहले तक दलितो और पिछडों में जो वर्गीय चेतना यानि अपने को मजदूर व किसान के रूप में देखने की चेतना वामपन्थियों के नेतृत्व में विकसित हुई थी उसी के कारण सामन्ती और पूॅंजीवादी ताकतों के खिलाफ वाम आन्दोलन विकसित हुआ था वह वर्गीय चेतना उदारीकरण के दौर में सामाजिक न्याय की ताकतों ने कमजोर की है और पूॅंजीपतियों और सामन्तों को सुरक्षा कवच प्रदान किया है। अब इसी का फायदा हिन्दुत्व की ताकतें उठा रही है। सामाजिक न्याय आन्दोलन की देन यह है कि सत्ता और सरकार में पहले जो दलितो और पिछड़ों के बीच से उभरे सत्ता गुट बाहर थे अब वे सरकार में समाहित हो गये है। मगर अति पिछड़ो और अति दलितों के सामाजिक न्याय का प्रश्न पहले की ही तरह उपेक्षित है। दलितों और पिछड़ों में उदित सत्ता समूह सवर्णाे की तरह ही आम दलितों और अति पिछड़ों पर हमले करता है।
हमें हिन्तुत्व के सबसे बड़े झण्डाबरदार आर0एस0एस0 के समग्र चुनावी रणनीति को समझना चाहिए। यू0पी0ए0 दो के कार्यकाल में हुए घोटालों, एफ0डी0आई0 दिल्ली में निर्भया काण्ड के खिलाफ तथा लोकपाल बिल के पक्ष में राष्ट्र व्यापी जो आन्दोलन चला उसमें आर0एस0एस0 पूरी ताकत से शरीक हुई उसने अपने आप को कांग्रेस के विकल्प के बतौर पेश किया। कंाग्रेस के बेनकाब होने से देशी-विदेशी कारपोरेट जगत के सामने यह प्रश्न खड़ा हो गया कि उदारीकरण की जारी नातियाॅं कैसे आगे बढ़ें वह समझता था कि इस नीति को अब तक देश में कांग्रेस ने ही आगे बढाया है उसे अब कांग्रेस के विकल्प के बतौर बी0जे0पी0 दिखने लगी मगर बी0जे0पी0 के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा अब भी सामाजिक न्याय की ताकतें ही थी। उसे इसका भी हल ढूढना था। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछड़ी जाति के थे गुजरात में हुए नरसंहार ने सिद्ध कर दिया था कि वे हिन्दुत्व के सबसे मजबूत स्तंभ है इतना ही नहीं उनके लम्बे कार्यकाल में अड़ानी जैसे पूंजीपतियों का तेजी से विकास भी हुआ था। और उन्होने बंगाल से भगाई गयी नैनोकार जैसी कम्पनी को जगह भी दे दी। यानी वे कारपोरेट पूॅंजी के पक्षधर और ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व के मजबूत झण्डा बरदार थे। वे ही सामाजिक न्याय के भी काट थे। इसीलिए बी0जे0पी0 के प्रथम पंक्ति के नेताओं को हटाकर लोकसभा चुनाव में बी0जे0पी0 की ओर से प्रधानमंत्री का दावेदार मोदी को बनाया गया और बी0जे0पी0 गठबन्धन एन0डी0ए0 दो तिहाई बहुमत से सफल हुआ व तब से हम देख रहे हैं कि प्रदेश में सभी विधानसभा चुनाव मोदी के नाम पर ही लड़े जा रहे है। यू0पी0 में भी यही सब कुछ हुआ। केशव प्रसाद मौर्य जो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष थे उन्होने मुख्यमंत्री पद का सपना पाल रखा था मगर जैसे ही आर0एस0एस0 ने योगी को प्रदेश मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव किया वैसे ही केशव जी को दिल का दौरा पड़ गया उन्हे उपमुख्यमंत्री बनाकर दिल का दौरा शान्त कराया गया। योगी जी जो योगी भी है अजय सिंह विष्ट भी है हिन्दुत्व के फायर ब्रान्ड नेता भी है। यानी यह ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व के वास्तविक चेहरे है अब मोदी और योगी की जोड़ी ही देश और प्रदेश को चलायेगी।
योगी के मुख्यमंत्री बनते ही हिन्दुत्व की रक्षा में पहले नौजवानों पर एन्टी रोमियो स्क्वाड़ के जरिये धावा बोला अब बूचडखाने बन्द करने के आदेश दे कर हिन्दुत्व को हवा दी है। यह हमला सिर्फ मुसलमानों पर हमला नहीं है बल्कि इसकी आड़ में खुदरा व्यापार पर हमला किया गया है। निश्चय ही इसके बाद लाइसेन्स के नाम पर बूचडखाने बड़े व्यवसायियों के हवाले होगें। इन हमलों के साथ ही किसानों के कर्जमाफी की घोषणा करके उन्हे छलावे में रखने का प्रयास हुआ। हिन्दुत्व वादी ताकतें प्रचन्ड बहुमत की चाहे कितनी भी ढोल पीटें मगर हमें मत के गणित पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। चुनाव में 35 या 40 प्रतिशत लोगों ने मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया मत प्रतिशत बताते हैं कि 51 प्रतिशत से अधिक लोग मोदी और योगी के विरोधी हैं यानी हिन्दुत्व के विरोधी हैं सबको जोड़ दिया जाय तो उत्तर प्रदेश में कुल मतदाताओं मंे से 86 प्रतिशत लोग विरोध में दिखाई देते है। यानी यह अल्पमत पर बहुमत की सरकार है।
अगर अपने देश पर साम्राज्यवादी देशों की सरकारों के पड़ने वाले प्रभावों को देखें तो हम पाते हैं कि जैसे-जैसे विदेशी कारपोरेट पूॅंजी उदारीकरण की नीति के तहत बढती गयी वैस-वैसे हिन्दुत्व की ताकतें भी मजबूत होती गयी खासकर अमेरिका में हुए आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ विश्वव्यापी प्रचार अभियान छेड़ कर अफगानिस्तान और ईराक पर कब्जा जमा लिया। यह पूरा अभियान पश्चिम एशिया में स्थिति तेल के कूपों पर कब्जे के लिये ही था। यह संघर्ष अब भी जारी है। इस स्थिति में देश के अन्दर आर0एस0एस0 और बी0जे0पी0 को मुस्लिम विरोधी प्रचार चलाने का अनुकूल अवसर प्रदान कर दिया। भारत तो अब अमेरिकी रणनीति का एशिया में जूनियर पार्टनर बन कर उभर रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के मुस्लिम विरोधी अभियान ने आर0एस0एस0 और बी0जे0पी0 को फायदा ही पहुॅंचाया है मगर अप्रवासी आई0आई0टी0 पेशेवरों पर रोक ने नया संकट खड़ा कर दिया है। अमेरिका में नस्लवादी सोच के कारण अप्रवासीय भारतीयों पर लगातार हमले हो रहे है। जिस पर मोदी सरकार शर्मनाक चुप्पी साधे हुए है। इसी प्रकार ब्रिटेन में भी भारतीय पेशेवरों पर रोक लग रही है। हालात बदल रहे है फिर भी सरकार इस्लामीफोबिया के अमेरिकी सुर में सुर मिला रही है। यह स्थिति हिन्तुत्ववादी ताकतों फासीवादी ताकतों को लम्बे समय तक टिकने के अवसर प्रदान करती है।
एक प्रश्न जो पैदा होता है कि हिन्दू और मुसलमान के आधार पर भारत और पकिस्तान के विभाजन के बाद भी हिन्दुत्ववादी ताकतें इतनी मजबूत नही थी इसीलिए भारत एक धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक देश बना रहा। मगर यह ताकतें आज इतनी शक्तिशाली कैसे हो गयी?
इस पर बहस अति आवश्यक है। आजादी के अन्दोलन के दौरान गाॅंधी जी वर्णआश्रम और हिन्दू मुस्लिम एकता दोनों के पक्षधर थे। इसकी वजह यह थी कि अंग्रेजों की छत्रछाया में हमारे देश में पूॅंजीपति वर्ग वैश्यों के बीच से उत्पन्न हुआ। जो स्वयं में ही ब्राह्मणवादी व्यवस्था का पोषक था यानी वह न तो ब्रिटिश साम्राज्य की व्यवस्था को उखाड़ना चाहता था और न ही वर्ण व्यवस्था को। वह जरूर जातियों के बीच मौजूद ऊॅंच-नीच, छुआ-छूत को कम करना चाहता था। इसी लिये आजादी के बाद जो राज्य व्यवस्था बनी वह सर्व धर्म वर्जिते नहीं थी। उसका आधार सर्व धर्म सम्भाव था। यानी सभी धर्मो में एकता था। चूॅंकि बहुसंख्यकों का धर्म ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म था इसीलिये इसका अन्य धर्मावलम्बियों से टकराव होना ही था। आर0एस0एस0 एवं बी0जे0पी0 हिन्दुत्व राष्ट्रवाद की पक्षधर और धर्मनिरपेक्षता के विरूद्ध थी। उसने राम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद के विवाद के जरिये इस धम्निरपेक्षता को तोडने की कोशिश की और विभाजन को गहरा किया हमें अच्छी तरह समझना चाहिए हिन्दुत्व व ब्राह्मणवाद को बनाये रखने में गाॅंधी जी और कांग्रेस की अहम भूमिका थी। आज उसी के आजादी के विरोधी भुना रहे है और गाॅंधी जी को मारकर भी हड़प रहे हैं।
शहीदे आजम भगत सिंह कांग्रेस और गाॅंधी जी की अंग्रेजी राज्य के सामने घुटना टेकने की नीति व वर्णाश्रम और सर्वधर्म सम्भाव के आधार पर धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने की नीति के घोर विरोधी थे वह मजदूर, किसान, छात्र, युवा व छोटे व्यापारियों की एकता के आधार पर सर्वधर्म वर्जिते के आधार पर धर्म निरपेक्ष लोकतान्त्रिक भारत निर्माण की वैकल्पिक नीति देश के सामने रखी। कहने का तात्पर्य यह है कि भगत सिंह की नीति को नकार के कांग्रेस ने जिस नीति को लागू किया उसी का परिणाम हम सब भुगत रहे है। वही नीति आज फासीवाद के रूप में फल फूल रही है। शहीदे आजम भगत सिंह और डा0 भीम राव अम्बेडकर दोनों ब्राह्मणवाद के खतरे से पूरी तरह परिचित थेे। डा0 भीमराव अम्बेडकर ने तो दलितों की मुक्ति और नये राष्ट्रवाद के निर्माण के लिये ही ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था को तोडने के लिये जाति तोड़ों का नारा दिया था उन्होने स्पष्ट रूप से कहा कि राष्ट्र होता नहीं है बल्कि उसका निर्माण किया जाता है। जहाॅं तक शहीदे आजम भगत सिंह का सवाल है उनका विश्व दृष्टिकोण भौतिकवादी था इस विश्व दृष्टिकोण को स्थापित करने के लिये ही उन्होने अपने लेख (मै नास्तिक क्यों हूॅं) के जरिये इसकी घोषणा की थी। भगत सिंह का अर्थ क्या है? उसका अर्थ है ठोस परिस्थिति का ठोस मूल्यांकन उसके अनुसार कार्यक्रम और नारे तथा उसका प्रचार प्रसार। अगर भगत सिंह के दौर से आज के दौर की हम तुलना करें तो हम पाते हैं कि जितना अंधेरा उस समय था आज उतना नहीं है। यह तो वो समय था जब पूरा एशिया और अफ्रीकी महाद्वीप ब्रिटिश साम्राज्यवादी उपनिवेशिक जुए तले कराह रहा था। हमारे देश के अन्दर उठ रहे ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों से कांगे्रस बार-बार मुंह फेर कर औपनिवेशिक व्यवस्था के सामने घुटने टेक रही थी। इस अंधेरे में शहीदे आजम भगत सिंह मशाल बन के उभरे उन्होने एसेम्बली बम कान्ड के जरिये अदालत, जेल और फासी के फन्दों तक को साम्राज्यवाद, सामन्तवाद विरोधी प्रचार मंच में तब्दील कर दिया। उन्होने साम्राज्यवाद विनाश का नारा देकर देश की जनता को इसके खिलाफ जागृत किया। इतना ही नहीं उन्होने औपनिवेशिक जुए तले कराह रहे अन्य राष्ट्रों की संघर्षशील जनता के साथ एकता कायम करने और लड़ने पर बल दिया। उन्होने यह कह कर कि आजादी के बाद अगर गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज बैठ जायेगें तो इससे देश में कोई बुनियादी परिर्वतन नहीं होगा। उन्होने ब्राह्मणवादी ढांचे से जनता को मुक्ति दिलाने के लिये इसमें आमूलचूल परिर्वतन की आवश्यकता महसूस की इसीलिये उन्होने इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा दिया। उन्होने इस क्रान्ति की अनुवाई के लिये दुनिया भर के मजदूरों की एकता को आवश्यक समझा। इसीलिये उन्होने दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा बुलन्द किया। कुरबानी के इस जज्बे के तहत किये गये इस प्रचार प्रसार ने देश में जबरदस्त आन्दोलन पैदा किया और भगत सिंह के सामने कंग्रेसी नेतृत्व बौना हो गया। भगत सिंह से साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार और कांगे्रसी नेतृत्व दोनों भयभीत हो गये। यही वजह है कि उन्हें और उनके साथियों को उस लाहौर षड़यन्त्र कान्ड में फाॅंसी की सजा दे दी गयी। जिस काण्ड की एफ0आई0आर0 में उनका नाम तक नहीं था। उन्हें फांसी की सजा देने की तिथि 24 मार्च घोषित हुई थी। मगर उन्हें एक दिन पहले ही यानी 23 मार्च को फांसी दे दी गयी। जिससे जिस धर्म निरपेक्ष लोकतान्त्रिक भारत निर्माण का कार्यभार उन्होंने ग्रहण किया था वह पूरा न हो सका। आज भी यह कार्यभार अधूरा है और उसे ही पूरा करना होगा। शहीदे आजम भगत सिंह की तरह ही अपना रास्ता बनाना होगा और आज के दौर में उनके कुरबानी के जज्बे और प्रचार की पद्धति को अवश्य ही आत्मसात करना होगा तथा जनता के विभिन्न हिस्सों को लामबन्द करना होगा।
साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ संघर्ष का रास्ता
1- हमें शहीदे आजम भगत सिंह से शिक्षा लेकर प्रधान शत्रु हिन्दू राष्ट्रवादियों यानी साम्प्रदायिक फासीवादी आर0एस0एस0 और बी0जे0पी की राज्य व केन्द्र सरकारों के खिलाफ धर्म निरपेक्ष लोकतान्त्रिक भारत के हित में तीखा राजनीतिक और वैचारिक प्रचार अभियान को प्राथमिकता देते हुए साम्प्रदायिक फासीवाद के सामनें घुटना टेकने वाली सत्ताधारी विपक्षी सामाजिक न्याय की ताकतों का भन्डाफोड करना होगा। इस काम को अन्जाम देने की शुरूआत वाम जनवादियों के साथ गम्भीर बहस व मुवाहिसे के जरिये किया जाना चाहिए। जहाॅं कहीं भी सम्भव हो उनका मंच बनाया जाना चाहिए। हिन्दू राष्ट्रवाद, साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ धर्म निरपेक्ष लोकतान्त्रिक राष्ट्रवाद की चेतना विकसित करना व उसका प्रचार प्रसार करने के कार्य को प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए।
2- उदारीकरण की नीति के तहत देशी विदेशी कारपोरेट पूॅंजी के मजदूर वर्ग पर जारी हमलों के खिलाफ कांग्रेस गठबन्धन की सरकारों से लेकर फासिस्ट सरकार तक वाम पन्थ के नेतृत्व में मजदूर वर्ग लगातार राष्ट्रव्यापी हडतालें संगठित करने में सफल रहा है। इससे स्पष्ट है कि पूॅंजी के बढते फासीवादी हमले के खिलाफ संगठित प्रतिरोध करने की शक्ति अभी भी मात्र मजदूर वर्ग में ही है। हमें उनके आन्दोलन को धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत निर्माण के आन्दोलन से जोड़कर उन्हें उसकी अगुआ की भूमिका में खड़ा करने पर सारा जोर केन्द्रित करना चाहिए।
हम देख रहे हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में आशा बहुओं, रसोइयों व आंगनबाड़ी महिलाओं का बड़ा समूह कार्यक्षेत्र में आ गया है। ये ब्राह्मणवादी महिला विरोधी उत्पीड़न व शोषण का शिकार हैं उनके आन्दोलन लगतार सामने आ रहे है। इन्हें संगठित करने और उन्हे आम फासीवाद विरोधी लोक तान्त्रिक आन्दोलन से जोड़ने का प्रयास करना चाहिए।
गाॅंव के गरीब निर्माण क्षेत्र में काम करने के लिये लगातार शहरों में आ रहे है और उनकी मण्डियाॅं तक बन गयी हैं उन्हें कामगार यूनियन में जोड़ना और लोकतान्त्रिक आन्दोलन से जोड़ना आवश्यक है।हमें अपने काम को क्षेत्र में पुनः सुनियोजित और केन्द्रित करना चाहिए।
3- एक तो कर्जमाफी का झुनझुना मध्य किसानों पर हिन्दुत्ववादी ताकतों के प्रभाव का और विस्तार करेगा इससे आर0एस0एस0 और बी0जे0पी0 की सामन्ती व कुलक ताकतों यानी हिन्दुत्ववादितों के दलित व अति पिछड़ी जाति के खेत मजदूरों व गरीबों पर हमले बढेगें। ये गरीब आवासीय भूमि व आवास की गम्भीर समस्या व जातीय उत्पीडन के गम्भीर शिकार हैं। बसपा का प्रभाव पहले से घटा है अब उसकी कमजोर स्थिति से और घटेगा। हमें गम्भीरता से इस हिस्से पर केन्द्रित करना चाहिए। हमें उनकी समस्या आवास को मजबूती से उठाना चाहिए। जातीय उत्पीड़न का विरोध करते हुए उनके सामाजिक सम्मान के प्रश्न को उठाना चाहिए। उनके अन्दर मौजूद जातीय विभाजन को ईश्वरीय विभाजन नहीं बल्कि ब्राह्मणवादी जातीय विभाजन के रूप में चिन्हित करना चाहिए। जिसे आज फासीवादी ताकतें और मजबूत बना रही हैं। उनके बीच वर्गीय एकता बनाने के लिये डा0 भीमराव अम्बेडकर के जाति तोड़ अभियान की अहमियत स्पष्ट करना चाहिए इस तरह जाति तोड़ो खेत मजदूर व गरीबों को वर्गीय तौर पर जोड़ो का नारा बुलन्द करना चाहिए। निश्चय ही शहरी मजदूर वर्ग व ग्रामीण गरीबों की यह एकता फासीवाद के खिलाफ संघर्ष में रीढ़ का काम करेगी। और सामाजिक न्याय की मायावती और अखिलेश की ढ़ोगों का पर्दाफाश करेगी।
4- आईसा और वामपन्थी छात्र संगठनों के नेत्रत्व में जे0एन0यू0 और हैदराबाद विश्वविद्यालय से सामाजिक न्याय और लोकतन्त्र के प्रश्न पर शुरू हुआ छात्र आन्दोलन दिल्ली विश्वविद्यालय में घनीभूत हो गया है इसे व्यापक लोकतान्त्रिक बुद्धजीवियों का समर्थन प्राप्त है। यह आर0एस0एस0 और बी0जे0वी0 और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के फासीवादी चरित्र का लगातार भण्डा फोड कर रहा है। इससे बौद्धिक जगत में वामपन्थ पुनः प्रतिष्ठित हो रहा है। इस आन्दोलन को छात्र युवाओं के शिक्षा और रोजगार के प्रश्न से जोड़ कर विश्वविद्यालय और कालेजों में फैलाने पर जोर देना चाहिए।
5- ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था व लैंगिक भेदभाव के खिलाफ महिलाओं का देशव्यापी आन्दोलन उभरा है यह अन्दोलन अगर महिलाओं के रोजगार व वेतन वृद्धि के प्रश्न से जुड जाये तो फासीवाद के विरूद्ध लोकतान्त्रिक आन्दोलन का हिस्सा बन सकता है हमें महिला संगठन यानी एपवा को इसके अनुरूप खड़ा करना होगा।
6- अवैध बूचड़खानों की बन्दी के नाम पर मुस्लिम विरोध को हवा दी गयी है मगर इसकी आड़ में खुदरा व्यापार पर हमला शुरू कर दिया गया है यह अन्य क्षेत्रों में भी बढे़गा। इसी प्रकार भले ही कर्जमाफी का किसानों को झुनझुना पकड़ाकर उन्हे शान्त कर दिया गया हों मगर किसानों की भूमि का अधिग्रहण होगा इसी लिये आन्दोलन का खड़ा होना स्वाभाविक है। मगर हमें यह भी सोचना होगा कि यही वे हिस्से हैं जो सामाजिक न्याय व हिन्दुत्व के आधार है। हमें इनके संगठन व आन्दोलन का निर्माण व नेतृत्व करते हुए इन दोनो प्रवृत्तियों के विरूद्ध गम्भीर बहस चलानी होगी।
हमारी पार्टी बिहार में वर्गीय तौर पर जमीन के प्रश्न को सामाजिक न्याय के प्रश्न से जोड़ कर उठा रही है। गुजरात में नया-नया उभरा दलित आन्दोलन अपने को जमीन के प्रश्न से जोड़ रहा है हमें समझना चाहिए कि अगर फासिस्ट विरोधी आन्दोलन में यह आन्दोलन रीड़ का काम नहीं करेगें तो खुदरा व्यापारियों और मध्यम किसानों के आन्दोलन को टिका पाना सम्भव नहीं होगा। इस लिये गाॅंव के गरीबों के आन्दोलन के आधार पर ही मध्यम किसानों और खुदरा व्यापारियों से मजबूत एकता बन सकती है।
हमें स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि 2018 तक राज्यसभा में भी बी0जे0पी0 स्पष्ट बहुमत हासिल कर लेगी। तब संविधान में संशोधन कर ढेर सारे लोतान्त्रिक अधिकार छीने जायेगें। हमें मजदूरों किसानो छात्र युवाओं मवं महिलाओं के गोलबन्दी के आधार पर सशक्त जन प्रतिरोध विकसित करना होगा। 2018 तक वाम जनवादी ताकतों को केन्द्र कर एक फासिस्ट विरोधी मोर्चे का निर्माण कर 2019 के चुनाव में मजबूत दावेदारी पेश करनी होगी। तभी फासिस्ट विरोधी मोर्चा और उसकी प्रासंगिकता टिक पायेगी। अगर फासिस्ट हमला है तो प्रतिरोध की नई सम्भावनाऐं भी है हमें इन सम्भावनाओं को आत्मसात करना चाहिए हमें शहीदे आजम भगत सिंह की सोच और बलिदान से प्रेरणा ले कर फासिस्ट विरोधी मोर्चो की अगली कतार में खडे़ होने के लिये तैयार हो जाना चाहिए।
साम्प्रदायिक फासीवाद का विनाश हो।
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