डॉ. आंबेडकर की राजनीति, राजनैतिक पार्टी एवं सत्ता की अवधारणा
एस.आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
साथियो! जैसा कि आप अवगत हैं कि वर्तमान दलित राजनीति एक बहुत बड़े संकट में से गुज़र रही है. हम लोगों ने देखा है कि पहले बाबासाहेब द्वारा स्थापित रेडिकल रिपब्लिकन पार्टी कैसे व्यक्तिवाद, सिद्धांतहीनता और अवसरवाद का शिकार हो कर बिखर चुकी है. इसके बाद बहुजन के नाम पर शुरू हुयी दलित राजनीति कैसे सर्वजन के गर्त में समा गयी है. इस समय दलितों के सामने एक राजनीतिक शून्यता की स्थिति पैदा हो गयी है. मेरे विचार में इस संकट के समय में सबसे पहले हमें डॉ. आंबेडकर के राजनीति, राजनेता, राजनैतिक सत्ता और राजनीतिक पार्टी के सम्बन्ध में विचारों का पुनर अध्ययन करना चाहिए और उसे वर्तमान परिपेक्ष्य में समझ कर एक नए रेडिकल विकल्प का निर्माण करना चाहिए. इसी ध्येय से इस लेख में डॉ. आंबेडकर के राजनैतिक पार्टी, राजनेता और सत्ता की अवधारणा के बारे में विचारों को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि इन माप-दंडों पर वर्तमान दलित राजनीति और राजनेताओं का आंकलन करके एक नया विकल्प खड़ा किया जा सके.
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“राजनीति वर्ग चेतना पर आधारित होनी चाहिए. जो राजनीति वर्ग चेतना के प्रति सचेत नहीं है वह ढोंग है.”
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“केवल राजनीतिक आदर्श रखना ही काफी नहीं है. इन आदर्शों को विजयी बनाना भी ज़रूरी है. परन्तु आदर्शों की विजय एक संगठित पार्टी द्वारा ही संभव है न कि व्यक्तियों द्वारा.”
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एक राजनैतिक पार्टी एक सेना की तरह होती है. इसके ज़रूरी अंग हैं:-
• एक नेता जो एक सेनापति जैसा हो.
• एक संगठन जिस में (1) सदस्यता, (2) एक ज़मीनी योजना (3) अनुशासन हो.
• इसके सिद्धांत और नीति ज़रूर होनी चाहिए.
• इसका प्रोग्राम या कार्य योजना होनी चाहिए.
• इस की रणनीति और कौशल होना चाहिए यानि कि कब क्या करना है तथा लक्ष्य तक कैसे पहुंचना है, की योजना होनी चाहिए.”
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“किसी भी पार्टी में कभी भी न बिकने वाला इमानदार नेतृत्व का बहुत महत्त्व है. उसी प्रकार पार्टी के विकास के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं का होना भी बहुत ज़रूरी है.”
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“एक राजनैतिक पार्टी का काम केवल चुनाव जीतना ही नहीं होता है. एक राजनैतिक पार्टी का काम लोगों को राजनीतिक तौर से शिक्षित करने, उद्देलित करने और संगठित करने का होता है.”
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“आप के नेता बहुत योग्य होने चाहिए. आप के नेताओं का साहस और बौद्धिकता किसी भी पार्टी के सर्वोच्च नेता की टक्कर की होनी चाहिए.”
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शैड्युल्ड कास्ट्स फेडरशन के एजंडा के बारे में बोलते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था:-
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“आज हमारा मुख्य काम जनता में वर्ग चेतना पैदा करना है और तब वर्तमान विरोधी नेतृत्व अपने आप ध्वस्त हो जायेगा.
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राजनीतिक आज़ादी जीतने के लिए शोषकों और शोषितों का गठजोड़ ज़रूरी हो सकता है परन्तु शोषकों और शोषितों के गठजोड़ से समाज के पुनर्निर्माण हेतु साँझा पार्टी बनाना जनता को धोखा देना है.
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पूंजीपतियों और ब्राह्मणों के हाथ में राजनीतिक सत्ता देने से उन की प्रतिष्ठा बढ़ेगी. इस के विपरीत दलितों और पिछड़ों के हाथ में सत्ता देने से राष्ट्र की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और यह भौतिक समृद्धि बढ़ाने में सहायक होगा.
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राजनीतिक सत्ता सामाजिक प्रगति की चाबी है और दलित संगठित होकर सत्ता पर कब्ज़ा करके अपनी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं. राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल समाज के विकास के लिए किया जाना चाहिए.
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"राजनीतिक सत्ता का मुख्य ध्येय सामाजिक और आर्थिक सुधार करना होना चाहिए.”
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“हमें पिछड़ों और आदिवासियों के साथ गठजोड़ करना चाहिए क्योंकि उन की स्थिति भी दलितों जैसी ही है. उनमें फिलहाल राजनीतिक चेतना की कमी है.”
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नायक पूजा के खिलाफ:
“असीमित प्रशंसा के रूप में नायक पूजा एक बात है. नायक की आज्ञा मानना एक बिलकुल अलग तरह की नायक पूजा है. पहली में कोई बुराई नहीं है परन्तु दूसरी बहुत घातक है. पहली प्रकार की नायक पूजा व्यक्ति की बुद्धि और कार्य स्वतंत्रता का हनन नहीं करती है. दूसरी व्यक्ति को पक्का मूर्ख बना देती है. पहली से देश का कोई नुक्सान नहीं होता है. दूसरी प्रकार की नायक पूजा तो देश के लिए पक्का खतरा है.”
“यदि आप शुरू में ही नायक पूजा के विचार पर रोक नहीं लगायेंगे तो आप बर्बाद हो जायेंगे. किसी व्यक्ति को देवता बना कर आप अपनी सुरक्षा और मुक्ति के लिए एक व्यक्ति में विश्वास करने लगते हैं जिस का नतीजा होता है कि आप निर्भर रहने तथा अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन रहने की आदत बना लेते हैं. यदि आप इन विचारों के शिकार हो जायेंगे तो राष्ट्रीय जीवन में आप लकड़ी के लट्ठे की तरह हो जायेंगे. आप का संघर्ष समाप्त हो जायेगा.”
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डॉ. आंबेडकर का अक्सर दोहराया जाने वाला नारा "राजनैतिक सत्ता सब समस्याओं की चाबी है" दलित नेताओं के हाथों नाकाम हो गया है. इसका मुख्य कारण उनका दलितों के सामजिक व् आर्थिक सश्क्तिकरण का कोई भी एजेंडा न होना है. वास्तव में उनमें ऐसी दृष्टि का सर्वथा अभाव है. राजनीति की भूमिका पर विचार प्रकट करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था, "किसी भी राष्ट्र के जीवन में राजनीति ही सब कुछ नहीं होती है. हमें भारतीय समस्यायों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों का अध्ययन करना चाहिए और पददलित वर्गों की समस्यायों को हल करने के लिए अपने ढंग से प्रयास करना चाहिए." परन्तु दलित नेताओं के लिए राजनैतिक सत्ता जीतना ही सब कुछ है. डॉ. आंबेडकर ने तो यह कहा था कि "सत्ता का इस्तेमाल समाज के विकास के लिए किया जाना चाहिए" परन्तु दलित नेताओं ने इस का इस्तेमाल समाज के लिए लगभग नगण्य परन्तु अपने लिए खूब किया है.
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प्रशासन की भूमिका की व्याख्या करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था, "लोगों के कल्याण के लिए स्वच्छ प्रशासन ज़रूरी है. लोगों को रोटी और कपड़ा देने में कठिनाई हो सकती है परन्तु जनता को स्वच्छ प्रशासन देने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए." परन्तु मायावती स्वच्छ प्रशासन देने में बिलकुल नाकाम रही है. उसके व्यक्तिगत भ्रष्टाचार की छूत सरकार के सभी विभागों तक फ़ैल गयी थी. उसने इस कहावत को "सत्ता भ्रष्ट कर देती है और निरंकुश सत्ता निरंकुश रूप से भ्रष्ट कर देती है " को पूरी तरह से सही सिद्ध कर दिया है. उसने उत्तर प्रदेश के लिए "चिंता जनक रूप से भ्रष्ट राज्य" की ख्याति अर्जित कर दी थी.
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डॉ. अम्बेडकर ने एक बार कहा था, "मेरे विरोधी मेरे विरुद्ध सभी प्रकार के आरोप लगाते रहे हैं परन्तु कोई भी मेरे चरित्र और सत्यनिष्ठा पर ऊँगली उठाने का साहस नहीं कर सका." कितने दलित नेता अपने लिए इस प्रकार का दावा कर सकते हैं?
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स्वतंत्र मजदूर पार्टी की मीटिंग में डॉ. आंबेडकर ने कहा था, "मजदूरों के दो दुश्मन हैं- एक पूंजीवाद और दूसरा ब्राह्मणवाद. उन्हें इन से कभी भी समझौता नहीं करना चाहिए." परन्तु मायावती ने इन दोनों को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है. ब्राह्मणवाद को सर्वजन के रूप में और पूंजीवाद को कारपोरेटीकरण के रूप में.
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डॉ. आंबेडकर ने संघर्ष और ज़मीनी स्तर के सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों को बहुत महत्व दिया था. वास्तव में यह आन्दोलन ही उनकी राजनीति का आधार थे. परन्तु वर्तमान दलित पार्टियाँ संघर्ष न करके सत्ता पाने के आसान रास्ते तलाश करती हैं. बसपा इस का सब से बड़ा उदहारण है. डॉ. आंबेडकर का "शिक्षित करो , संघर्ष करो और संगठित करो " का नारा दलित राजनीति का भी मूलमंत्र होना चाहिए.
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डॉ. आंबेडकर दलितों के लिए भूमि के महत्व को भली भांति जानते थे. उनका यह निश्चित मत था कि दलितों पर इस लिए अत्याचार होते हैं क्योंकि उनके पास ज़मीन नहीं है. इसी लिए उन्होंने आगरा के भाषण में कहा था, “मैंने अब तक जो कुछ भी किया है वह पढ़े लिखे दलितों के लिए ही किया है. परन्तु मैं अपने ग्रामीण भाईयों के लिए कुछ नहीं कर सका. अब मैं लाठी लेकर आगे आगे चलूँगा और सब को ज़मीन दिला कर ही दम लूँगा.”
बाबासाहेब ने अपने जीवन काल में कोंकण क्षेत्र में शैडयुल्ड कास्ट्स फेडरेशन के तत्वाधान में भूमि आन्दोलन चलाया था और दलितों को गुलाम बना कर रखने वाली खोती प्रथा को समाप्त करने के लिए केस लड़ा था और जीता भी था. इसके बाद रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया ने 1964-65 में पूरे देश में भूमि आन्दोलन चलाया था और इसमें 3 लाख से अधिक दलित जेल गए थे. इस के दबाव में कांग्रेस सरकार को आर.पी.आई की भूमि आबंटन, न्यूनतम मजदूरी एवं अन्य सभी मांगे माननी पड़ी थीं. परन्तु इस के बाद किसी भी दलित पार्टी अथवा दलित नेता ने दलितों के भूमि के मुद्दे को नहीं उठाया क्योंकि इसके लिए संघर्ष करना पड़ता है जिस से वे डरते हैं. इतना ही नहीं मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्य मंत्री बनी परन्तु उस ने भी एक बार (1995) को छोड़ कर भूमि आबंटन का कोई कार्यक्रम नहीं चलाया जब कि उत्तर प्रदेश में इस हेतु पर्याप्त भूमि उपलब्ध थी. इस का मुख्य कारण उसकी बहुजन की राजनीति छोड़ कर सर्वजन की राजनीति अपनाना था. यह सर्वविदित है कि सरकारी ज़मीन अधिकतर उच्च जातियों के अवैध कब्ज़े में थी परन्तु मायावती उनसे ज़मीन छीन कर उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहती थी.
2011 की आर्थिक एवं सामाजिक जनगणना के अनुसार देश के देहात क्षेत्र में 42% परिवार भूमिहीनता तथा हाथ की मजदूरी करने वाले हैं जो कि उनकी सब से बड़ी कमजोरी है. इनमें अगर दलित परिवारों को देखा जाये तो वह 70 से 80% हो सकते हैं. इस कारण दलित भूमिधारकों पर निर्भर हैं जिस कारण वे सभी प्रकार के अत्याचार सहने के लिए मजबूर हैं. इसी कारण दलितों के लिए भूमि का प्रश्न आज भी बहुत महत्वपूर्ण है.
16. डॉ. आंबेडकर की दलित राजनेताओं और कार्यकर्ताओं से अपेक्षा
“ यदि किसी को राजनीति करनी हो, तो पहले उसे राजनीति का अच्छा अध्ययन करना चाहिए. अध्ययन के बगैर दुनिया में कुछ भी साधा नहीं जा सकता. हमारे प्रत्येक कार्यकर्त्ता को राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक प्रश्नों का बारीकी के साथ अध्ययन करना चाहिए. जिन्हें नेता बनना है, उन्हें नेता के कर्तव्य व नेता की जिम्मेदारी क्या होती है, इस बात की समझ होनी चाहिए. ह्मारे नेता की जिम्मेदारी बहुत बड़ी है. दूसरे समाज के नेता की तरह हमारे समाज के नेता की स्थिति नहीं है. दूसरे नेता को सभा में जाना, लम्बे भाषण करना, तालियाँ बटोरना और अंत में गले में हार पहन कर घर आना, इतना ही काम करना रहता है. हमारे नेता के इतना करने मात्र से बात नहीं बनेगी. उसे अच्छी तरह अध्ययन करना, चिंतन करना, समाज की उन्नति के लिए दिन-रात दौड़-धूप करनी पड़ेगी. तब ही वह हमारे लोगों का भला कर पायेगा और ऐसा करने वाला ही हमारा सच्चा नेता होगा.” ( डॉ. आंबेडकर के प्रेरक भाषण (2014), सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली. पृष्ठ- 100)
वैसे तो डॉ. आंबेडकर का लेखन बहुत विस्तृत है जिसे किसी एक विषय पर संकलित करना बहुत कठिन है. फिर भी मैंने उपरोक्त विषय पर उनके कुछ विचारों को संकलित कर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि हम लोग उनका पुनर स्मरण करके वर्तमान दलित राजनीति के संकट से उबर सकें और नए राजनीतिक विकल्प का निर्माण कर सकें. इस सम्बन्ध में सभी अम्बेद्करवादियों और जनवादी, प्रगतिशील राजनीति के पक्षधर साथियों से अनुरोध है कि वे इस सम्बन्ध में अपने बहुमूल्य सुझाव अवश्य दें.