नोटबंदी पर अर्थशास्त्रियों में भी है मतभेद
नई दिल्ली: जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी का ऐलान किया है तब से इस पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. समाज के अलग-अलग लोग अपनी राय रख रहे हैं. कुछ लोग इसकी तारीफ कर रहे हैं तो कुछ विरोध. मीडिया के अंदर भी नोटबंदी को लेकर अलग-अलग राय हैं. दुनिया के नामी अर्थशास्त्री भी नोट बंदी को लेकर बंटे हुए हैं.
नोबेल प्राइज़ विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन नोट बंदी जैसे निर्णय से खुश नहीं है. एक अंग्रेजी अखबार के साथ साक्षात्कार में प्रोफेसर सेन ने सरकार के नोट बंदी के इरादे और अमल पर सवाल उठाया है. उन्होंने कहा है यह "निरंकुश कार्रवाई" जैसी है और सरकार की “अधिनायकवाद प्रकृति” का खुलासा करती है. प्रोफेसर सेन ने सरकार की आलोचना करते हुए कहा लोगों को अचानक बताना कि उनके पास जो करेंसी है उसका इस्तेमाल नहीं हो सकता, अधिनायकवाद जैसा है. प्रोफेसर सेन का कहना है सिर्फ एक तानाशाही सरकार लोगों को इस तरह का कष्ट दे सकती है. लाखों बेगुनाह लोग अपने स्वयं के पैसे वापस लाने की कोशिश में पीड़ा,असुविधा और अपमान का सामना कर रहे हैं. विदेश से भारत में काला धन लाने में सरकार जैसी पहले अपने वादे में विफल हुई थी इस बार भी ऐसा ही होगा.
अर्थशास्त्री और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव ने सरकार के नोटबंदी के कदम की सहराना की है. सुब्बाराव का कहना है कि कम अवधि में नोटबंदी विकास को चोट पहुंचा सकती है लेकिन लंबे समय में इसका असर ज्यादा फायदेमंद होगा. जितनी जल्दी सरकार और रिज़र्व बैंक संक्रमण को सही तरीके से संभालेगा उतना कम प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.
मॉर्गन स्टेनली मुख्य वैश्विक रणनीतिकार रुचिर शर्मा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के कदम की आलोचना करते हुए कहा है कि बड़े बिल समाप्त होने से आज कुछ छिपा धन नष्ट हो सकता है लेकिन संस्कृति और संस्थाओं में गहरे परिवर्तन के अभाव की वजह से कल इस काली अर्थव्यवस्था का पुनर्जन्म होगा. एक अंग्रेजी अखबार में अपने एक आर्टिकल के जरिए रुचिर ने लिखा है कि अपने सिस्टम से सिर्फ काले धन को मिटाकर भारत विकास की उम्मीद नहीं कर सकता है. निश्चित रूप से कोई दूसरा देश भी नहीं है जहां ऐसा हुआ हो. रुचिर का कहना है कि दूसरे कम आय वाले देशों की तरह भारत की इकानॉमी कैश पर निर्भर करती है. भारत की बैंकिंग और टैक्स संस्थाएं त्रुटिपूर्ण हैं लेकिन इतनी त्रुटिपूर्ण नहीं हैं कि भारत में नोटबंदी जैसे कदम की जरूरत थी. भारत की जीडीपी में बैंक जमाओं का योगदान 60 प्रतिशत है जो एक गरीब देश के लिए बहुत अच्छा माना जाता है. लेकिन पोलैंड और चेक रिपब्लिक जैसे उभरते देशों में भी इतना ही होता है जो संस्थागत क्षमता के लिए जाने जाते हैं. रुचिर शर्मा का कहना है सोवियत यूनियन, नार्थ कोरिया और ज़िम्बाब्वे जैसे देश बड़े बिल खत्म करने के लिए कठोर कदम उठा चुके हैं लेकिन ज्यादा से ज्यादा देशों में नतीजा अति मुद्रा स्फीति जैसी स्थिति हुई है. रुचिर मानते हैं अगर भारत मौलिक रूप से कुछ करना चाहता है तो बैंकिंग सिस्टम में निजीकरण की जरूरत है जहां सरकार का ऑनरशिप ज्यादा है और ऐसा दूसरे लोकतांत्रिक देशों में कम देखने को मिलता है.
ऐसे और कई अर्थशास्त्री हैं जो नोटबंदी को लेकर अपनी राय दे रहे हैं. अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने नोटबंदी की आलोचना की है. प्रोफेसर पटनायक का कहना है कि नोटबंदी से देश में आर्थिक मंदी जैसी स्थिति पैदा हो सकती है. प्रोफेसर पटनायक का यह भी कहना है कि नोटबंदी से काले धन पर कोई ज्यादा असर नहीं होने वाला है. लेकिन अर्थशास्त्री राजीव कुमार ने सरकार के नोटबंदी के निर्णय की तारीफ की है. राजीव कुमार का कहना है यह एक साहसिक कदम है और इससे कालाधन पर अंकुश लगाया जा सकता है. राजीव मानते हैं कि देश में काले धन की अर्थव्यवस्था की राशि 30 लाख करोड़ रुपये के करीब है. यदि इसका पचास फीसद हिस्सा भी 500 और 1000 रुपये के नोटों के रूप में रखा गया होगा तो इस कदम से सीधे 15 लाख करोड़ रुपये बैंक डिपाजिट के जरिए प्रत्यक्ष अर्थव्यवस्था में आ सकते हैं. कालाधन पर किताब लिखने वाले और काला धन पर काफी काम करने वाले प्रोफेसर अरुण कुमार ने नोटबंदी को एक नासमझ कदम बताया है. उनका कहना है कि इस कदम से सबसे ज्यादा कष्ट गरीब को होगा. नंदन नीलकेणि का मनना है कि नोटबंदी डिजिटल इकानॉमी को प्रोत्साहन देगा जो भारत के लिए जरूरी है.