प्रकृति की उपासना और पर्यावरण संरक्षण का महापर्व छठ
डॉ हरनाम सिंह
छठ पूजा वास्तविक रूप में प्रकृति की पूजा है। यह मौका है प्रकृति के प्रति कृतज्ञता जाहिर करने का। इस मौके पर सूर्य की पूजा होती है जिन्हें एक मात्र ऐसा भगवान माना जाता है जो दिखते हैं। अस्तलगामी भगवान भास्कर की पूजा कर हम यह दिखाने की कोशिश करते हैं जिस सूर्य ने दिनभर हमारी जिंदगी को रौशन किया उसके निस्तेज होने पर भी हम उनका नमन करते हैं। जिसने जीवन दिया उस सूर्य के प्रति शाम के अर्घ में कृतज्ञता है। जो भविष्य की आशा का प्रतीक बनकर सुबह नए सबेरा के साथ उगा उसके प्रति विश्वाश और श्रद्धा के साथ अर्घ देकर जीवन को सात्विक रखने का संकल्प लेते हैं। छठ पूजा के मौके पर नदियां, तालाब, जलाशयों के किनारे पूजा की जाती है जो सफाई की प्रेरणा देती है। यह पर्व नदियों को प्रदूषणमुक्त बनाने का प्रेरणा देती है। यह एक ऐसा पर्व है, जहां समानता और सद्भाव की अनूठी बानगी देखने को मिलती है। प्रकृति से प्रेम, सूर्य और जल की महत्ता का प्रतीक यह पर्व पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। पर्व में जो भी फल या सामान चढ़ाये जाते हैं, जैसे केला, दीया, सूथनी, आंवला , बांस से बने सामान जैसे सूप, दऊरा आदि सभी चीजें किसी न किसी रूप से हमारे जीवन से जुड़े हुए है। इस पर्व में केला, सेब,गन्ना सहित कई फलों की प्रसाद के रुप में पूजा होती है जिनसे वनस्पति की महत्ता रेखांकित होती है, स्वास्थ्य और पर्यावरण संतुलन के लिए इनके पौधों का संरक्षण जरूरी है।
आज जब पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण तथा पर्यावरण संरक्षण की समस्या से जूझ रहा है, सूर्य की उपासना का महापर्व छठ का केवल धार्मिक महत्व ही नहीं है, बल्कि ऊर्जा के अक्षय स्रोत सूर्य की पूजा और उन्हें अप्रसंस्कृत वस्तुओं का भोग लगाया जाना पर्यावरण के प्रति इस पर्व के महत्व को रेखांकित करता है। छठ पूजा मे व्रती के हर आचरण का सम्बंध प्रकृति व पर्यावरण से है । यह पूजा पूरी तरह से वैज्ञानिक महत्व वाली और प्रदूषण मुक्त है । लोक आस्था के कारण छठ पुजा जितना पवित्र है उससे कहीं अधिक विज्ञान ने उसे तार्किक और फलदायी बनाया है । बड़े-बूढ़ो व बच्चों के सान्निध्य में किया जाने वाला यह व्रत परिवारिक संरचना को सम्बल प्रदान करता है है। आराध्य देव सूर्य और नदी-तालाब इंगित करते हैं की यह पर्व प्रकृति¬, परिवार, पर्यावरण का पर्व है । भौतिकता से दूर आत्मीयता सौहार्द ,आत्मशक्ति का पर्व है । भक्ति और अध्यात्म से भरपूर इस पर्व के लिए न बड़े पंडालों की जरूरत होती है और न ही बड़े-बड़े मंदिरों की। इसके लिए न ही चमक-दमक वाली मूर्तियों की जरूरत होती है। यह पर्व बांस से बनी टोकरी, मिट्टी के बर्तनों, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूं से बना प्रसाद, और कानों में शहद घोलते लोकगीतों के साथ जीवन में भरपूर मिठास घोलता है। नदी, नहर, सरोवर, पोखर, तालाब जैसे जलाशयों की ओर हाथ में पूजन-सामग्री लेकर जाती भीड़ में मानो जात-पांत व अमीर-गरीब का भेद कहीं विलीन हो जाता है। बांस का बना सूप, दौरा, टोकरी, मउनी तथा मिट्टी से बना दीप, चैमुख व पंचमुखी दीया और कंद-मूल व फल जैसे ईख, सेव, केला, संतरा, नींबू, नारियल, अदरक, हल्दी, सूथनी, पानी फल सिंघाड़ा , चना, चावल (अक्षत), ठेकुआ इत्यादि छठ पूजा की सामग्री प्रकृति से जोड़ती है।
उत्तराखंड का उत्तरायण पर्व हो या केरल का ओणम पर्व, कर्नाटक की रथसप्तमी हो या फिर बिहार का छठ पर्व- इस तथ्य को सूचित करते हैं कि भारत मूलतरू सूर्य संस्कृति के उपासकों का देश है तथा बारह महीनों के तीज-त्योहार भी यहां सूर्य के संवत्सर चक्र के अनुसार मनाए जाते हैं। हमें अपने देश के उन आंचलिक पर्व और त्योहारों का विशेष रूप से आभारी होना चाहिए जिनके कारण भारतीय सभ्यता और संस्कृति की ऐतिहासिक पहचान आज भी सुरक्षित है। छठपर्व भी उसी परंपरा की एक पर्यावरण वैज्ञानिक सांस्कृतिक सौगात है। छठ पूजा का प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। यह मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मानकर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर ( तालाब ) के किनारे यह पूजा की जाती है। पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं, और सूप में पूजा के सभी सामान डाल कर देवकरी ( पूजा-स्थल) में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक, तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ रखते हैं। पुरूष, महिलाएँ, बच्चों की टोली एक सैलाब की तरह दिन ढलने से पहले नदी के किनारे सोहर गाते हुए जाते हैं रू-
काचि ही बांस कै बहन्गिया, बहिंगी लचकत जाय।
भरिहवा जै होउं कवनरम, भार घाटे पहुँचाय।।
बाटै जै पूछेले बटोहिया, ई भार केकरै घरै जाय।
आँख तोरे फूटै रे बटोहिया, जंगरा लागै तोरे घूम।।
छठ मईया बड़ी पुण्यात्मा, ई भार छठी घाटे जाय ।।
छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छरू दिए होते हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है । कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है उसके बारे में एक गीत गाया जाता है
रात छठिया मईया गवनै अईली
आज छठिया मईया कहवा बिलम्बली
बिलम्बली दृ बिलम्बली कवन राम के अंगना
जोड़ा कोशियवा भरत रहे जहवां,
जोड़ा नारियल धईल रहे जहंवा
उंखिया के खम्बवा गड़ल रहे तहवां ।।
छठ-पूजा के मौके पर यह नजारा अब केवल बिहार के गांव शहर तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत के किसी भी शहर में बिहार व पूर्वांचल के निवासियों के बाहुल्य वाले इलाकों में देखने को मिल जाता है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की यह तिथि यहां सूर्य षष्ठी व श्डाला छठ’ के नाम से भी जानी जाती है। छठ पर्व व्रती की हर मनोकामना को पूरा करने वाला है पर लोग सबसे ज्यादा इसे पुत्र प्राप्ति की कामना से करते हैं। छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर ( तालाब ) के किनारे यह पूजा की जाती है। इसे किसी मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है।
ग्रामीण क्षेत्र आज भी कृषि एवं पेयजल के लिए भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं परंतु जलापूर्ति के स्रोत दिन-प्रतिदिन घटते जा रहे हैं। ऐसे संकटकालीन परिस्थितियों में भारत के सूर्य उपासकों का संदेश है कि छठ पर्व को महज एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में ही नहीं बल्कि इसे जलसंस्थानों के संरक्षण और संवर्धन के राष्ट्रीय अभियान के रूप में भी मनाया जाना चाहिए ताकि जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न प्राकृतिक प्रकोप शांत हों, नियत समय पर मानसूनों की वर्षा हो और यह देश कृषिसम्पदा से खुशहाल हो सके। छठ पर्व के दिन देश के कोने-कोने में स्थित तालाबों, सरोवरों और नदियों के घाटों में जिस तरह से सूर्य की पूजा के लिए जन सैलाब उमड़कर आता है उससे लगता है मानो पंक्तिबद्ध रूप से एकाकार होकर देश की सुख, समृद्धि और खुशहाली के लिए विश्व अर्थव्यवस्था के नियामक सूर्य देव को और प्रकृति की अधिष्ठात्री षष्ठी देवी को अपनी आस्था, भक्ति और कृतज्ञता ज्ञापन का अर्घ्य चढ़ा रहा हो। प्रकृति व पर्यावरण का मर्म समझाता यह पर्व साफ-साफ संदेश देता है कि आइए प्रकृति से जुड़ें और पर्यावरण को बचाएं।
(लेखक दीनदयाल उपाध्याय कौशल केंद्र, सरदार भगत सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय रुद्रपुर में सहायक आचार्य के पद पर कार्यरत है। सम्पर्क -०७३७९७२७९९९)