ताकि बहुर सकें हिंदी के दिन
हिंदी विश्व के सबसे बढ़े लोकतंत्र भारत की राजभाषा है। यह देश में सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीनी भाषा के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी बोलने वाले विश्व की सबसे बड़ी भाषाओं में गिने जाते हैं। यहाँ तक की प्रवासी भारतीयों की सांस्कृतिक भाषा भी हिंदी है। दुनियाभर के देशों में हिंदी को बढ़ावा मिल रहा है और कई जगह हिंदी को प्रमुख विषय के रूप में पढ़ाया भी जाने लगा है। रूस और चीन जैसे देशों में भी आज काफी संख्या में हिंदी बोली और पढ़ाई भी जा रही है। हिंदी ने अपना वर्चस्व अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों के तिरानवे देशों में फैला रखा है। हिंदी अपने स्व-प्रयास से विश्व के कोने-कोने में पहुँची है। पीपुल लिंग्विस्टिक सर्वे के अनुसार भारत में 780 भाषाएँ बोली जाती हैं तथा भारतीय संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाओं की संख्या 22 है। वर्तमान में देश की कुल जनसंख्या में से 65 प्रतिशत लोग हिंदी भाषा को जानने व समझने वाले हैं। मात्र 5 प्रतिशत लोग अँग्रेज़ी भाषा को जानते व समझते हैं; शेष 30 प्रतिशत में गैर हिंदी और अँग्रेज़ी भाषी लोग यानी के तमिल, तेलुगू, बांग्ला आदि भाषाओं को जानने वाले हैं।
तकनीकी के इस दौर में इंटरनेट, टी.वी., हिंदी सिनेमा, दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों ने हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपनी अहम भूमिका का निर्वाह किया है। हिंदी की लोकप्रियता को देखते हुए कई विदेशी चैनलों ने अपने कार्यक्रम हिंदी में प्रसारित करने प्रारंभ कर दिए हैं जैसे डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफी आदि। इसके अतिरिक्त कई विदेशी फिल्में और धारावाहिक भी हिंदी में आ रहे हैं।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी हिंदी अब अपने पंख फैला रही है देश के कुछ विश्वविद्यालयों ने तकनीकी से संबंधित उच्चस्तरीय पाठ्यक्रमों को हिंदी माध्यम में प्रारंभ कर दिए हैं। आज कंप्यूटेशनल लिंग्विस्टिक्स, इंफ़ॉर्मेटिक्स एवं लैग्वेज इंजीनियरिंग जैसे उच्चस्तरीय (स्नात्कोत्तर, एम.फिल., पी-एच.डी.) पाठ्यक्रम हिंदी माध्यम में उपलब्ध हैं साथ ही विभिन्न कोर इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम भी हिंदी में उपलब्ध हैं। इन सबके बावजूद भी अगर हिंदी के अच्छे दिन नहीं आए तो फिर इस पर गंभीरता से चिंतन-मनन कर वह कारण खोजना चाहिए जोकि हिंदी की उन्नति में बाधक हैं? इन बाधक कारणों को खोज कर इन्हें दूर करने की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए।
मुझे कुछ कारण दिखते हैं जोकि इस प्रकार से हैं:-
किसने किया यह हाल, आप किसको दोषी कहते हो ।
मैं भी दोषी, आप भी दोषी, और किसे दोष देते हो ।
पहली बात सर्वप्रथम देश में हिंदी को उसका वाजिब हक मिलना चाहिए जिसकी वास्तव में वह हकदार है। संवैधानिक तौर से हिंदी को देश की राष्ट्र भाषा घोषित होनी चाहिए। इस बाबत हिंदी को और अधिक समृद्ध और प्रभावी बनाने के लिए भारत की अन्य भाषाओं को हिंदी से जोड़ने पर प्रयास की जरूरत है। हिंदी को देश की राष्ट्र भाषा बनाने के लिए उपर उल्लेखित 30 प्रतिशत गैर हिंदी और अँग्रेज़ी भाषी लोगों को हिंदी से जोड़ना अनिवार्य है इन 30 प्रतिशत लोगों को यह भी देखना और समझना चाहिए कि दुनियाभर के देशों में हिंदी को बढ़ावा मिल रहा है और कई जगह हिंदी को प्रमुख विषय के रूप में पढ़ाया भी जाने लगा है। रूस और चीन जैसे देशों में भी आज काफी संख्या में हिंदी बोली और पढ़ाई भी जा रही है। इस लिहाज़ से भी राष्ट्र हित में हिंदी के समर्थन में इन लोगों को आगे आना चाहिए। क्योंकि अपने ही अपनों को सम्मानित व अपमानित कर-करा सकते हैं। जब किसी सम्मानीय का उसके अपने घर में सम्मान होगा तभी तो बाहर बाले भी उसे सम्मान की दृष्टि देखेंगे और उसे ससम्मान अपनाएँगें भी।
दूसरी बात देश की सभी सरकारी नौकरियों में अँग्रेज़ी भाषा की अनिवार्यता ख़त्म कर हिंदी भाषा की अनिवार्यता होनी चाहिए तथा निम्न एवं उच्च शिक्षा का माध्यम एवं पठन-पाठन की संपूर्ण सामग्री का हिंदीकरण होना ज़रूरी है। आजकल हम कई बार समाचारों में देखते हैं कि अब तो चपरासी और निम्न स्तर की नौकरियों की भर्तियों के लिए भी कई एम.बी.ए. और इंजीनियरिंग जैसी डिग्री वाले भी आवेदन कर रहे हैं। इसकी मूल वजह है सभ्य समाज द्वारा अँग्रेज़ी के सापेक्ष हिंदी की उपेक्षा। देश में आज भी अधिकांश बच्चे हायर सेकंडरी तक हिंदी माध्यम में पढ़ते हैं लेकिन उच्च शिक्षा में जाते हैं तो माध्यम अँग्रेज़ी हो जाता है और वह बच्चा उस अँग्रेज़ी को समझने में ही अपनी आधी से ज्यादा उर्जा नष्ट कर चुका होता है और बची-खुची ऊर्जा ही कुछ विषयक ज्ञान को प्राप्त करने में लगा पाता है। इससे वह सिर्फ़ और सिर्फ़ अधकचरा ज्ञान ही प्राप्त कर पाता है। आज यही वजह है कि देश में लाखों इंजीनियर बेरोज़गार घूम रहे हैं। जब-तक रोज़गार हिंदी प्रधान नहीं होगा तब तक हिंदी के अच्छे दिन आना संभव नहीं है।
देवनागरी लिपि आधारित लगभग 12 भारतीय भाषाएँ जोकि हिंदी के आस-पास हैं एवं इससे काफी मिलती-जुलती भी हैं जिनमें भोजपुरी, मैथिली आदि प्रमुख हैं । यह सभी अपनी-अपनी अलग-अलग भाषाओं को हिंदी से पृथक कर देख रहे हैं और प्रोजेक्ट चला रहे हैं इससे भी हिंदी टूट रही है और कमज़ोर हो रही है। हिंदी की उन्नति के लिए इन्हें हिंदी से जुड़ना चाहिए नाकी पृथक होना चाहिए।
आज तकनीकी बहुत आगे बढ़ चुकी है फिर भी अँग्रेज़ी के मुकाबले हिंदी में बहुत कम काम हुआ है। गूगल वाइस टाइपिंग रोमन एवं अँग्रेज़ी के लिए मौजूद है लेकिन देवनागरी हिंदी के लिए तो अभी भी अभाव ही है। मशीनी अनुवाद एक बहुत ही जटिल कार्य है सीडेक एवं ट्रिपल-आईटी वर्षों से इस प्रणाली के विकास हेतु प्रयासरत है लेकिन आज भी सफलता से बहुत दूर हैं। जब तक सभी भारतीय भाषाओं का मानक एवं पूर्ण कॉर्पस नहीं बनेगा तब तक मशीनी अनुवाद आधा अधूरा ही रहेगा। यदि सिलसिले बार एवं एक जुनून के साथ यह कार्य किया जाए तो बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है।
आज सूक्ष्मतम जानकारी से लेकर विशाल जानकारी इंटरनेट के माध्यम से कंप्यूटर पर उपलब्ध है। जिसका उपयोग कर व्यक्ति इसका लाभ उठाने लालायित है, पर आज भी इसकी सबसे बड़ी बाधा है भाषा की समझ। आज इंटरनेट की लगभग 80 प्रतिशत सामग्री अँग्रेज़ी में ही उपलब्ध है। हमारे देश में हज़ारों लाखों नागरिक हैं जो कि सफल व्यापारी, दुकानदार, किसान, कारीगर (मिस्त्री), शिक्षक आदि हैं; यह सभी अपने-अपने कार्य क्षेत्र में कुशल एवं विद्वान हैं, लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि यह सब अँग्रेज़ी भाषा के जानकार भी हों। ग्रामीण परिवेश में रहने वाले कृषक, कारीगर जो कि इस देश की उन्नति का मूल आधार हैं, यदि इन्हें और अच्छी तकनीकी की जानकारी अपनी ही निज भाषा हिंदी में मिले तो सोने पे सुहागा होगा! अतः हमें हिंदी के और अधिक प्रचार प्रसार एवं विस्तार के लिए ज़्यादा से ज़्यादा हिंदी ई-सामग्री को इंटरनेट पर स्थापित करने हेतु कार्य करने की जरूरत है। ताकि इंटरनेट पर हिंदी सामग्री का प्रतिशत और बड़ सके तथा तकनीकी के क्षेत्र में हिंदी एक समृद्ध विशाल वट वृक्ष के रूप में परिवर्तित होते हुए विश्व-पटल पर पूर्णरूप से स्थापित हो सके।
आजकल कुछ विद्वान हिंग्लिश को बढ़ावा दे रहे हैं जोकि किसी भी कोण से हिंदी के हित में उचित प्रतीत नहीं होती है। एफ.एम. रेडियो पर आप सुन सकते हैं कि एंकर किस प्रकार से फूहड़ता फैला रहे हैं हिंदी के नाम पर हिंग्लिश परोसते हैं और वह भी अभद्र एवं अश्लील सांकेतिक भाषा का सहारा लेकर। हिंदी सभ्य समाज को और देश के मुखियों को इन पर लगाम लगाना चाहिए।
हिंदी क्षेत्र के नागरिकों से मेरी अपील है कि हिंदी को उसका वाजिब हक दिलाने के लिए प्रयास कीजिए। मैंने अभी तक दो बार विश्व हिंदी सम्मेलनों में शिरकत की और महसूस किया कि सरकार जितना धन हिंदी के नाम पर इन विश्व हिंदी सम्मेलनों पर मेज़बानी में खर्च करती है अगर वह उसका एक चौथाई मात्र खर्च हिंदी पर काम करने वालों पर खर्च करे तो हिंदी की स्थिति बहुत कुछ सुधर जाए और सच में हिंदी के अच्छे दिन आ जाएँ।
जगदीप सिंह दाँगी
एसोसिएट प्रोफ़ेसर
प्रभारी निदेशक, प्रौद्योगिकी अध्ययन केंद्र,
प्रभारी विभागाध्यक्ष, कंप्यूटेशनल लिंग्विस्टिक्स विभाग,
भाषा विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा।
ई-मेल: dangijs@gmail.com, dangijs@yahoo.com