बढ़ी है जनेश्वर की प्रासंगिकता
शिवपाल सिंह यादव
‘छोटे लोहिया’ के नाम से प्रसिद्ध जनेश्वर मिश्र हमारे अभिभावक और आदर्श थे। समाजवादी दर्शन को हम लोगों ने जनेश्वर जी के माघ्यम से ही जाना। उन्होंने राजनीतिक शिक्षक की तरह बहुत कुछ सिखाया। मैं जब भी दिल्ली जाता, उनके 8, राजेन्द्र प्रसाद स्थित आवास पर जाकर घंटों बैठता, उनसे राजनीति के ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ समसामयिक घटनाओं की भी जानकारी मिलती थी। उनमें अनोखी विश्लेषण क्षमता और तर्कों के माध्यम से अपनी बात रखने की अद्भुत कला थी।
जनेश्वर जी के मन में हमेशा गरीबों और कमजोरांे के लिए पीड़ा रही है। वे मुझसे अक्सर कहते थे कि गरीबों के आंसू पोछना ही सच्चा समाजवाद है। वे एक चलते-फिरते ज्ञान-कोष थे। कभी भी धन-दौलत के पीछे नहीं भागे, न ही संपदा का संचय किया। छोटे लोहिया कई बड़े पदों पर रहे, कई बार केन्द्रीय मंत्री बने लेकिन उनमें कभी पद और सत्ता का दर्प नहीं आया। उन्होंने अपनी सादगी और सरलता नहीं छोड़ी। वह आजादी के समय के समाजवादियों और हम लोगों की पीढ़ी के सेतु थे। जनेश्वर जी चाहते थे कि सामाजिक व राजनीतिक जीवन में आम महिलाओं की सहभागिता बढ़े। उन्होंने हमेशा गरीब घर की नारियों को विशेष अवसर देकर आगे बढ़ाने की प्रेरणा दी। वह छोटी-छोटी घटनाओं से सूक्ष्म व जटिल दर्शन को समझा देते थे। यदि उन्हें अपने दौर का सबसे बड़ा समाजवादी चिंतक व समाजवादी अवधारणाओं का व्याख्याता कहा जाए तो गलत नहीं होगा। वे समतामूलक समृद्ध समाज के नवनिर्माण और डाॅक्टर राम मनोहर लोहिया के प्रतिबद्ध व अग्रिम पंक्ति के सिपाही थे। लोहिया के विचारों को मूर्तरूप देने के लिए ही उन्होंने माननीय मुलायम सिंह जी के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी बनायी। वह संसद और राजधानी में आम हिन्दुस्तानी और गांव-जवार की आवाज होते थे। डाॅक्टर
राममनोहर लोहिया ने एक बार उनकी प्रशंसा करते हुए कहा था कि जनेश्वर जी में प्रतिभा है और दबे-कुचले वर्ग की बेहतरी के लिए बड़ा काम करने की इच्छा भी। ये दोनों बातें विरले लोगों में मिलती है। डाॅ0 लोहिया का यह कथन युवा जनेश्वर के लिए था जो मानसरोवर कांड व कच्छ आन्दोलन का नायक थे।
छात्र जीवन से लेकर अंतिम समय तक वह जन-आन्दोलनों की अगुवाई करते रहे। उनके शब्द आज भी कानों में गूंजते हैं, ‘समाजवादियों को देश की तकदीर बदलनी है तो भारी बलिदानों के लिए तैयार रहना होगा। समाजवादियों को राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस चलानी चाहिए। सिर्फ नेताओं के भाषण सुन लेने पर से सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की राजनीति नहीं गरमायेगी।’ बहस में वे जमकर रूचि लेते थे, सार्थक बहस छेड़ने के बाद उन्हें खाने-पीने की भी सुधि नहीं रहती थी। उनकी खासियत थी कि गम्भीर से गम्भीर विषय को भी रोचक व सहज बना देते थे। उनके जाने से समाजवादी आन्दोलन व समाजवादी पार्टी की वैचारिक ताकत घटी है। वह गोष्ठियों और शिविरों के आयोजन पर जोर देेते थे ताकि राजनीति की नई जमात जानकार और जानदार वैचारिक क्षमता से लैस हो। फूलपुर पंडित नेहरू की परम्परागत सीट थी। वहां से कांग्रेस हारेगी, जब कोई सोच भी नहीं सकता था, तब जनेश्वर जी ने के0डी0 मालवीय सरीखे धुरंधर नेता को 1969 में उपचुनाव में पराजित किया। सोशलिस्टों के लिए इस जीत ने संजीवनी का काम किया। आन्दोलनों के दौरान उनका तेवर देखने लायक होता था। 1969 में मिश्र जी पटेल चैक (दिल्ली) से गिरफ्तार हुए, सांसद होने के कारण पुलिस अफसर ने उन्हें बैठने के लिए कुर्सी दी तो वे पैर से कुर्सी को ठोकर मारते हुए आम कार्यकर्ताओं के बीच जाकर बैठ गये। उन्हांेने लोकसभा चुनावों में जहाँ कमला बहुगुणा, विश्वनाथ प्रताप सिंह व सतीश चन्द्र खरे सरीखे दिग्गजों को हराया, वहीं चुनाव हारे भी, किन्तु कभी कुर्सी व कालीन के गुलाम नहीं हुए। जब सिद्धान्त और सरकार में से एक को चुनने का यक्ष-प्रश्न सामने आया तो बिना किसी हिचक के सरकार से इस्तीफा दे दिया, लेकिन जनता का विश्वास बनाये रखा। उन्होंने खाद, तेल व रसायन मंत्री बनने पर किसानों के लिए कई योजनाएं चलवायीं। रेल मंत्री होने पर रेल यात्रियो की सुरक्षा के लिए कार्य योजना बनायी। दूरसंचार मंत्री के रूप में पीसीओ सेवा को गांव-गांव तक पहुंचा दिया। उन्होंने मुलायम सिंह के साथ मिलकर दो भ्रान्तियांे को दूर किया कि समाजवादियों में एकजुटता नहीं हो सकती और वे सरकार नहीं चला सकते। मैंने विपक्ष में रहकर जनता से जुड़े मुद्दों को लेकर लड़ना और सरकार में आने के बाद जनोपयोगी योजनाएं बनाकर लागू करवाना जनेश्वर जी से ही सीखा है। वे वफादारी की जीवंत प्रतिमा थे, उनकी निष्ठा को बड़े से बड़ा लोभ ओर बड़े से बड़ा झंझावात भी डिगा न सका। पहले डाॅक्टर लोहिया, फिर लोकबंधु राजनारायण फिर धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव, वे जिसके साथ रहे, पूरी ईमानदारी से रहे, संकटकाल में भी चट्टान की तरह टिके रहे। उन्होंने जीवन के 11 साल जनान्दोलन करने और गरीबों की लड़ाई के कारण जेल में बिताये। रामकोला कांड में मुलायम सिंह जी समेत सभी समाजवादी जेल में थे। जनेश्वर जी नैनी जेल में निरुद्ध थे, इसी बीच उनकी पत्नी का देहांत हो गया। तत्कालीन राज्यपाल ने उन्हें पैरोल पर छोड़ने का निर्देश दिया लेकिन उन्होंने स्पष्ट मना कर दिया कि ‘जब तक मुलायम सिंह समेत एक भी नेता अथवा कार्यकर्ता जेल में है, जनेश्वर कारागार से बाहर एक कदम भी नहीं रखेगा।’ और वे पत्नी के अंतिम संस्कार में भी नहीं गये। आज के सार्वजनिक जीवन से जब वफादारी, ईमानदारी, सिद्धान्त-निष्ठा, समर्पण, संघर्ष जैसे शब्द अपनी पहचान खोते जा रहे हैं, ऐसे में जनेश्वर जी का याद आना स्वाभाविक है। उनकी स्मृति में मैं व्यक्तिगत रूचि लेकर कानपुर में एक पार्क बनवा रहा हूँ, जिसमें एक पुस्तकालय भी होगा।
जनेश्वर जी का जन्म 5 अगस्त 1933 को बलिया जिले के शुभनथहीं गांव में हुआ था, वे सशरीर हमारे मध्य 22 जनवरी, 2010 तक रहे। छोटे से गांव से निकलकर दिल्ली में जनपक्ष की अग्रिम पंक्ति के प्रवक्ता बनने तक की उनकी कहानी प्रेरणादायी है। वह किसी भी प्रकार के भेदभाव और मानवीय शोषण के खिलाफ थे।
जनेश्वर मिश्र हमें विचारों की ऐसी विरासत सौंप कर गये हैं, जिसकी ताकत से हम अपने समय एवं समाज की सभी समस्याओं और विकृतियों से निर्णायक लड़ाई लड़ सकते हैं। वह राजनीति की संत परम्परा की अगली कड़ी थे, जिन्हें अपने प्रयाण का पहले ही आभास हो चुका था। 19 जनवरी 2010 को अपने आखिरी धरने के दौरान सम्बोधन में उन्होंने कहा, ‘हो सकता है कि इसके बाद अब भाषण करने का अवसर न मिले…. शायद मेरी मौत के बाद समाजवादी आन्दोलन और तेज हो जाय।’ उनकी गर्जना व्यर्थ नहीं गयी। समाजवादियों ने भ्रष्ट व दमनकारी बसपा सरकार को उत्तर प्रदेश में अपदस्थ किया। उनके न रहने पर उनके विचारों की रोशनी लेकर उनके सपनों को पूरा करने की जिम्मेदारी हम लोगों की है, जिन्हें लोहिया के लोग व जनेश्वर की जमात कहा जाता है। जनेश्वर जी समाजवादी विचारधारा के परचम थे। 22 जनवरी 2010 को समाजवाद का यह सूर्य विचारों की रोशनी फैलाते हुए आकाश-गंगा मंे विलीन हो गया। उनके विचार आज पहले से भी अधिक प्रासंगिक और आवश्यक प्रतीत होते हैं।
वे समाजवाद और लोकतंत्र के लिए जीवनपर्यन्त समर्पित और संघर्षरत रहे। वे लखनऊ तथा केन्द्र में समाजवादी सरकार चाहते थे ताकि गरीबों, वंचितों, पीड़ितों के लिए कार्ययोजना बनाकर लागू करवा सकें। उनका एक सपना उनके अनुयायियों व समर्थकों ने लखनऊ में पूरा कर दिया, दूसरा अभी भी अधूरा है। 1992 में जब मा0 मुलायम सिंह जी ने समाजवादी पार्टी का गठन किया तो उनका सबसे बड़ा सहयोग रहा। जब भी समाजवादी पार्टी पर संकट की बदरी छाई, वे रणतूर्य की भांति निकले और मार्ग-प्रशस्त किया।
उनका पूरा जीवन दर्शन आदर्श व व्यवहार का अद्भुत समन्वय है। नई पीढ़ी उन्हें, डा0 लोहिया व समाजवाद को पढ़े, जाने तथा तदानुसार राजनीति करे। मुझे पूरी उम्मीद है कि इस लघु पुस्तक को हमारे युवा साथी पढ़कर सीखेंगे और राजनीति की चमक-दमक वाली मृगमरीचिका न फँसते हुए वैचारिक राजनीति से जुड़ेंगे तभी देश व समाज का भला कर सकेंगे।