जम्मू-कश्मीर के लोकतान्त्रिक समाधान की पीड़ादायिक प्रतीक्षा
अनुवादक: एस.आर. दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
जम्मू और काश्मीर (जेके) के 40 वर्ष तक शांतिपूर्ण समाधान के प्रस्ताव के विफल हो जाने पर 1989-90 में सशत्र विरोध शुरू हुआ था. सशत्र प्रतिरोध 2007-08 तक क्षीण हो गया था और उस का स्थान बड़े जनांदोलनों ने लिया था. सशत्र प्रतिरोध के पतन को एक नए जन आन्दोलन की राजनीति के रूप में देखने की बजाये इसे “आन्दोलानात्मक आतंकवाद” का नाम दे दिया गया. इसके बाद चुनाव के दौरान वोटरों के भारी गिनती में शामिल होने को लोगों की भारत के साथ एकता के अनुमोदन और “आज़ादी” आन्दोलन के हाशिये पर चले जाने के रूप में देखा गया. आर्थिक पॅकेज को सभी प्रकार की की गयी ज्यादतियों की भरपाई के लिए पर्याप्त समझा गया. हाल में अन्य राज्यों के वासियों को भूमि स्थानांतरण का मुद्दा यह दर्शाता है कि चुनावी हिस्सेदारी हित के असली मुद्दों के सामने कितनी अल्पजीवी है.
हमने 1989-92, 2008 और 2013 में खूनी दमन को देखा है जब बड़ी संख्या में निहत्थे लोग बाहर निकले थे और उनका सामना क्रूर ताकत से हुआ था जिससे बड़ी संख्या में मौतें हुयी थीं. परन्तु इस बार प्रत्यक्ष तौर पर अलग स्थिति थी. 2008 में हथियारों को छोड़ कर निहत्थे विरोधों की ओर झुकाव था. आज वह निर्णायक तौर पर सशत्र प्रतिरोध की तरफ चला गया है. काउंटर इन्सर्जेंसी में भय पैदा करना बहुत महत्वपूर्ण होता है. अगर आतंकवादियों की शव यात्रा में भारी संख्या में लोग शामिल होते हैं और मुठभेड़ की जगह पर बड़ी संख्या में इकट्ठे होते हैं तो यह भयमुक्त हो चुके लोगों की अवज्ञा का प्रतीक है. संयुक्त गठबंधन की सरकार 2008-10 के मौके का फायदा उठाने में विफल रही क्योंकि उस के पास पेश करने के लिए कुछ नहीं था. स्वायत्ता की पेशकश अब बेमानी है क्योंकि नयी दिल्ली ने 69 साल तक इसे नष्ट किया है. जम्मू कश्मीर के लिए राज्य के दर्जे का मुद्दा वैसा ही है जैसा कि उत्तर पूर्व और मध्य भारत के वन क्षेत्रों के लिए भूमि और सरकारी नौकरियों का. जेके के वर्तमान वित् मंत्री ने पिछले साल कहा था कि जेके के प्रति केंद्र की आर्थिक नीतियाँ “बाध्यकारी संघ” की रही हैं. इसीलिए जब हमें बताया जाता है कि इतिहास को जेके की 1953 पूर्व की स्थिति में नहीं ले जाया जा सकता, तो यह स्वीकारोक्ति है कि भारत सरकार के पास पेश करने के लिए कुछ भी नहीं है
इसी परिपेक्ष्य में वर्तमान सशत्र संघर्ष को देखना होगा. बुरहान वानी और उसके साथी इसी स्वदेशी आतंकवाद के नए दौर के प्रतिनिधि हैं. कश्मीरियों द्वारा हथियार उठाने के कारण, प्रेरणायें और उतेजनाएँ भारत के नियंत्रण में इलाके की परिस्थितियों में मौजूद हैं. यह वह पीढ़ी है जो सेना के दमन और 2008-13 के निहत्थे जन उभार को देखते हुए बड़ी हुयी है और सशत्र संघर्ष की तरफ आकर्षित हुयी है. बुरहान वानी जब मारा गया तो वह केवल 22 वर्ष का था और वह 2010 में 16 वर्ष की उम्र में हिजबुल- मुजाहिदीन में शामिल हुआ था. सोशल मीडिया पर उस की फोटो और संदेशों से वह जनप्रिय हुआ और बहुतों को प्रेरित किया. उसका एक अंतिम ब्यान अमरनाथ यात्रियों को संबोधित था. जब बॉर्डर सेक्योरिटी फ़ोर्स यात्रियों पर हमले की आशंका जता रही थी तो इसके उत्तर में उसने उनका स्वागत किया था और उनके लिए शुभ कामनाएं व्यक्त की थीं और उन्हें बिना किसी डर भय के आने का आश्वासन दिया था.
उसकी हत्या के साथ ही गम से आहात गुस्साए लोगों को नियंत्रित करने में बर्बर बल का प्रयोग किया गया. तब से 36 लोग मारे जा चुके हैं, 1538 घायल हुए हैं जिन मे से सैकड़ों छर्रों से अंधे हुए हैं और बहुत सारे लापता हैं. सरकारी बलों द्वारा एम्बुलेंस और अस्पताल पर हमलों का पक्का साक्ष्य है. यह सब पूर्व में घातक हथियारों का प्रयोग न करने के आश्वासन के बावजूद हुआ है. सामान्य स्थिति स्थापित करने के लिए पूर्व में तैनात 6 लाख सैनिकों की मदद के लिए 11 हज़ार सैनिक और भेजना दर्शाता है कि कोई भी सबक नहीं सीखा गया है.
कई विद्वान जो रणनीतिक मुद्दों पर लिखते हैं और कई जनरल जो जेके में तैनात रह चुके हैं इस बात पर जोर देते हैं कि सेना कशमीर झगडे का हल नहीं है. स्थानीय लोग सेना की सोशल वर्क के लिए प्रशंसा कर सकते हैं परन्तु वे सेना को एक “अधिकार जमाये” सेना के रूप में ही देखते हैं और “आज़ादी” का समर्थन करते हैं. अतः शांति व्यवस्था नियंत्रण में आ सकती है परन्तु अगर “आज़ादी” की जनप्रिय मांग को बहुत दिनों तक टाला गया तो यह बिगड़ सकती है. मुसलामानों के साथ संस्थागत भेदभाव सहित हिंदुत्व के विस्तार ने भारत की धर्म निरपेक्षता का तेज़ी से क्षरण किया है. पाकिस्तान पर दोषारोपण, इस्लामिक प्रोपेगंडा और विद्रोहियों को आतंकवादी कह देना बहुत विश्वसनीय नहीं है क्योंकि यह भारत द्वारा शासित कश्मीर में हो रहा है जहाँ कि भारी संख्या में सेना तैनात है और वहां पर कड़े कानून (AFSPA) लागू है. अगर यह सरकारी कथन मान लिया जाये कि पडोसी भारत द्वारा शासित कश्मीर में राजनीतिक गतिविधियों को आसानी से इतने लम्बे समय तक प्रभावित कर सकता है तो फिर यह नयी दिल्ली की बड़ी अक्षमता का परिचायक है.
यह विश्वास किया जाता है कि सरकार में स्वस्थ चित्त तत्व स्थिति की गंभीरता को समझेंगे. एक समाधान जिस से हम बचते रहे हैं लोकतान्त्रिक है जो कि जनमत संग्रह द्वारा लोगों की इच्छा जानने का है जिस के आश्वासन से सशत्र टकराहट को बढ़ने से रोका जा सकता है. स्व-निर्णय की मांग भारत द्वारा शासित जेके के लोगों तक ही सीमित है. यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम लोग राज्य के अधिकार को बल प्रयोग द्वारा पुनर्स्थापित करने और जनप्रिय जनापेक्षाओं का दानवीकरण किये जाने के मूक दर्शक हैं. रक्त रहित राजनीति की प्रतीक्षा पर लम्बे समय से पीड़ादायी रक्त रंजित राजनीति छाई हुयी है.